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Sunday, January 30, 2011

विनम्रता

जो दूसरों की सेवा करता है, दूसरों के अनुकूल होता है, वह दूसरों का जितना हित करता है उसकी अपेक्षा उसका खुद का हित ज्यादा होता है।
अपने से जो उम्र से बड़े हों, ज्ञान में बड़े हो, तप में बड़े हों, उनका आदर करना चाहिए। जिस मनुष्य के साथ बात करते हो वह मनुष्य कौन है यह जानकर बात करो तो आप व्यवहार-कुशल कहलाओगे।

किसी को पत्र लिखते हो तो यदि अपने से बड़े हों तो 'श्री' संबोधन करके लिखो। संबोधन करने से सुवाक्यों की रचना से शिष्टता बढ़ती है। किसी से बात करो तो संबोधन करके बात करो। जो तुकारे से बात करता है वह अशिष्ट कहलाता है। शिष्टतापूर्वक बात करने से अपनी इज्जत बढ़ती है।

जिसके जीवन में व्यवहार-कुशलता है, वह सभी क्षेत्रों में सफल होता है। जिसमें विनम्रता है, वही सब कुछ सीख सकता है। विनम्रता विद्या बढ़ाती है। जिसके जीवन में विनम्रता नहीं है, समझो उसके सब काम अधूरे रह गये और जो समझता है कि मैं सब कुछ जानता हूँ वह वास्तव में कुछ नहीं जानता।

ब्रह्मचर्य

युद्ध में मनुष्य के साहस का जितना महत्त्व है, उतना शस्त्रों के ढेर का नहीं है। ब्रह्मचर्य से व्यक्ति की आत्मशक्ति को पोषण मिलता है। व्यक्तियों का जीवन जब केवल काम-वासना के, सम्पत्ति जुटाने के या दोनों के चिंतन में व्यतीत होता है, तब ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त पर प्रहार होता है। जब ब्रह्मचर्य की उपेक्षा की जाती है, तब मनुष्य की आत्मशक्ति क्षीण होती है और उसकी सत्ता और सम्पत्ति शक्तिहीन बनती है।

कारण कुछ भी हो – चाहे अश्लील साहित्य हो, चलचित्र हों या और कुछ, जिम्मेदार कोई भी हो – कलाकार हो या इन सब कामों का नेता, प्रकृति तो अपना काम करती है। जब राष्ट्र के युवक युवतियाँ ब्रह्मचर्य को छोड़ देते हैं और अपने को काम वासना में खो देते हैं, शिक्षा को सम्पत्ति व काम-वासना के पीछे अपनी बुद्धिमत्ता और ओजस्विता को लुटा देते हैं, तब राष्ट्र अस्त्र-शस्त्रों से कितना भी सुसज्जित हो पर अपना प्रभाव कायम नहीं रख सकता। उसके सारे क्रियाकलाप भ्रांतिमात्र साबित होते हैं। मजबूत आधार के बिना बनाया हुआ किला बालू का किला साबित होता है।

यह समस्या सभी राष्ट्रों के सामने है। लोगों की आत्मशक्ति पुनरूज्जीवित करनी होगी। अन्यथा कितनी भी शस्त्र-सामग्री उधार ली जाय या कर्जा लेकर खड़े किये गये कारखानों के द्वारा तैयार की जाय, सब बेकार साबित होगी। मनुष्य के आत्मबल की जरूरत केवल धर्मयुद्ध में नहीं बल्कि सभी प्रकार के न्यायोचित शौर्य में भी है। सम्पत्ति और सत्ता की नहीं, ब्रह्मचर्य और उससे विकसित मनोबल की विजय होती है।
ब्रह्मचर्य को छोड़ना यानी मानव-सभ्यता से पशु जीवन की ओर मुड़ना। संयम के पालन से मस्तिष्क और हृदय शक्तिशाली बनते हैं। विषय-सेवन से बौद्धिक शक्ति और आत्मशक्ति नष्ट हो जाती।

केवल दैहिक भोग का संयम पर्याप्त नहीं है। जब मन में भोग का चिंतन चलता है, जब वासना की आग अंदर से जलाती है, तब चित्तशक्ति क्षीण होती जाती है। विषय-सेवन और वासना का त्याग यानी ब्रह्मचर्य।

Saturday, January 29, 2011

ब्रह्मज्ञानी

पहली भूमिकाः यूँ मान लो कि दूर से दरिया की ठंडी हवाएँ आती प्रतीत हो रही है ।

दूसरी भूमिकाः आप दरिया के किनारे पहुँचे हैं ।

तीसरी भूमिकाः आपके पैरों को दरिया का पानी छू रहा है ।

चौथी भूमिकाः आप कमर तक दरिया में पहुँच गये हैं । अब गर्म हवा आप पर प्रभाव नहीं डालेगी । शरीर को भी पानी छू रहा है आसपास भी ठंडी लहरें उभर रही हैं ।

पाँचवीं भूमिकाः छाती तक, गले तक आप दरिया में आ गये ।

छठी भूमिकाः जल आपकी आँखों को छू रहा है, बाहर का जगत दिखता नहीं । पलकों तक पानी आ गया । कोशिश करने पर बाहर का जगत दिखता है ।

सातवीं भूमिकाः आप पूरे दरिया में डूब गये ।

ऐसी अवस्था में कभी-कभी हजारों, लाखों वर्षों में कोई महापुरुष की होती है । कई वर्षों के बाद चौथी भूमिका वाले ब्रह्मज्ञानी पुरुष पैदा होते हैं । करोड़ों में से कोई ऐसा चौथी भूमिका तक पहुँचा हुआ वीर मिलता है । कोई उन्हें महावीर कह देते हैं ।कोई उन्हें भगवान कह देते हैं । कोई उन्हें ब्रह्म कहते हैं, कोई अवतारी कहते हैं, कोई तारणहार कहते हैं ।

उनका कभी कबीर नाम पड़ा, कभी रमण नाम पड़ा, कभी रामतीर्थ नाम पड़ा, मगर जो भगवान कृष्ण हैं वही कबीर हैं । जो शंकराचार्य हैं, राजा जनक, भगवान बुद्ध हैं वही कबीर हैं ।

Friday, January 28, 2011

समय

किसी देश पर शत्रुओं ने आक्रमण की तैयारी की। गुप्तचरों द्वारा राजा को समाचार पहुँचाया गया कि शत्रुदेश द्वारा सीमा पर ऐसी-ऐसी तैयारियाँ हो रही हैं। राजा ने मुख्य सेनापति के लिए संदेशवाहक द्वारा पत्र भेजा। संदेशवाहक की घोड़ी के पैर की नाल में से एक कील निकल गयी थी। उसने सोचाः 'एक कील ही तो निकल गयी है, कभी ठुकवा लेंगे।' उसने थोड़ी लापरवाही की। जब संदेशा लेकर जा रहा था तो उस घोड़ी के पैर की नाल निकल पड़ी। घोड़ी गिर गयी। सैनिक मर गया। संदेश न पहुँच पाने के कारण दुश्मनों ने आक्रमण कर दिया और देश हार गया।
कील न ठुकवायी.... घोड़ी गिरी.... सैनिक मरा.... देश हारा।

एक छोटी सी कील न लगवाने की लापरवाही के कारण पूरा देश हार गया। अगर उसने उसी समय तत्पर होकर कील लगवायी होती तो ऐसा न होता। अतः जो काम जब करना चाहिए, कर ही लेना चाहिए। समय बरबाद नहीं करना चाहिए।

Thursday, January 27, 2011

फकीर

फकीर का मतलब भिखारी नहीं । फकीर का मतलब लाचार नहीं । फकीर वह है जो भगवान  की छाती पर खेलने का सामर्थ्य रखता हो ईश्वर की छाती पर लात मारने की शक्ति जिसमें है वह फकीर । भृगु ने भगवान की छाती पर लात मार दी और भगवान पैरचंपी कर रहे हैं । भृगु फकीर थे । भिखमंगो को थोड़े ही फकीर कहते हैं ? तृष्णावान् को थोड़े ही फकीर कहते हैं ?


भृगु को भगवान के प्रति द्वेष न था । उनकी समता निहारने के लिए लगा दी लात । भगवान विष्णु ने क्या किया ? कोप किया ? नहीं । भृगु के पैर पकड़कर चंपी की कि हे मु्नि ! तुम्हें चोट तो नहीं लगी ?


फकीर ऐसे होते हैं । उनके संग में आकर भी लोग रोते हैं : ‘कंकड़ दो… पत्थर दो… मेरा क्या होगा … ? बच्चो का क्या होगा ? कुटुम्ब का क्या होगा?


सब ठीक हो जायेगा । पहले तुम अपनी महिमा में आ जाओ । अपने आपमें आ जाओ ।


न्यायाधीश कोर्ट में झाडू लगाने थोड़े ही जाता है ? वादी प्रतिवादी को, असील वकील को बुलाने थोड़ी ही जाता है ? वह तो कोर्ट में आकर विराजमान होता है अपनी कुर्सी पर । बाकी के सब काम अपने आप होने लगते हैं । न्यायाधीश अपनी कुर्सी छोड़कर पानी भरने लग जाए, झाडू लगाने लग जाए,वादी प्रतिवादी को पुकारने लग जाए तो वह क्या न्याय करेगा ?



तुम न्यायाधीशों के भी न्यायाधीश हो । अपनी कुर्सी पर बैठ जाओ । अपनी आत्मचेतना में जग जाओ ।


छोटी बड़ी पूजाएँ बहुत की । अब आत्मपूजा में आ जाओ ।

Tuesday, January 25, 2011

स्वतंत्रता माने उच्छ्रंखलता नहीं

-पूज्य लीलाशाह बापू के सत्संग प्रवचन से 

जिज्ञासुः “स्वामी जी ! आजकल स्वतंत्रता के नाम पर बहुत कुछ नहीं होने जैसा भी हो रहा है। यदि किसी को कुछ समझायें तो वह  यह कह देता है कि हम स्वतंत्र भारत के नागरिक हैं। अतः हम अपनी इच्छानुसार जी सकते हैं।”


स्वामी जीः “(गंभीर शब्दों में) ऐसे मूर्ख लोग स्वतंत्रता का अर्थ ही नहीं जानते। स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं है। हमारा देश 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हमको जैसा चाहें वैसा करने का अधिकार मिल गया है। सच्ची स्वतंत्रता तो यह है कि हम अपने मन-इन्द्रियों की गुलामी से छूट जायें। विषय-वासनाओं के वश में रहकर जैसा मन में आया वैसा कर लिया यह स्वतंत्रता नहीं बल्कि गुलामी है। मनमानी तो पशु भी कर लेता है फिर मनुष्यता कहाँ रही ?



भले ही कोई सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने वश में कर ले, सभी शत्रुओं को मार डाले परंतु यदि वह अपने मन को वश नहीं कर सका, अपने भीतर छिपे विकाररूपी शत्रुओं को नहीं मार पाया तो उसकी दुर्गति होनी निश्चित है।


एक दिन तुम अपने कमरे में गये और अन्दर से ताला लगाकर चाबी अपने पास रख ली। दूसरे दिन तुम जैसे ही अपने कमरे में घुसे किसी ने बाहर से ताला लगा दिया और चाबी लेकर भाग गया। अब पहले दिन तुम कमरे में बंद रहकर भी स्वतंत्र थे क्योंकि कमरे से बाहर निकलना तुम्हारे हाथ में था। दूसरे दिन वही कमरा तुम्हारे लिए जेलखाना बन गया क्योंकि चाबी दूसरे के हाथ में है।

इसी प्रकार जब तुम अपने मन पर संयम रखते हो, माता-पिता, गुरूजनों एवं सत्शास्त्रों की आज्ञा में चलकर मन को वश में रखते हुए कार्य करते हो तब तुम स्वतंत्र हो। इसके विपरीत यदि मन कहे अनुसार चलते रहे तो तुम मन के गुलाम हुए। भले ही अपने को स्वतंत्र कहो परंतु हो महागुलाम….

विदेशों में बड़ी आजादी है। उठने बैठने, खाने-पीने अथवा कोई भी व्यवहार करने की खुली छूट है। माँ-बाप, पुत्र-पुत्री सब स्वतंत्र हैं। किसी का किसी पर भी कोई नियंत्रण नहीं है, किंतु ऐसी उच्छ्रंखलता से वहाँ के लोगों का कैसा विनाश हो रहा है, यह भी तो जरा सोचो। मान-मर्यादा, धर्म, चरित्र सब  नष्ट हो रहे हैं वे मनुष्य होकर पशुओं से भी अधम हो चुके हैं, क्या तुम इसे आजादी कहते हो ? कदापि नहीं, यह आजादी नहीं महाविनाश है।

चौरासी लाख शरीरों में कष्ट भोगने के बाद यह मानव-शरीर मिलता है परंतु मूढ़ मतिवाले लोग इस दुर्लभ शरीर में भी पशुओं जैसे ही कर्म करते हैं। ऐसे लोगों को आगे चलकर बहुत रोना पड़ता है।

तुलसीदास जी कहते हैं-

बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि पछिताइ।


अतः मेरे भैया ! स्वतंत्रता का अर्थ उच्छ्रंखलता नहीं है। शहीदों ने खून की होली खेलकर आप लोगों को इसलिए आजादी दिलायी है कि आप बिना किसी कष्ट के अपना, समाज का तथा देश का कल्याण कर सकें। स्वतंत्रता का सदुपयोग करो तभी तुम तथा तुम्हारा देश स्वतंत्र रह पायेगा, अन्यथा मनमुखता के कारण अपने ओज-तेज को नष्ट करने वालों को कोई भी अपना गुलाम बना सकता है।