http://i93.photobucket.com/albums/l80/bigrollerdave/flash/sign.swf" quality="high" wmode="transparent"

Tuesday, April 9, 2013

आत्मध्यान का अभ्यास

तरंगे सागर में लीन होने लगती है तो वे अपना तरंगपना छोड़कर जलरूप हो जाती है। हमारी तमाम वृत्तियों का मूल उदगम्-स्थान.... अधिष्ठान परमात्मा है। 'हम यह शरीरधारी हैं.... हमारा यह नाम है.... हमारी वह जाति है..... हमारे ये सगे-सम्बन्धी हैं.... हम इस जगत में रहते हैं....' ये तमाम प्रपंच हमारी वृत्तियों के खेल हैं। हमारी वृत्ति अपने मूल उदगम्-स्थान आनन्दस्वरूप परमात्मा में डूब गई, लीन हो गई तो न यह शरीर है न उसका कोई नाम है, न उसकी कोई जाति है, न उसके कोई सगे सम्बन्धी हैं और न कोई जगत ही है। केवल आनंदस्वरूप परमात्मा ही परमात्मा है। वह परमात्मा मैं हूँ। एक बार यह सत्य आत्मसात हो  गया, भली प्रकार निजस्वरूप का बोध हो गया, फिर चाहे करोड़ों-करोड़ों वृत्तियाँ उठती रहें, करोड़ों-करोड़ों ब्रह्माण्ड बनते रहें..... बिगड़ते रहें फिर भी उस बुद्ध पुरुष को कोई हानि नहीं। वह परिपक्व अवस्था जब तक सिद्ध न हो तब तक आत्मध्यान का अभ्यास करते रहो।

संयम-व्यवहार

ʹʹजिन व्यक्तियों के जीवन में संयम-व्यवहार नहीं है, वे न तो स्वयं की ठीक से उन्नति कर पाते हैं और न ही समाज में कोई महान कार्य कर पाते हैं। भौतिकता की विलासिता और अहंकार उनको ले डूबता है। वे रावण और कंस की परम्परा में जा डूबते हैं। ऐसे व्यक्तियों से बना हुआ समाज और देश भी सच्ची सुख-शांति व आध्यात्मिक उन्नति में पिछड़ जाता है।

हे भारत के विद्यार्थियो ! तुम संयम-सदाचारयुक्त जीवन जीकर अपना जीवन तो समुन्नत करो ही, साथ ही देश की उन्नति के लिए भी प्रयत्नशील रहो। वही सफल होता है जो आत्म-उन्नति करना जानता है। अपनी संस्कृति पर कुठाराघात करने वाले कुचालों से सावधान रहो और अपनी संस्कृति की गरिमा बढ़ाओ। इसी में तुम्हारा व परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवता का हित निहित है।"

अगर दिल नहीं खुला

सच्चे और निष्कपट भाव से प्रभु की आराधना करना भक्ति है। उस समय प्रभु के प्रति प्रबल प्रेम का भाव आने लगता है। भक्ति का संबंध दिल से है। योग साधना मन और बुद्धि को तेज व निर्मल बनाने और दिल को खोलने की प्रक्रिया है। कर्मयोग हमारे शारीरिक और मानसिक कर्मों की सफाई के लिए है, ज्ञानयोग से बुद्धि तेज होती है और भक्तियोग भाव को शुद्ध करने की प्रक्रिया है।


अगर दिल नहीं खुला तो ज्ञानयोग भी केवल शब्द मात्र रह जाता है, जो कभी अहंकार को शुद्ध नहीं कर सकेगा। लेकिन जब ज्ञानयोग जीवन में उतरने लगता है, तब साधक भक्त कहलाता है। गुरु, शिष्य के दिल को ही खोलने की कोशिश करता है, जिससे शक्ति का प्रवाह ऊपर की तरफ होने लगे और साधक चेतना की उच्च अवस्था में पहुंच जाए।

श्रद्धा

जिसको आपने देखा नहीं उसमें विश्वास करना होता है। विश्वास हो तो बिल्कुल अन्धा हो और विचार करो तो बिल्कुल निष्ठुर, तर्कयुक्त, तीक्षण, तलवार की धार जैसा। उसमें फिर कोई पक्षपात नहीं।
श्रद्धा करो तो अन्धी करो । काम करो तो मशीन होकर करो, बिल्कुल व्यवस्थित, क्षति रहित। विश्वास करो तो बस.... धन्ना जाट की नाँईं। आत्मविचार करो तो बिल्कुल तटस्थ।


लोग श्रद्धा करने की जगह पर विचार करते हैं, तर्क लड़ाते हैं और आत्म विचार की जगह पर श्रद्धा करते हैं। अपनी 'मैं' के विषय में विचार चाहिए और भगवान को मानने में विश्वास चाहिए। वस्तु का उपयोग करने में तटस्थता चाहिए। ये तीन बाते आ जाय तो कल्याण हो जाय।



भगवान से संबंध

हर जीव का वास्तविक घर तो भगवान का धाम ही है। यह धरातल तो रैन - बसेरा की तरह है जहां पर कुछ समय के लिये जीव ठहरता है। जो अपना नहीं , उसको हम अपना बताते हैं। यह घर , यह परिवार और यह धन इत्यादि सब यहीं रह जाना है। अगर यह हमारा होता तो हमारे साथ ही चले जाना चाहिए था। वास्तव में हम भ्रम में जी कर इनकी पालना कर रहे हैं , जबकि हमें पालना करनी चाहिये अपने वास्तविक ध्येय की। क्या है वास्तविक ध्येय ? यह ध्येय है भगवान की भक्ति। 


धन कमाना , परिवार बनाना और उसकी देखभाल करना अनुचित नहीं है , परंतु उसमें बहुत अधिक आसक्त हो जाना ठीक नहीं है। अपनी असली पहचान को समझें। अपने वास्तविक संबंधी यानि भगवान से अपने संबंध को मजबूत करें।

जिसकी मिट्टी है, अग्नि है, पानी है, जो हमारे दिल की धड़कनें चला रहा है, आँखों को देखने की, कानों को सुनने की, मन को सोचने की, बुद्धि को निर्णय करने की शक्ति दे रहा है, निर्णय बदल जाते हैं फिर भी जो बदले हुए निर्णय को जानने का ज्ञान दे रहा है, वह परमात्मा हमारा है। मरने के बाद भी वह हमारे साथ रहता है, उसके लिए हमने क्या किया ? उसको हम कुछ नहीं दे सकते ? प्रीतिपूर्वक स्मरण करते करते प्रेममय नहीं हो सकतेबेवफा, गुणचोर होने के बदले शुक्रगुजारी और स्नेहपूर्वक स्मरण क्या अधिक कल्याणकारी नहीं होगा ? हे बेवकूफ मानव ! हे गुणचोर मनवा !! सो क्यों बिसारा जिसने सब दिया ? जिसने गर्भ में रक्षा की, सब कुछ दिया, सब कुछ किया, भर जा धन्यवाद से, अहोभाव से उसके प्रीतिपूर्वक स्मरण में !
एक मछली, अपनी साथी मछलियों से पूछा करती थी, मैं हमेशा सागर का नाम सुनती हूं। यह सागर है क्या? और कहां है? मैं उसे कहां तलाशूं? मछली सागर में ही रहती थी, वहीं खाती-पीती और सोती थी। वहीं उसका जन्म हुआ था, और मृत्यु भी सागर में ही निश्चित थी। पर सागर का उसे पता नहीं था, क्योंकि उसकी विशालता को न वो देख सकती थी और न पहचान सकती थी। छोटी सी थी, तो दूर तक तैर कर भी उसके दायरे का अंदाजा नहीं लगा सकती थी। कुछ उसी मछली जैसा हाल हमारा भी है... ऐसे ही विश्व रूप ब्रह्म में हम हैं और वह हम में है, फिर भी उसे तलाशते रहते हैं।

मेरी हो सो जल जाय, तेरी हो सो रह जाय। हमारी जो अहंता, ममता और वासना है वह जल जाए। गुरुजी! आपकी जो करुणा और ज्ञानप्रसाद है वही रह जाए। तत्परता से सेवा करते हैं तो आदमी की वासनाएं नियंत्रित हो जाती हैं और ईश्वरप्राप्ति की भूख लगती है। प्रमाणभूत है कि जगत नष्ट हो रहा है। संसार का कितना भी कुछ मिल जाए लेकिन परमात्म-पद को पाए बिना इस जीवात्मा का जन्म-मरण का दुःख जाएगा नहीं।