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Friday, April 30, 2010

वास्तवमें तो एक भगवान् या आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता ही नहीं, इस सत्य को प्राप्त करके कृतकृत्य हो जाओ। निश्चय मानो, तुम जड अनित्य नहीं सच्चिदानन्द आत्मा हो।
GURUDEV KE AAGE ROZ RONA CHAIYE,KI GURUDEV AAP ITNA SATSANG KE DWARA GYAN DE RAHE HAI,PAR PHIR BHI HAMARA VIVIEK,VAIRAGYA KYO JAGRUT NAHEHOT"

Sunday, April 25, 2010

पद्मिनी एकादशी

अर्जुन ने कहा: हे भगवन् ! अब आप अधिक (लौंद/ मल/ पुरुषोत्तम) मास की शुक्लपक्ष की एकादशी के विषय में बतायें, उसका नाम क्या है तथा व्रत की विधि क्या है? इसमें किस देवता की पूजा की जाती है और इसके व्रत से क्या फल मिलता है?

श्रीकृष्ण बोले : हे पार्थ ! अधिक मास की एकादशी अनेक पुण्यों को देनेवाली है, उसका नाम ‘पद्मिनी’ है । इस एकादशी के व्रत से मनुष्य विष्णुलोक को जाता है । यह अनेक पापों को नष्ट करनेवाली तथा मुक्ति और भक्ति प्रदान करनेवाली है । इसके फल व गुणों को ध्यानपूर्वक सुनो: दशमी के दिन व्रत शुरु करना चाहिए । एकादशी के दिन प्रात: नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पुण्य क्षेत्र में स्नान करने चले जाना चाहिए । उस समय गोबर, मृत्तिका, तिल, कुश तथा आमलकी चूर्ण से विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए । स्नान करने से पहले शरीर में मिट्टी लगाते हुए उसीसे प्रार्थना करनी चाहिए: ‘हे मृत्तिके ! मैं तुमको नमस्कार करता हूँ । तुम्हारे स्पर्श से मेरा शरीर पवित्र हो । समस्त औषधियों से पैदा हुई और पृथ्वी को पवित्र करनेवाली, तुम मुझे शुद्ध करो । ब्रह्मा के थूक से पैदा होनेवाली ! तुम मेरे शरीर को छूकर मुझे पवित्र करो । हे शंख चक्र गदाधारी देवों के देव ! जगन्नाथ ! आप मुझे स्नान के लिए आज्ञा दीजिये ।’

इसके उपरान्त वरुण मंत्र को जपकर पवित्र तीर्थों के अभाव में उनका स्मरण करते हुए किसी तालाब में स्नान करना चाहिए । स्नान करने के पश्चात् स्वच्छ और सुन्दर वस्त्र धारण करके संध्या, तर्पण करके मंदिर में जाकर भगवान की धूप, दीप, नैवेघ, पुष्प, केसर आदि से पूजा करनी चाहिए । उसके उपरान्त भगवान के सम्मुख नृत्य गान आदि करें ।

भक्तजनों के साथ भगवान के सामने पुराण की कथा सुननी चाहिए । अधिक मास की शुक्लपक्ष की ‘पद्मिनी एकादशी’ का व्रत निर्जल करना चाहिए । यदि मनुष्य में निर्जल रहने की शक्ति न हो तो उसे जल पान या अल्पाहार से व्रत करना चाहिए । रात्रि में जागरण करके नाच और गान करके भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए । प्रति पहर मनुष्य को भगवान या महादेवजी की पूजा करनी चाहिए ।

पहले पहर में भगवान को नारियल, दूसरे में बिल्वफल, तीसरे में सीताफल और चौथे में सुपारी, नारंगी अर्पण करना चाहिए । इससे पहले पहर में अग्नि होम का, दूसरे में वाजपेय यज्ञ का, तीसरे में अश्वमेघ यज्ञ का और चौथे में राजसूय यज्ञ का फल मिलता है । इस व्रत से बढ़कर संसार में कोई यज्ञ, तप, दान या पुण्य नहीं है । एकादशी का व्रत करनेवाले मनुष्य को समस्त तीर्थों और यज्ञों का फल मिल जाता है ।

इस तरह से सूर्योदय तक जागरण करना चाहिए और स्नान करके ब्राह्मणों को भोजन करना चाहिए । इस प्रकार जो मनुष्य विधिपूर्वक भगवान की पूजा तथा व्रत करते हैं, उनका जन्म सफल होता है और वे इस लोक में अनेक सुखों को भोगकर अन्त में भगवान विष्णु के परम धाम को जाते हैं । हे पार्थ ! मैंने तुम्हें एकादशी के व्रत का पूरा विधान बता दिया ।

अब जो ‘पद्मिनी एकादशी’ का भक्तिपूर्वक व्रत कर चुके हैं, उनकी कथा कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो । यह सुन्दर कथा पुलस्त्यजी ने नारदजी से कही थी : एक समय कार्तवीर्य ने रावण को अपने बंदीगृह में बंद कर लिया । उसे मुनि पुलस्त्यजी ने कार्तवीर्य से विनय करके छुड़ाया । इस घटना को सुनकर नारदजी ने पुलस्त्यजी से पूछा : ‘हे महाराज ! उस मायावी रावण को, जिसने समस्त देवताओं सहित इन्द्र को जीत लिया, कार्तवीर्य ने किस प्रकार जीता, सो आप मुझे समझाइये ।’

इस पर पुलस्त्यजी बोले : ‘हे नारदजी ! पहले कृतवीर्य नामक एक राजा राज्य करता था । उस राजा को सौ स्त्रियाँ थीं, उसमें से किसीको भी राज्यभार सँभालनेवाला योग्य पुत्र नहीं था । तब राजा ने आदरपूर्वक पण्डितों को बुलवाया और पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ किये, परन्तु सब असफल रहे । जिस प्रकार दु:खी मनुष्य को भोग नीरस मालूम पड़ते हैं, उसी प्रकार उसको भी अपना राज्य पुत्र बिना दुःखमय प्रतीत होता था । अन्त में वह तप के द्वारा ही सिद्धियों को प्राप्त जानकर तपस्या करने के लिए वन को चला गया । उसकी स्त्री भी (हरिश्चन्द्र की पुत्री प्रमदा) वस्त्रालंकारों को त्यागकर अपने पति के साथ गन्धमादन पर्वत पर चली गयी । उस स्थान पर इन लोगों ने दस हजार वर्ष तक तपस्या की परन्तु सिद्धि प्राप्त न हो सकी । राजा के शरीर में केवल हड्डियाँ रह गयीं । यह देखकर प्रमदा ने विनयसहित महासती अनसूया से पूछा: मेरे पतिदेव को तपस्या करते हुए दस हजार वर्ष बीत गये, परन्तु अभी तक भगवान प्रसन्न नहीं हुए हैं, जिससे मुझे पुत्र प्राप्त हो । इसका क्या कारण है?

इस पर अनसूया बोली कि अधिक (लौंद/मल ) मास में जो कि छत्तीस महीने बाद आता है, उसमें दो एकादशी होती है । इसमें शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘पद्मिनी’ और कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘परमा’ है । उसके व्रत और जागरण करने से भगवान तुम्हें अवश्य ही पुत्र देंगे ।

इसके पश्चात् अनसूयाजी ने व्रत की विधि बतलायी । रानी ने अनसूया की बतलायी विधि के अनुसार एकादशी का व्रत और रात्रि में जागरण किया । इससे भगवान विष्णु उस पर बहुत प्रसन्न हुए और वरदान माँगने के लिए कहा ।

रानी ने कहा : आप यह वरदान मेरे पति को दीजिये ।

प्रमदा का वचन सुनकर भगवान विष्णु बोले : ‘हे प्रमदे ! मल मास (लौंद) मुझे बहुत प्रिय है । उसमें भी एकादशी तिथि मुझे सबसे अधिक प्रिय है । इस एकादशी का व्रत तथा रात्रि जागरण तुमने विधिपूर्वक किया, इसलिए मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ ।’ इतना कहकर भगवान विष्णु राजा से बोले: ‘हे राजेन्द्र ! तुम अपनी इच्छा के अनुसार वर माँगो । क्योंकि तुम्हारी स्त्री ने मुझको प्रसन्न किया है ।’

भगवान की मधुर वाणी सुनकर राजा बोला : ‘हे भगवन् ! आप मुझे सबसे श्रेष्ठ, सबके द्वारा पूजित तथा आपके अतिरिक्त देव दानव, मनुष्य आदि से अजेय उत्तम पुत्र दीजिये ।’ भगवान तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गये । उसके बाद वे दोनों अपने राज्य को वापस आ गये । उन्हींके यहाँ कार्तवीर्य उत्पन्न हुए थे । वे भगवान के अतिरिक्त सबसे अजेय थे । इन्होंने रावण को जीत लिया था । यह सब ‘पद्मिनी’ के व्रत का प्रभाव था । इतना कहकर पुलस्त्यजी वहाँ से चले गये ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : हे पाण्डुनन्दन अर्जुन ! यह मैंने अधिक (लौंद/मल/पुरुषोत्तम) मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत कहा है । जो मनुष्य इस व्रत को करता है, वह विष्णुलोक को जाता है ।

Saturday, April 24, 2010

शरीर आदि बदलनेवाले हैं और आप न बदलनेवाले हैं।आपने भूलसे अपनेको उनसे मिला हुआ मान लिया।बस,इसको आप मत मानो।हम उनसे मिले हुए हैं-ऐसा दीखनेपर भी इसको आदर मत दो,प्रत्युत अपने अनुभव को आदर दो कि मैं उनसे अलग हूँ।कैसे अलग हूँ कि बचपनसे लेकर अबतक शरीर बदल गया,पर मैं वही हूँ।यह बिलकुल प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है।आप शरीर आदिसे अलग हैं तभी तो बचपन बीत गया और आप रह गये।

आध्यात्मिक उन्नति

जो आध्यात्मिक उन्नति करता है, उसकी भौतिक उन्नति सहज में होने लगती है। सुख भीतर की चीज है और भौतिक चीज बाहर की है। सुख और भौतिक चीजों में कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है।


दरिद्र कौन है ? जो दूसरों से सुख चाहता है, वह दरिद्र है। मूर्ख कौन है ? जो इस संसार को सत्य मानकर उस पर विश्वास करता है, वह मूर्ख है। संसार के स्वामी जगदीश्वर को नहीं खोजता है, वह महामूर्ख है।

अपनी मनोवांछित इच्छाओं के मुताबिक काम्य पदार्थ पाकर जो सुखी होना चाहता है वह सुख और विघ्न-बाधाओं के बीच दुःखी होते-होते जीवन पूरा कर देता है।

समय बीत जायेगा और काम अधूरा रह जायेगा। आखिर पश्चाताप हाथ लगेगा। उससे पहले ईश्वर के राह की यात्रा शुरू कर दो। रात्रि में चलते-चलते ठोकरें खानी पड़े, इससे अच्छा है कि दिन दहाड़े चल लो बुढ़ापा आ जाय, बुद्धि क्षीण हो जाय, इन्द्रियाँ कमजोर हो जायें, देह काँपने लगे, कुटुम्बीजन मुँह मोड़ लें, लोग अर्थी में बाँधकर 'राम बोलो भाई राम...' करते हुए श्मशान में ले जायें उससे पहले अपने आपको शाश्वत में पहुँचा दो तो बेड़ा पार हो जाय।

Thursday, April 22, 2010

यदि प्राणी व्यथित हृदय से उन्हें पुकारे तो उसे सबकुछ मिल सकता है।इस दृष्टि से अपने को निर्दोष बनाने में प्रार्थना का मुख्य स्थान है।वह प्रार्थना सजीव तभी होती है,जब की हुई भूल को न दुहरा कर प्रायश्चितपूर्वक प्रार्थना की जाय।

धर्म

हम जो सत्कार्य करते हैं उससे हमें कुछ मिले – यह जरूरी नहीं है। किसी भी सत्कार्य का उद्देश्य हमारी आदतों को अच्छी बनाना है। हमारी आदते अच्छी बनें, स्वभाव शुद्ध, मधुर हो और उद्देश्य शुद्ध आत्मसुख पाने का हो। जीवन निर्मल बने इस उद्देश्य से ही सत्कार्य करने चाहिए।




किसी को पानी पिलायें, भोजन करायें एवं बदले में पच्चीस-पचास रूपये मिल जायें – यह अच्छे कार्य करने का फल नहीं है। अच्छे कार्य करने का फल यह है कि हमारी आदतें अच्छी बनें। कोई ईनाम मिले तभी सुखी होंगे क्या ? प्यासे को पानी एवं भूखे को भोजन देना यह कार्य क्या स्वयं ही इतना अच्छा नहीं है कि उस कार्य को करने मात्र से हमें सुख मिले ? है ही। उत्तम कार्य को करने के फलस्वरूप चित्त में जो प्रसन्नता होती है, निर्मलता का अनुभव होता है उससे उत्तम फल अन्य कोई नहीं है। यही चित्त का प्रसाद है, मन की निर्मलता है, अंतःकरण की शुद्धि है कि कार्य करने मात्र से प्रसन्न हो जायें। अतः जिस कार्य को करने से हमारा चित्त प्रसन्न हो, जो कार्य शास्त्रसम्मत हो, महापुरुषों द्वारा अनुमोदित हो वही कार्य धर्म कहलाता है।

Wednesday, April 21, 2010

अधिक मास का माहात्म्य

अधिक मास का माहात्म्य


(अधिक मासः 15 अप्रैल 2010 से 15 मई 2010)

अधिक मास में सूर्य की संक्रान्ति (सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश) न होने के कारण इसे 'मलमास (मलिन मास) कहा गया। स्वामीरहित होन से यह मास देव-पितर आदि की पूजा तथा मंगल कर्मों के लिए त्याज्य माना गया। इससे लोग इसकी घोर निंदा करने लगे।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः "मैं इसे सर्वोपरि - अपने तुल्य करता हूँ। सदगुण, कीर्ति, प्रभाव, षडैश्वर्य, पराक्रम, भक्तों को वरदान देने का सामर्थ्य आदि जितने गुण मुझमें हैं, उन सबको मैंने इस मास को सौंप दिया।

अहमेते यथा लोके प्रथितः पुरुषोत्तमः।

तथायमपि लोकेषु प्रथितः पुरुषोत्तमः।।

उन गुणों के कारण जिस प्रकार मैं वेदों, लोकें और शास्त्रों में 'पुरुषोत्तम' नाम से विख्यात हूँ, उसी प्रकार यह मलमास भी भूतल पर 'पुरुषोत्तम' नाम से प्रसिद्ध होगा और मैं स्वयं इसका स्वामी हो गया हूँ।"

इस प्रकार अधिक मास, मलमास, 'पुरुषोत्तम मास' के नाम से विख्यात हुआ।

भगवान कहते हैं- 'इस मास में मेरे उद्देश्य से जो स्नान (ब्राह्ममुहूर्त में उठकर भगवत्स्मरण करते हुए किया गया स्नान), दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण तथा देवार्चन किया जाता है, वह सब अक्षय हो जाता है। जो प्रमाद से इस बात को खाली बिता देते हैं, उनका जीवन मनुष्यलोक में दारिद्रय, पुत्रशोक तथा पाप के कीचड़ से निंदित हो जाता है इसमें संदेह नहीं है।

सुगंधित चंदन, अनेक प्रकार के फूल, मिष्टान्न, नैवेद्य, धूप, दीप आदि से लक्ष्मी सहित सनातन भगवान तथा पितामह भीष्म का पूजन करें। घंटा, मृदंग और शंख की ध्वनि के साथ कपूर और चंदन से आरती करें। ये न हों तो रूई की बत्ती से ही आरती कर लें। इससे अनंत फल की प्राप्ति होती है। चंदन, अक्षत और पुष्पों के साथ ताँबे के पात्र में पानी रखकर भक्ति से प्रातःपूजन के पहले या बाद में अर्घ्य दें। अर्घ्य देते समय भगवान ब्रह्माजी के साथ मेरा स्मरण करके इस मंत्र को बोलें-

देवदेव महादेव प्रलयोत्पत्तिकारक।

गृहाणार्घ्यमिमं देव कृपां कृत्वा ममोपरि।।

स्वयम्भुवे नमस्तुभ्यं ब्रह्मणेऽमिततेजसे।

नमोऽस्तुते श्रियानन्त दयां कुरु ममोपरि।।

'हे देवदेव ! हे महादेव ! हे प्रलय और उत्पत्ति करने वाले ! हे देव ! मुझ पर कृपा करके इस अर्घ्य को ग्रहण कीजिए। तुझ स्वयंभू के लिए नमस्कार तथा तुझ अमिततेज ब्रह्मा के लिए नमस्कार। हे अनंत ! लक्ष्मी जी के साथ आप मुझ पर कृपा करें।'

पुरुषोत्तम मास का व्रत दारिद्रय, पुत्रशोक और वैधव्य का नाशक है। इसके व्रत से ब्रह्महत्या आदि सब पाप नष्ट हो जाते हैं।

विधिवत् सेवते यस्तु पुरुषोत्तममादरात्।

फुलं स्वकीयमुदधृत्य मामेवैष्यत्यसंशयम्।।

प्रति तीसरे वर्ष में पुरुषोत्तम मास के आगमन पर जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति के साथ व्रत, उपवास, पूजा आदि शुभकर्म करता है, वह निःसन्देह अपने समस्त परिवार के साथ मेरे लोक में पहुँचकर मेरा सान्निध्य प्राप्त करता है।''

इस महीने में केवल ईश्वर के उद्देश्य से जो जप, सत्संग व सत्कथा – श्रवण, हरिकीर्तन, व्रत, उपवास, स्नान, दान या पूजनादि किये जाते हैं, उनका अक्षय फल होता है और व्रती के सम्पूर्ण अनिष्ट हो जाते हैं। निष्काम भाव से किये जाने वाले अनुष्ठानों के लिए यह अत्यंत श्रेष्ठ समय है। 'देवी भागवत' के अनुसार यदि दान आदि का सामर्थ्य न हो तो संतों-महापुरुषों की सेवा सर्वोत्तम है, इससे तीर्थस्नानादि के समान फल प्राप्त होता है।

इस मास में प्रातःस्नान, दान, तप नियम, धर्म, पुण्यकर्म, व्रत-उपासना तथा निःस्वार्थ नाम जप – गुरुमंत्र का जप अधिक महत्त्व है।

इस महीने में दीपकों का दान करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। दुःख – शोकों का नाश होता है। वंशदीप बढ़ता है, ऊँचा सान्निध्य मिलता है, आयु बढ़ती है। इस मास में आँवले और तिल का उबटन शरीर पर मलकर स्नान करना और आँवले के वृक्ष के नीचे भोजन करना यह भगवान श्री पुरुषोत्तम को अतिशय प्रिय है, साथ ही स्वास्थ्यप्रद और प्रसन्नताप्रद भी है। यह व्रत करने वाले लोग बहुत पुण्यवान हो जाते है।

अधिक मास में वर्जित

इस मास में सभी सकाम कर्म एवं व्रत वर्जित हैं। जैसे – कुएँ, बावली, तालाब और बाग आदि का आरम्भ तथा प्रतिष्ठा, नवविवाहिता वधू का प्रवेश, देवताओं का स्थापन (देवप्रतिष्ठा), यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, नामकर्म, मकान बनाना, नये वस्त्र एवं अलंकार पहनना आदि।

अधिक मास में करने योग्य

प्राणघातक रोग आदि की निवृत्ति के लिए रूद्रजप आदि अनुष्ठान, दान व जप-कीर्तन आदि, पुत्रजन्म के कृत्य, पितृमरण के श्राद्धादि तथा गर्भाधान, पुंसवन जैसे संस्कार किये जा सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 13, अंक 208

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Monday, April 19, 2010

ज्ञान

कई रात्रियाँ तुमने सो-सोकर गुजार दीं और दिन में स्वाद ले लेकर तुम समाप्त होने को जा रहे हो। शरीर को स्वाद दिलाते-दिलाते तुम्हारी यह उम्र, यह शरीर बुढ़ापे की खाई में गिरने को जा रहा है। शरीर को सुलाते-सुलाते तुम्हारी वृद्धावस्था आ रही है। अंत में तो.... तुम लम्बे पैर करके सो जाओगे। जगाने वाले चिल्लायेंगे फिर भी तुम नहीं सुन पाओगे। डॉक्टर और हकीम तुम्हें छुड़ाना चाहेंगे रोग और मौत से, लेकिन नहीं छुड़ा पायेंगे। ऐसा दिन न चाहने पर भी आयेगा। जब तुम्हें स्मशान में लकड़ियों पर सोना पड़ेगा और अग्नि शरीर को स्वाहा कर देगी। एक दिन तो कब्र में सड़ने गलने को यह शरीर गाड़ना ही है। शरीर कब्र में जाए उसके पहले ही इसके अहंकार को कब्र में भेज दो..... शरीर चिता में जल जाये इसके पहले ही इसे ज्ञान की अग्नि में पकने दो।

Sunday, April 18, 2010

Kis tarah ladatee rahi ho, Pyaas se parchhaiyon se, Neend se , angadaiyon se, Maut se aur zindagi se, Teej se ,tanahaiyon se. kab tak ladte rahoge , jiwan me bhar lo ujale ,kar do roshan apni rahe , prabhu prem se Guru Giyan se
जो मृत्यु के बाद भी तुम्हारे साथ रहेगा उस आत्मा का ज्ञान कर लो…जीवन लाचार मोहताज हो जाये उसके पहले जीवन मे परमात्म सुख की पूंजी इकठ्ठी कर लो…।lकर सत्संग अभी से प्यारे नही तो फिर पछताना हैखिला पिला के देह बढाई वो भी अग्नि मे जलाना है…कर सत्संग अभी से प्यारे नही तो फिर पछताना है॥
प्रेममें मगन होकर भगवान् का भजन लगनसे करे और भगवान् के आगे करुणाभावसे रोता रहे-’हे नाथ! हे हरि! हे गोविन्द! हे वासुदेव! हे नारायण! मुझे तो केवल आपका ही सहारा है,मेरा आपके बिना और कोई आधार नहीं है।प्रभु! मेरेमें न ज्ञान है,न भक्ति है,न वैराग्य है,और न प्रेम ही है।मेरेमें कुछ भी तो नहीं है!मैं तो केवल आपकी शरण हूँ,वह भी केवल वचनमात्रसे!आप ही दया कर


 करके मुझे सब प्रकारसे अपनी शरणमें लें।

हमको तो नाथ!दयाकर अपना वह प्रेम दो जिससे अश्रु-पूर्ण-लोचन और गद्गदकण्ठ होकर निरन्तर तुम्हारा नाम-गुणगान करते रहें;वह शक्ति दो,जिससे जन्म-जन्मान्तरमें कभी तुम्हारे चरणकमलोंकी विस्मृति एक क्षणके लिये स्वप्नमें भी न हो,तुम्हारा नाम लेते हुए आन्नदसे मरें और तुम्हारी इच्छासे जिस योनिमें जन्में तुम्हारी ही छ्त्र छायामें रहें।

तत्वज्ञान

साधनकी ऊँची अवस्थामें ‘मेरेको तत्वज्ञान हो जाय, मैं मुक्त हो जाऊँ’—यह इच्छा भी बाधक होती है । जबतक अंतःकरणमें असत् की सत्ता दृढ़ रहती है, तबतक तो जिज्ञासा सहायक होती है, पर असत् की सत्ता शिथिल होनेपर जिज्ञासा भी तत्वज्ञानमें बाधक होती है । कारण कि जैसे प्यास जलसे दूरी सिद्ध करती है, ऐसे ही जिज्ञासा तत्वसे दूरी सिद्ध करती है, जब कि तत्व वास्तवमें दूर नहीं है, प्रत्युत नित्यप्राप्त है । दूसरी बात, तत्वज्ञानकी इच्छासे व्यक्तित्व (अहम्) दृढ़ होता है, जो तत्वज्ञानमें बाधक है । वास्तवमें तत्वज्ञान, मुक्ति स्वतःसिद्ध है । तत्वज्ञानकी इच्छा करके हम अज्ञानको सत्ता देते है, अपनेमें अज्ञानकी मान्यता करते है, जब कि वास्तवमें अज्ञानकी सत्ता है नहीं । इसलिए तत्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता —‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४/३५); क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं । मिटता वही है, जो नहीं होता और मिलता वही है, जो होता है

Saturday, April 17, 2010

ईश्वरीय विधान

समझ लें कि हमने ईश्वरीय विधान का कोई-न-कोई अनादर किया है। ईश्वर अपमान कराके हमें समतावान बनाना चाहते हैं और हम अपमान पसन्द नहीं करते हैं। यह ईश्वर का अनादर है। ईश्वर हमें मित्र देकर उत्साहित करना चाहते हैं लेकिन हम मित्रों की ममता में फँसते हैं इसलिए दुःख होता है। ईश्वर हमें धन देकर सत्कर्म कराना चाहते हैं लेकिन हम धन को पकड़ रखना चाहते हैं इसलिए 'टेन्शन' (तनाव) बढ़ जाता है। ईश्वर हमें कुटुम्ब-परिवार देकर इस संसार की भूलभुलैया से जागृत होने को कह रहे हैं लेकिन हम खिलौनों से खेलने लग जाते हैं तो संसार की ओर से थप्पड़ें पड़ती हैं।




ईश्वरीय विधान हमारी तरक्की.... तरक्की.... और तरक्की ही चाहता है। जब थप्पड़ पड़ती है तब भी हेतु तरक्की का है। जब अनुकूलता मिलती है तब ईश्वरीय विधान का हेतु हमारी तरक्की का है। जैसे माँ डाँटती है तो भी बच्चे के हित के लिए और प्यार-पुचकार करती है तो भी उसमें बच्चे का हित ही निहित होता है। ईश्वरीय विधान के अनुसार हमारी गलती होती है तो माँ डाँटती है, गलती न हो इसलिए डाँटती है।



जैसे माँ का, बाप का व्यवहार बच्चे के प्रति होता है ऐसे ही ईश्वरीय विधान का व्यवहार हम लोगों के प्रति होता है। यहाँ के विधान बदल जाते हैं, नगरपालिकाओं के विधान बदल जाते हैं, सरकार के कानून बदल जाते हैं लेकिन ईश्वरीय विधान सब काल के लिए, सब लोगों के लिए एक समान रहता है। उसमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, अपना पराया नहीं है, साधु-असाधु नहीं है। ईश्वरीय विधान साधु के लिए भी है और असाधु के लिए भी है। साधु भी अगर ईश्वरीय विधान साधु के लिए भी है और असाधु के लिए भी है। साधु अगर ईश्वरीय विधान के अनुकूल चलते हैं तो उनका चित्त प्रसन्न होता है, उदात्त बनता है। अपने पूर्वाग्रह या दुराग्रह छोड़कर तन-मन-वचन से प्राणिमात्र का कल्याण चाहते हैं तो ईश्वरीय विधान उनके अन्तःकरण में दिव्यता भर देता है। वे स्वार्थकेन्द्रित हो जाते हैं तो उनका अन्तःकरण संकुचित कर देता है।

Wednesday, April 14, 2010

'बाल संस्कार केन्द्र' स्पेशल

 जहाजों से जो टकराये, उसे तूफान कहते हैं।

तूफानों से जो टकराये, उसे इन्सान कहते हैं।।1।।

हमें रोक सके, ये ज़माने में दम नहीं।

हमसे है ज़माना, ज़माने से हम नहीं।।2।।

जिन्दगी के बोझ को, हँसकर उठाना चाहिए।

राह की दुश्वारियों पे, मुस्कुराना चाहिए।।3।।

बाधाएँ कब रोक सकी हैं, आगे बढ़ने वालों को।

विपदाएँ कब रोक सकी हैं, पथ पे बढ़ने वालों को।।4।।

मैं छुई मुई का पौधा नहीं, जो छूने से मुरझा जाऊँ।

मैं वो माई का लाल नहीं, जो हौवा से डर जाऊँ।।5।।

जो बीत गयी सो बीत गयी, तकदीर का शिकवा कौन करे।

जो तीर कमान से निकल गयी, उस तीर का पीछा कौन करे।।6।।

अपने दुःख में रोने वाले, मुस्कुराना सीख ले।

दूसरों के दुःख दर्द में आँसू बहाना सीख ले।।7।।

जो खिलाने में मज़ा, वो आप खाने में नहीं।

जिन्दगी में तू किसी के, काम आना सीख ले।।8।।

खून पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा।

यह नाव तो हिलती जाएगी, तू हँसता जा या रोता जा।।9।।

खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तकदीर से पहले।

खुदा बन्दे से यह पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।।10।

शब्द संभाले बोलिए

शब्द संभाले बोलिए ......


शब्द संभाले बोलिए ......

शब्द के हाथ न पाव रे ........

१। एक शब्द औषध करे..., एक शब्द करे घाव रे ......

२। मुख से निकला शब्द तो, वापिस फिर न आएगा .....

३। दिल किसी का तोरकर तू भी चेन न पायेगा .....

४। इसलिए कहते गुरूजी ,शब्द पे रखना ध्यान रे...

५। सच करवा भाता न किसीको ,...सच मीठा कर बोलिए...

६। गुरु की अमृत वाणी सुनकर, मुख से अमृत घोलिये...

७। इसलिए कहते गुरूजी, मीठा शब्द महान रे......

८। मुख की मौन देवता बनाती, मन की मौन भगवान रे.......

९। मौन से ही तुम अपने , शब्दों मैं भर लो जान रे ....

१०। इसलिए कहते गुरूजी,मौन ही भगवान रे...

११। ज्ञानी तो हर वक्त ही, मौन मैं ही है रहता ....

१२। मुख से कुछ न कहते हुए भी, सब कुछ ही है वो कहता ....

१३। इसलिए कहते गुरूजी, मौन ही वरदान रे.......

१४। एक शब्द औषध करे, एक शब्द करे घाव रे.....

वासुदेव: सर्वम्।’

जैसे, समुद्रमें तरंगें उठती हैं, बुदबुद पैदा होते हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर यह सब-का-सब जल ही है । इस जलसे भाप निकलती है । वह भाप बादल बन जाती है । बादलोंसे फिर वर्षा होती है । कभी ओले बरसते हैं । वर्षाका जल बह करके सरोवर, नदी-नालेमें चला जाता है । नदी समुद्रमें मिल जाती है । इस प्रकार एक ही जल कभी समुद्र रूपसे, कभी भाप रूपसे, कभी बूँद रूपसे, कभी ओला रूपसे, कभी नदी रूपसे और कभी आकाशमें परमाणु रूपसे हो जाता है । समुद्र, भाप, बादल, वर्षा, बर्फ, नदी आदिमें तो फर्क दीखता है, पर जल तत्त्वमें कोई फर्क नहीं है । केवल जल-तत्त्वको ही देखें तो उसमें न समुद्र है, न भाप है, न बूँदें हैं, न ओले हैं, न नदी है, न तालाब है । ये सब जलकी अलग-अलग उपाधियाँ हैं । तत्त्वसे एक जलके सिवाय कुछ भी नहीं है । इसी तरह सोनेके अनेक गहने होते हैं । उनका अलग-अलग उपयोग, माप-तौल, मूल्य, आकार आदि होते हैं । परन्तु तत्त्वसे देखें तो सब सोना-ही-सोना है । पहले भी सोना था, अन्तमें भी सोना रहेगा और बीचमें अनेक रूपसे दीखने पर भी सोना ही है। मिट्टीसे घड़ा, हाँडी, ढक्कन, सकोरा आदि कोई चीजें बनती हैं । उन चीजोंका अलग-अलग नाम, रूप, उपयोग आदि होता है । परन्तु तत्त्वसे देखें तो उनमें एक मिट्टीके सिवाय कुछ भी नहीं है । पहले भी मिट्टी थी, अन्तमें भी मिट्टी रहेगी और बीचमें भी अनेक रूपसे दीखने पर भी मिट्टी ही है । इसी प्रकार पहले भी परमात्मा थे, बादमें भी परमात्मा रहेंगे और बीचमें संसार रूपसे अनेक दीखने पर भी तत्त्व से परमात्मा ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्।’

Sunday, April 11, 2010

नन्ही कली

एक नन्ही दुलारी कली

जन्म लेकर कितनी खुशियाँ लाए

कहते है साथ उसके लक्ष्मी आए

वो अपने आप में ही है हर देवी का रूप

उसे पाकर ना जाने मैने कितने आशीर्वाद पाए

तमन्ना रखती हूँ ,वो फुलो सी खिले

इस से पहले की वो अपने भंवर से मिले

उसके संग मैं अनुभव करना चाहू

मेरा बचपन,वो अनमोल क्षण

जब कभी मेरी आँखें लगे भरी भरी

मेरी ही मा बन,मुझ पे ममता लूटाती सारी

वो ही मुस्कान और हिम्मत मेरी

एक नन्ही दुलारी कली

ईश्वर से मुझे तोहफे में मिली.

Saturday, April 10, 2010

।।इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।


एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।- ऋग्वेद (1-164-43)

भावार्थ : जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।
'हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्‍य परम प्रकाशरूप उस दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।'-श्रीमद्‍भगवद्‍गीता-8
'हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्‍य परम प्रकाशरूप उस दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।'-श्रीमद्‍भगवद्‍गीता-8
एक ही रूप


'जो सर्वप्रथम ईश्वर को इहलोक और परलोक में अलग-अलग रूपों में देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात उसे बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में फँसना पड़ता है।'-कठोपनिषद-।।10।। ओमकार जिनका स्वरूप है, ओम जिसका नाम है उस ब्रह्म को ही ईश्‍वर, परमेश्वर, परमात्मा, प्रभु, सच्चिदानंद, विश्‍वात्मा, सर्व‍शक्तिमान, सर्वव्यापक, भर्ता, ग्रसिष्णु, प्रभविष्‍णु और शिव आदि नामों से जाना जाता है, वही इंद्र में, ब्रह्मा में, विष्‍णु में और रुद्रों में है। वहीं सर्वप्रथम प्रार्थनीय और जप योग्य है अन्य कोई नहीं।
।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।


स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद 10-8-1

भावार्थ : जो भूत, भवि‍ष्‍य और सबमें व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।

Tuesday, April 6, 2010

sadguru tumhare gyan ne jina sikha diya,

hamko tumhare pyar ne insa banadiya.



rahte hai jalve aapke nazro mai hargadhi,

masti ka jam aapne aisa piladiya.



sadguru tumhare gyan ne jina sikha diya,

hamko tumhare pyar ne insa banadiya.



bhula huvatha rasta bhatka huvatha mai,

rehma teri ne mujko kabil bana diya.



sadguru tumhare gyan ne jina sikha diya,

hamko tumhare pyar ne insa banadiya.jisne kiseko aajtak sajda nahi kiya,


vo sarbhi maine aapke dar pe jukadiya

jisdin se mujko aapne apna banaliya

dono jaha ko das ne sab se bhula diya

sadguru tumhare gyan ne jina sikha diya hamko tumhare pyar ne insa banadiya

गुरू

गुरू की मूर्ति ध्यान का मूल है। गुरू के चरणकमल पूजा का मूल है। गुरू का वचन मोक्ष का मूल है।




गुरू तीर्थस्थान हैं। गुरू अग्नि हैं। गुरू सूर्य हैं। गुरू समस्त जगत हैं। समस्त विश्व के तीर्थधाम गुरू के चरणकमलों में बस रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, पार्वती, इन्द्र आदि सब देव और सब पवित्र नदियाँ शाश्वत काल से गुरू की देह में स्थित हैं। केवल शिव ही गुरू हैं।



गुरू और इष्टदेव में कोई भेद नहीं है। जो साधना एवं योग के विभिन्न प्रकार सिखाते है वे शिक्षागुरू हैं। सबमें सर्वोच्च गुरू वे हैं जिनसे इष्टदेव का मंत्र श्रवण किया जाता है और सीखा जाता है। उनके द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।



अगर गुरू प्रसन्न हों तो भगवान प्रसन्न होते हैं। गुरू नाराज हों तो भगवान नाराज होते हैं। गुरू इष्टदेवता के पितामह हैं।



जो मन, वचन, कर्म से पवित्र हैं, इन्द्रियों पर जिनका संयम है, जिनको शास्त्रों का ज्ञान है, जो सत्यव्रती एवं प्रशांत हैं, जिनको ईश्वर-साक्षात्कार हुआ है वे गुरू हैं।

Sunday, April 4, 2010

जहाँ दिव्यता ही जीवन है सागर का गांभीर्य जहाँ

जो कर्मो की फुलवारी है नत-मस्तक है विश्व वहाँ ॥१॥

विपदाएँ कितनी आयी है कितने ही आघात सहे

किन्तु अचल जो खड़ा हुआ है वंदन शत-शत नरवर हे ॥२॥

जिसके मन में ध्येय देव का निशिदिन चिंतन वंदन है

देशभक्ति का प्रकश हँसता जग को पंथ दिखाता है ॥३॥

जिसका स्मित चैतन्य पुरुष है शब्द-शब्द नवदीप प्रखर

जिसकी कृति से भविष्य उज्ज्वल उसको जग का वंदन है ॥४

PUJYA GURUDEV AVATARAN DIN

                                                                     Narayan ke roop me, krishna kaho ya Ram.
                                                                     naye roop me aaye hain, Sadguru Asharam.

                                                                          Hue Avatarit Guru Ji Hamare



ॐ : हुए अवतरित गुरूजी हमारे : ॐ हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे

गुरूजी हमारे , भक्तों के दुलारे हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे


देखो मेरे गुरुवर की शान निराली , सत्संग की भर -भर देते प्याली

किया भक्तों का उद्धार गुरुजी हमारे , हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे ...


कैसा मंगल दिवस है आया , भक्तों ने बड़ी धूम से मनाया

कीर्तन की बहती बयार गुरुजी हमारे , हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे ...


जन्म से पहले सौदागर आया , सुंदर सा एक झूला भी लाया

हुआ धरती पर अवतार गुरुजी हमारे , हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे ...


ज्ञान गगन के सूर्य हैं बापू , शील शांत माधुर्य हैं बापू

सोलह कला के अवतार गुरुजी हमारे , हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे ...


कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च येन।

अर्थात जिस कुल में वे महापुरुष अवतरित होते है वह कुल पवित्र हो जाता है, जिस माता के गर्भ से उनका जन्म होता है वह भाग्यवती जननी कृतार्थ हो जाती है और जहाँ उनकी चरणरज पड़ती है वह वसुन्धरा भी पुण्यवती हो जाती है।

साधारण जीव का जन्म कर्मबन्धन से, वासना के वेग से होता है। भगवान या संत-महापुरुषों का जन्म ऐसे नहीं होता। वास्तव में तो उनका मनुष्य रूप में धरती पर प्रकट होना, जन्म लेना नहीं अपितु अवतरित होना कहलाता है।

भगवान या संत महापुरुष तो लोकमांगल्य के लिए, किसी विशेष उद्देश्य को पूरा करने के लिए अथवा लाखों-लाखों लोगों द्वारा करूण पुकार लगायी जाने पर अवतरित होते है अर्थात् हमारी सदभावनाओं को, हमारे ध्येय को, हमारी आवश्यकताओं को साकार रूप देने के लिए जो प्रकट हो जायें वे अवतार या भगवत्प्राप्त महापुरुष कहलाते हैं।

शरीर का जन्म होना और उसका जन्मदिन मनाना कोई बड़ी बात नहीं है बल्कि उसके जन्म का उद्देश्य पूर्ण कर लेना यह बहुत बड़ी बात है। जिन्होंने इस उद्देश्य को पूर्ण कर लिया है, ऐसे परब्रह्म परमात्मा में जगे हुए महापुरुषों का अवतरण-दिवस हमें भी जीवन के इस ऊँचे लक्ष्य की ओर प्रेरित करता है, इसलिए वह उत्सव मनाने का एक सुन्दर अवसर है और सबको मनाना चाहिए।

लोग बोलते हैं- "बापू जी ! आपको बधाई हो।"

"किस बात की बधाई ?"

"आपका जन्म दिवस है।"

यह सब हम नहीं चाहते क्योंकि हम जानते हैं कि जन्म तो शरीर का हुआ है, हमारा जन्म तो कभी होता ही नहीं।
जन्म दिवस पर हमें आपकी कोई भी चीज-वस्तु, रूपया-पैसा या बधाई नहीं चाहिए। हम तो केवल आपका मंगल चाहते हैं, कल्याण चाहते हैं। आपका मंगल किसमें है ?
आपको इस बात का अनुभव हो जाय कि संसार क्षणभंगुर है, परिस्थितियाँ आती जाती रहती हैं, शरीर जन्मते-मरते रहते हैं परंतु आत्मा तो अनादिकाल से अजर अमर है।

जन्मदिवस की बधाई हम नहीं लेते... फिर भी बधाई ले लेते हैं क्योंकि इसके निमित्त भी आप सत्संग में आ जाते हैं और स्वयं को शरीर से अलग चैतन्य, अमर आत्मा मानने का, सुनने का अवसर आपको मिल जाता है। इस बात की बधाई मैं आपको देता भी हूँ और लेता भी हूँ.....

वास्तव में संतों का अवतरण-दिवस मनाने का अर्थ पटाखे फोड़कर, मिठाई बाँटकर अपनी खुशी प्रकट कर देना मात्र नहीं है, अपितु उनके जीवन से प्रेरणा लेकर व उनके दिव्य गुणों को स्वीकार कर अपने जीवन में भी संतत्त्व प्रकट करना ही सच्चे अर्थों में उनका अवतरण-दिवस मनाना है।

Friday, April 2, 2010

परमात्मा

परमदेव परमात्मा कहीं आकाश में, किसी जंगल, गुफा या मंदिर-मस्जिद-चर्च में नहीं बैठा है। वह चैतन्यदेव आपके हृदय में ही स्थित है। वह कहीं को नहीं गया है कि उसे खोजने जाना पड़े। केवल उसको जान लेना है। परमात्मा को जानने के लिए किसी भी अनुकूलता की आस मत करो। संसारी तुच्छ विषयों की माँग मत करो। विषयों की माँग कोई भी हो, तुम्हें दीन हीन बना देगी। विषयों की दीनतावालों को भगवान नहीं मिलते। इसलिए भगवान की पूजा करनी हो तो भगवान बन कर करो। देवो भूत्वा यजेद् देवम्। जैसे भगवान निर्वासनिक हैं, निर्भय हैं, आनंदस्वरूप है, ऐसे तुम भी निर्वासनिक और निर्भय होकर आनंद, शांति तथा पूर्ण आत्मबल के साथ उनकी उपासना करो कि 'मैं जैसा-तैसा भी हूँ भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं और वे सर्वज्ञ हैं, सर्वसमर्थ हैं तथा दयालु भी हैं तो मुझे भय किस बात का !' ऐसा करके निश्चिंत नारायण में विश्रांति पाते जाओ।




बल ही जीवन है, निर्बलता ही मौत है। शरीर का स्वास्थ्यबल यह है कि बीमारी जल्दी न लगे। मन का स्वास्थ्य बल यह है कि विकार हमें जल्दी न गिरायें। बुद्धि का स्वास्थ्य बल है कि इस जगत के माया जाल को, सपने को हम सच्चा मानकर आत्मा का अनादर न करें। 'आत्मा सच्चा है, 'मैं' जहाँ से स्फुरित होता है वह चैतन्य सत्य है। भय, चिंता, दुःख, शोक ये सब मिथ्या हैं, जाने वाले हैं लेकिन सत्-चित्-आनंदस्वरूप आत्मा 'मैं' सत्य हूँ सदा रहने वाला हूँ' – इस तरह अपने 'मैं' स्वभाव की उपासना करो। श्वासोच्छवास की गिनती करो और यह पक्का करो कि 'मैं चैतन्य आत्मा हूँ।' इससे आपका आत्मबल बढ़ेगा, एक एक करके सारी मुसीबतें दूर होती जायेंगी।

Thursday, April 1, 2010

kitene hi logo ko sukh dukh aata hai par voh aapko farak nahi padata kyoki aap usme jude huwe nahi ho , jab aap judte ho aur use apna manate ho to voh bat aapko sukh aur dukh deti hai par jab tak aap unse nirlep aur nirvikar ho tab voh bat aapko sukh aur dukh nahi deti , karta banana hi dukh ka karna hai aur darshta banana hi sukh ka karan hai bas darshta bane raho aur param ananad aur param sukh ke marg ki aur chal pado jiwan jine ki chah bad jayegi param aanad panae ki rah mil jayegi

सद् गुरू बिन

बचपन खेलकूद में और जवानी अभिमान में खोयी…


बस खेल में बिताया

बचपन वो प्यारा प्यारा

यौवन के मद में खोकर

सारा समय गवाया

जिस तन को तू सवारा

सब देखते रहेंगे

अग्नि में वो जलेगा

ना रूप साथ देगा

ना रंग साथ देगा

सद् गुरू बिन जहां में

कोई ना साथ देगा