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Monday, December 28, 2009

पूज्य संतप्रवर आसारामजी बापू

राष्ट्र में अध्यात्म-संस्कृति के प्रेरणास्रोत, परम श्रद्धेय


विश्वविभूति पूज्य संतप्रवर आसारामजी बापू राष्ट्र की ही नहीं विश्व की

अदभुत धरोहर हैं। सतत आध्यात्मिकता का अलख जगाने वाले इन महामानव पर भी

बेतुके आरोप लगाकर इनकी छवि को षड्यंत्र के तहत बदनाम करने की घिनौनी

साजिश की गयी। हर युग में दैवी व आसुरी शक्तियाँ रही हैं। भगवान श्रीराम... See More

व श्रीकृष्ण जैसे अवतारों पर भी लांछन लगे लेकिन सोना तो सदैव खरा ही

रहता है। वर्तमान समाज में ऐसे अनेक स्वार्थी तत्त्व हैं जो दूसरों का

मान – सम्मान नहीं देख सकते। श्रद्धेय बापूजी के द्वारा अध्यात्म

संस्कृति का जो संरक्षण और संवर्द्धन हो रहा है वह अद्वितिय है। छोटे-

छोटे बच्चों को गुरुकुल परम्परा द्वारा श्रेष्ठ संस्कार देना उनके भविष्य

का निर्माण करना है। आज सम्पूर्ण भारत में बापूजी का आदर है और बड़े

पैमाने पर अनेक धार्मिक कार्यक्रम व सेवाकार्य चल रहे हैं। लाखों की

संख्या में श्रद्धालु जनता उनके प्रवचनों में भाग लेती है और उनकी शिष्य

परम्परा में है। ऐसे संत पर बेतुके, निरर्थक आरोप मढ़कर घिनौनी साजिश रची

जा रही है। आज हिन्दू समाज एवं संबंधित धर्माचार्यों को बदनाम करने का

विश्वव्यापी षड्यंत्र चल रहा है, यह घिनौनी साजिश है। इसलिए हिन्दू समाज

का संगठन नितांत आवश्यक है।



श्रद्धेय बापू जी की कीर्ति, यश पताका निरंतर विश्व व आध्यात्मिक समाज

का मार्गदर्शन कर रही है और वे आगे भी भारत में आध्यात्मिक ऊर्जा के

प्रेरणा स्रोत बनकर लोक कल्याणकारी कार्यों का पथ-प्रदर्शन करेंगे।



श्री भानुमित्र शर्मा



सम्पादक, सुविख्यात पत्रिका 'गीता संदेश'।



('श्री गीता आश्रम इण्टरनेशनल चैरिटेबल ट्रस्ट' द्वारा प्रकाशित)

Sunday, December 27, 2009

पुत्रदा/वैकुण्ठ एकादशी

पुत्रदा/वैकुण्ठ एकादशी


युधिष्ठिर बोले: श्रीकृष्ण ! कृपा करके पौष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का माहात्म्य बतलाइये । उसका नाम क्या है? उसे करने की विधि क्या है ? उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ?

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: राजन्! पौष मास के शुक्लपक्ष की जो एकादशी है, उसका नाम ‘पुत्रदा’ है ।

‘पुत्रदा एकादशी’ को नाम-मंत्रों का उच्चारण करके फलों के द्वारा श्रीहरि का पूजन करे । नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा नींबू, जमीरा नींबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषत: आम के फलों से देवदेवेश्वर श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए । इसी प्रकार धूप दीप से भी भगवान की अर्चना करे ।

‘पुत्रदा एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए । जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होति है, वह हजारों वर्ष तक तपस्या करने से भी नहीं मिलता । यह सब पापों को हरनेवाली उत्तम तिथि है ।

चराचर जगतसहित समस्त त्रिलोकी में इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है । समस्त कामनाओं तथा सिद्धियों के दाता भगवान नारायण इस तिथि के अधिदेवता हैं ।

पूर्वकाल की बात है, भद्रावतीपुरी में राजा सुकेतुमान राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम चम्पा था । राजा को बहुत समय तक कोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ । इसलिए दोनों पति पत्नी सदा चिन्ता और शोक में डूबे रहते थे । राजा के पितर उनके दिये हुए जल को शोकोच्छ्वास से गरम करके पीते थे । ‘राजा के बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हम लोगों का तर्पण करेगा …’ यह सोच सोचकर पितर दु:खी रहते थे ।

एक दिन राजा घोड़े पर सवार हो गहन वन में चले गये । पुरोहित आदि किसीको भी इस बात का पता न था । मृग और पक्षियों से सेवित उस सघन कानन में राजा भ्रमण करने लगे । मार्ग में कहीं सियार की बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओं की । जहाँ तहाँ भालू और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे । इस प्रकार घूम घूमकर राजा वन की शोभा देख रहे थे, इतने में दोपहर हो गयी । राजा को भूख और प्यास सताने लगी । वे जल की खोज में इधर उधर भटकने लगे । किसी पुण्य के प्रभाव से उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियों के बहुत से आश्रम थे । शोभाशाली नरेश ने उन आश्रमों की ओर देखा । उस समय शुभ की सूचना देनेवाले शकुन होने लगे । राजा का दाहिना नेत्र और दाहिना हाथ फड़कने लगा, जो उत्तम फल की सूचना दे रहा था । सरोवर के तट पर बहुत से मुनि वेदपाठ कर रहे थे । उन्हें देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ । वे घोड़े से उतरकर मुनियों के सामने खड़े हो गये और पृथक् पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे । वे मुनि उत्तम व्रत का पालन करनेवाले थे । जब राजा ने हाथ जोड़कर बारंबार दण्डवत् किया, तब मुनि बोले : ‘राजन् ! हम लोग तुम पर प्रसन्न हैं।’
राजा बोले: आप लोग कौन हैं ? आपके नाम क्या हैं तथा आप लोग किसलिए यहाँ एकत्रित हुए हैं? कृपया यह सब बताइये

मुनि बोले: राजन् ! हम लोग विश्वेदेव हैं । यहाँ स्नान के लिए आये हैं । माघ मास निकट आया है । आज से पाँचवें दिन माघ का स्नान आरम्भ हो जायेगा । आज ही ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है,जो व्रत करनेवाले मनुष्यों को पुत्र देती है ।

राजा ने कहा: विश्वेदेवगण ! यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये।
मुनि बोले: राजन्! आज ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रत का पालन करो । महाराज! भगवान केशव के प्रसाद से तुम्हें पुत्र अवश्य प्राप्त होगा ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन मुनियों के कहने से राजा ने उक्त उत्तम व्रत का पालन किया । महर्षियों के उपदेश के अनुसार विधिपूर्वक ‘पुत्रदा एकादशी’ का अनुष्ठान किया । फिर द्वादशी को पारण करके मुनियों के चरणों में बारंबार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये । तदनन्तर रानी ने गर्भधारण किया । प्रसवकाल आने पर पुण्यकर्मा राजा को तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणों से पिता को संतुष्ट कर दिया । वह प्रजा का पालक हुआ ।

इसलिए राजन्! ‘पुत्रदा’ का उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिए । मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है । जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर ‘पुत्रदा एकादशी’ का व्रत करते हैं, वे इस लोक में पुत्र पाकर मृत्यु के पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है ।


PLEASE VISIT THIS LINK TO LISTEN KATHA

http://www.ashram.org/MultiMedia/Videos/VideoPlayer/TabId/404/VideoId/1494/Putrada-Ekadashi-28-Dec-2009--Monday.aspx

Monday, December 14, 2009

CHUT JAYEGA YAH TAN CHUT JAYEGA YAH DHAN

this wealth is mine, this property is mine. As such it is neither mine, nor yours. It is a play, it is a show. One day you will have to leave everything and go away. There will be no remembrance at all of these things. Not in the least bit. In previous life, what was our house like, what was our family, do you remember it now? In the world, not a single thing is personal "vyaktigat". Just like a dharmashaala is for everyone. Therefore the houses stay right there, the land stays right there, but the persons keep changing.

Mata Pita

Maatrudevo bhava, Pitrudevo bhava" In other words, accept your mother and father as a true manifestation of Ishvar and then fulfill their requests. Serve them. This is a deep teaching from Rishi and Munis with great insights. It is only in following through with their words that we will be benefited. In other words, the son should be grateful and acknowledge his parents from whom he has received this body

Saturday, December 12, 2009

safala ekadashi

सफला एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : स्वामिन् ! पौष मास के कृष्णपक्ष (गुज., महा. के लिए मार्गशीर्ष) में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता की पूजा की जाती है ? यह बताइये ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजेन्द्र ! बड़ी बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है । पौष मास के कृष्णपक्ष में ‘सफला’ नाम की एकादशी होती है । उस दिन विधिपूर्वक भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए । जैसे नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरुड़ तथा देवताओं में श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है ।
राजन् ! ‘सफला एकादशी’ को नाम मंत्रों का उच्चारण करके नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा तथा जमीरा नींबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषत: आम के फलों और धूप दीप से श्रीहरि का पूजन करे । ‘सफला एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए । जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होती है, वह हजारों वर्ष तपस्या करने से भी नहीं मिलता ।

नृपश्रेष्ठ ! अब ‘सफला एकादशी’ की शुभकारिणी कथा सुनो । चम्पावती नाम से विख्यात एक पुरी है, जो कभी राजा माहिष्मत की राजधानी थी । राजर्षि माहिष्मत के पाँच पुत्र थे । उनमें जो ज्येष्ठ था, वह सदा पापकर्म में ही लगा रहता था । परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था । उसने पिता के धन को पापकर्म में ही खर्च किया । वह सदा दुराचारपरायण तथा वैष्णवों और देवताओं की निन्दा किया करता था । अपने पुत्र को ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मत ने राजकुमारों में उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाईयों ने मिलकर उसे राज्य से बाहर निकाल दिया । लुम्भक गहन वन में चला गया । वहीं रहकर उसने प्राय: समूचे नगर का धन लूट लिया । एक दिन जब वह रात में चोरी करने के लिए नगर में आया तो सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया । किन्तु जब उसने अपने को राजा माहिष्मत का पुत्र बतलाया तो सिपाहियों ने उसे छोड़ दिया । फिर वह वन में लौट आया और मांस तथा वृक्षों के फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा । उस दुष्ट का विश्राम स्थान पीपल वृक्ष बहुत वर्षों पुराना था । उस वन में वह वृक्ष एक महान देवता माना जाता था । पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था ।

एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव से उसके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया । पौष मास में कृष्णपक्ष की दशमी के दिन पापिष्ठ लुम्भक ने वृक्षों के फल खाये और वस्त्रहीन होने के कारण रातभर जाड़े का कष्ट भोगा । उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही मिला । वह निष्प्राण सा हो रहा था । सूर्योदय होने पर भी उसको होश नहीं आया । ‘सफला एकादशी’ के दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा । दोपहर होने पर उसे चेतना प्राप्त हुई । फिर इधर उधर दृष्टि डालकर वह आसन से उठा और लँगड़े की भाँति लड़खड़ाता हुआ वन के भीतर गया । वह भूख से दुर्बल और पीड़ित हो रहा था । राजन् ! लुम्भक बहुत से फल लेकर जब तक विश्राम स्थल पर लौटा, तब तक सूर्यदेव अस्त हो गये । तब उसने उस पीपल वृक्ष की जड़ में बहुत से फल निवेदन करते हुए कहा: ‘इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों ।’ यों कहकर लुम्भक ने रातभर नींद नहीं ली । इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रत का पालन कर लिया । उस समय सहसा आकाशवाणी हुई: ‘राजकुमार ! तुम ‘सफला एकादशी’ के प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने वह वरदान स्वीकार किया । इसके बाद उसका रुप दिव्य हो गया । तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान विष्णु के भजन में लग गयी । दिव्य आभूषणों से सुशोभित होकर उसने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षों तक वह उसका संचालन करता रहा । उसको मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । जब वह बड़ा हुआ, तब लुम्भक ने तुरंत ही राज्य की ममता छोड़कर उसे पुत्र को सौंप दिया और वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के समीप चला गया, जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोक में नहीं पड़ता ।

राजन् ! इस प्रकार जो ‘सफला एकादशी’ का उत्तम व्रत करता है, वह इस लोक में सुख भोगकर मरने के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त होता है । संसार में वे मनुष्य धन्य हैं, जो ‘सफला एकादशी’ के व्रत में लगे रहते हैं, उन्हीं का जन्म सफल है । महाराज! इसकी महिमा को पढ़ने, सुनने तथा उसके अनुसार आचरण करने से मनुष्य राजसूय यज्ञ का फल पाता है ।

Monday, December 7, 2009

मेरे घर में चहकती रहीं बेटियाँ   राह पापा की तकती रहीं बेटियाँ

अब की तनख्वाह पे ये चीज लाना हमें  कहते-कहते झिझकती रहीं बेटियाँ

छोड़ माँ, बाप, बेटा, बहू चल दिए  बनके खुशबू महकती रहीं बेटियाँ

अम्मा, दादा के आँसू के अंगार पर  बनके बदली बरसती रहीं बेटियाँ

सज के दुल्हन नई जब जली हो कहीं   मन ही मन में दहकती रहीं बेटियाँ
प्यार की घनी छाँव हैं ये बेटियाँ भर देती जिंदगी के अभाव ये बेटियाँ

बापू की आन में   पति की शान में   चाचा, ताऊ और जेठ, देवर  के भार में

मन के गुबार को, सद्‍भावना के नीचे  दफना रही हैं ये बेटियाँ

कुल की लाज में  सपूतों के निर्माण में अपने अरमान को

मौन में  पी रही हैं ये बेटियाँ  कला की आड़ में सौंदर्य के गुमान में

रंगमंच हो या टीवी बेटी हो या बीवी  अखबार हो या पत्रिका

उघाड़ी जा रही हैं ये बेटियाँ  आग की आँच पर  चौपड़ की बिसात पर

सीता सावित्री के नाम पर  हर युग में दाँव पर लगी हैं ये बेटियाँ

तुम कुछ भी कहो  कुछ भी करो  हर युग में मिटती आई है बेटियाँ

घर को सँवारती  जग को सुधारती  कभी न हारती

नया जन्म फिर फिर  लेती हैं बेटियाँ 

नया जन्म फिर फिर  देती हैं बेटियाँ

Sunday, November 15, 2009

SOMAVATI AMAVASAYA



Pujya Bapuji has advised that doing japa and meditation (dhyan) on Somvati Amavasya is lakh times more beneficial as compared to doing the same on any other day. He further said that performing japa and meditation on Somvati Amavasya would afford the same high religious merits as doing them on the supremely holy nights of Diwali, Holi, Shivratri, Janmashtami or during an eclipse. (For checking out the tips given by Pujya Bapuji for Somvati Amavasya kindly view the Video of Bapuji on the top-tight corner of this page)

The Ashram।Org team is pleased to organize 24 hour non-stop Global Jap Yagna of "OM HRIM OM" Mantra and Maha Mritunjya Mantra Jap on the eve of Somvati Amavasya. Each participant can register for minimum of 30 mins and perform the jap in their respective location based on guidelines given below. Jap starts from 16th, Nov '09, 6.00 AM IST to 17th, Nov '09 7:00 AM IST.







Sankalp: Let us get together and participate in this Akhanda Japa for world peace and for safeguarding our Indian culture (Sanaatan Sanskriti

Somvathi Amavasya Tips

The pious tithi (date) of Somvati Amavasya falls on Somvati Amavasya (16th Nov'09), Pujya Bapuji has advised that observing the following tips on this day would be very beneficial for sadhaks:

Tip 1: For Attaining Prosperity and/or Relief from Financial troubles

If a devotee performs 108 circumambulations (parikrama) of the holy Tulsi (basil) plant on Somvati Amavasya (16th Nov'09), he will be relieved from financial problems and will attain increased success and prosperity in his job/service/business, etc. Pujya Bapuji advised that this tip is especially important for people who are doing a job (service) and nurture fears of their boss, anxiety of being laid off, etc. People, who have failed in their business earlier or have taken loan and would like to repay it, should also take benefit from this tip.

Pujya Shri further advised that we may also offer our respects to the Tulsi plant by lighting a diya (lamp) near it, one or two days prior to Somvati Amavasya.

Tip 2: For Rapid Spiritual Advancement

Pujya Bapuji said that doing japa and meditation (dhyan) on Somvati Amavasya is lakh times more beneficial as compared to doing the same on any other day. He further mentioned that performing japa and meditation on SomvatiAmavasya would afford the same high religious merits as doing them on the supremely holy nights of Diwali, Holi, Shivratri, Janmashtami or during an eclipse.

Pujya Bapuji has advised that for reaping rich spiritual benefits, a sadhak should try & practice the following on Somvati Amavasya:

i. Observe Maun (silence) or speak as little as possible

ii. Devote maximum time to japa & meditation (dhyan)

iii. If possible, do upvaas (fast) and stay only on milk.

iv. Sleep on the ground on Somvati Amavasya and on the night before as well.

v. On the night before Somvati Amavasya (15th Nov’09), the sadhak should make a firm resolve, “Tomorrow, I will observe maun (silence), study the holy scriptures & other Satsang books like Divya Prerna Prakash,Jeevan Vikas & Ishvar ki Or, and will engage myself constantly in japa and meditation.”

Pujya Bapuji advised that if a lady is in her menstruation period, she is exempted from the above tips. But all other sadhaks should definitely perform worship of the Lord and circumambulation of the Tulsi plant on Somvati Amavasya, setting aside all their other tasks. This will afford rich financial, intellectual and spiritual benefits to the sadhak.

Thursday, November 12, 2009

UTPATI EKADASHI

उत्पत्ति एकादशी
उत्पत्ति एकादशी का व्रत हेमन्त ॠतु में मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष ( गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार कार्तिक ) को करना चाहिए । इसकी कथा इस प्रकार है :

युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा : भगवन् ! पुण्यमयी एकादशी तिथि कैसे उत्पन्न हुई? इस संसार में वह क्यों पवित्र मानी गयी तथा देवताओं को कैसे प्रिय हुई?

श्रीभगवान बोले : कुन्तीनन्दन ! प्राचीन समय की बात है । सत्ययुग में मुर नामक दानव रहता था । वह बड़ा ही अदभुत, अत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओं के लिए भयंकर था । उस कालरुपधारी दुरात्मा महासुर ने इन्द्र को भी जीत लिया था । सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्ग से निकाले जा चुके थे और शंकित तथा भयभीत होकर पृथ्वी पर विचरा करते थे । एक दिन सब देवता महादेवजी के पास गये । वहाँ इन्द्र ने भगवान शिव के आगे सारा हाल कह सुनाया ।

इन्द्र बोले : महेश्वर ! ये देवता स्वर्गलोक से निकाले जाने के बाद पृथ्वी पर विचर रहे हैं । मनुष्यों के बीच रहना इन्हें शोभा नहीं देता । देव ! कोई उपाय बतलाइये । देवता किसका सहारा लें ?
महादेवजी ने कहा : देवराज ! जहाँ सबको शरण देनेवाले, सबकी रक्षा में तत्पर रहने वाले जगत के स्वामी भगवान गरुड़ध्वज विराजमान हैं, वहाँ जाओ । वे तुम लोगों की रक्षा करेंगे ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! महादेवजी की यह बात सुनकर परम बुद्धिमान देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के साथ क्षीरसागर में गये जहाँ भगवान गदाधर सो रहे थे । इन्द्र ने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की ।

इन्द्र बोले : देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है ! देव ! आप ही पति, आप ही मति, आप ही कर्त्ता और आप ही कारण हैं । आप ही सब लोगों की माता और आप ही इस जगत के पिता हैं । देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं । पुण्डरीकाक्ष ! आप दैत्यों के शत्रु हैं । मधुसूदन ! हम लोगों की रक्षा कीजिये । प्रभो ! जगन्नाथ ! अत्यन्त उग्र स्वभाववाले महाबली मुर नामक दैत्य ने इन सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर स्वर्ग से बाहर निकाल दिया है । भगवन् ! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल ! देवता भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं । दानवों का विनाश करनेवाले कमलनयन ! भक्तवत्सल ! देवदेवेश्वर ! जनार्दन ! हमारी रक्षा कीजिये… रक्षा कीजिये । भगवन् ! शरण में आये हुए देवताओं की सहायता कीजिये ।

इन्द्र की बात सुनकर भगवान विष्णु बोले : देवराज ! यह दानव कैसा है ? उसका रुप और बल कैसा है तथा उस दुष्ट के रहने का स्थान कहाँ है ?

इन्द्र बोले: देवेश्वर ! पूर्वकाल में ब्रह्माजी के वंश में तालजंघ नामक एक महान असुर उत्पन्न हुआ था, जो अत्यन्त भयंकर था । उसका पुत्र मुर दानव के नाम से विख्यात है । वह भी अत्यन्त उत्कट, महापराक्रमी और देवताओं के लिए भयंकर है । चन्द्रावती नाम से प्रसिद्ध एक नगरी है, उसीमें स्थान बनाकर वह निवास करता है । उस दैत्य ने समस्त देवताओं को परास्त करके उन्हें स्वर्गलोक से बाहर कर दिया है । उसने एक दूसरे ही इन्द्र को स्वर्ग के सिंहासन पर बैठाया है । अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, वायु तथा वरुण भी उसने दूसरे ही बनाये हैं । जनार्दन ! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ । उसने सब कोई दूसरे ही कर लिये हैं । देवताओं को तो उसने उनके प्रत्येक स्थान से वंचित कर दिया है ।

इन्द्र की यह बात सुनकर भगवान जनार्दन को बड़ा क्रोध आया । उन्होंने देवताओं को साथ लेकर चन्द्रावती नगरी में प्रवेश किया । भगवान गदाधर ने देखा कि “दैत्यराज बारंबार गर्जना कर रहा है और उससे परास्त होकर सम्पूर्ण देवता दसों दिशाओं में भाग रहे हैं ।’ अब वह दानव भगवान विष्णु को देखकर बोला : ‘खड़ा रह … खड़ा रह ।’ उसकी यह ललकार सुनकर भगवान के नेत्र क्रोध से लाल हो गये । वे बोले : ‘ अरे दुराचारी दानव ! मेरी इन भुजाओं को देख ।’ यह कहकर श्रीविष्णु ने अपने दिव्य बाणों से सामने आये हुए दुष्ट दानवों को मारना आरम्भ किया । दानव भय से विह्लल हो उठे । पाण्ड्डनन्दन ! तत्पश्चात् श्रीविष्णु ने दैत्य सेना पर चक्र का प्रहार किया । उससे छिन्न भिन्न होकर सैकड़ो योद्धा मौत के मुख में चले गये ।

इसके बाद भगवान मधुसूदन बदरिकाश्रम को चले गये । वहाँ सिंहावती नाम की गुफा थी, जो बारह योजन लम्बी थी । पाण्ड्डनन्दन ! उस गुफा में एक ही दरवाजा था । भगवान विष्णु उसीमें सो गये । वह दानव मुर भगवान को मार डालने के उद्योग में उनके पीछे पीछे तो लगा ही था । अत: उसने भी उसी गुफा में प्रवेश किया । वहाँ भगवान को सोते देख उसे बड़ा हर्ष हुआ । उसने सोचा : ‘यह दानवों को भय देनेवाला देवता है । अत: नि:सन्देह इसे मार डालूँगा ।’ युधिष्ठिर ! दानव के इस प्रकार विचार करते ही भगवान विष्णु के शरीर से एक कन्या प्रकट हुई, जो बड़ी ही रुपवती, सौभाग्यशालिनी तथा दिव्य अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित थी । वह भगवान के तेज के अंश से उत्पन्न हुई थी । उसका बल और पराक्रम महान था । युधिष्ठिर ! दानवराज मुर ने उस कन्या को देखा । कन्या ने युद्ध का विचार करके दानव के साथ युद्ध के लिए याचना की । युद्ध छिड़ गया । कन्या सब प्रकार की युद्धकला में निपुण थी । वह मुर नामक महान असुर उसके हुंकारमात्र से राख का ढेर हो गया । दानव के मारे जाने पर भगवान जाग उठे । उन्होंने दानव को धरती पर इस प्रकार निष्प्राण पड़ा देखकर कन्या से पूछा : ‘मेरा यह शत्रु अत्यन्त उग्र और भयंकर था । किसने इसका वध किया है ?’

कन्या बोली: स्वामिन् ! आपके ही प्रसाद से मैंने इस महादैत्य का वध किया है।

श्रीभगवान ने कहा : कल्याणी ! तुम्हारे इस कर्म से तीनों लोकों के मुनि और देवता आनन्दित हुए हैं। अत: तुम्हारे मन में जैसी इच्छा हो, उसके अनुसार मुझसे कोई वर माँग लो । देवदुर्लभ होने पर भी वह वर मैं तुम्हें दूँगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।

वह कन्या साक्षात् एकादशी ही थी।

उसने कहा: ‘प्रभो ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपकी कृपा से सब तीर्थों में प्रधान, समस्त विघ्नों का नाश करनेवाली तथा सब प्रकार की सिद्धि देनेवाली देवी होऊँ । जनार्दन ! जो लोग आपमें भक्ति रखते हुए मेरे दिन को उपवास करेंगे, उन्हें सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त हो । माधव ! जो लोग उपवास, नक्त भोजन अथवा एकभुक्त करके मेरे व्रत का पालन करें, उन्हें आप धन, धर्म और मोक्ष प्रदान कीजिये ।’

श्रीविष्णु बोले: कल्याणी ! तुम जो कुछ कहती हो, वह सब पूर्ण होगा ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! ऐसा वर पाकर महाव्रता एकादशी बहुत प्रसन्न हुई । दोनों पक्षों की एकादशी समान रुप से कल्याण करनेवाली है । इसमें शुक्ल और कृष्ण का भेद नहीं करना चाहिए । यदि उदयकाल में थोड़ी सी एकादशी, मध्य में पूरी द्वादशी और अन्त में किंचित् त्रयोदशी हो तो वह ‘त्रिस्पृशा एकादशी’ कहलाती है । वह भगवान को बहुत ही प्रिय है । यदि एक ‘त्रिस्पृशा एकादशी’ को उपवास कर लिया जाय तो एक हजार एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है तथा इसी प्रकार द्वादशी में पारण करने पर हजार गुना फल माना गया है । अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीय और चतुर्दशी - ये यदि पूर्वतिथि से विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिए । परवर्तिनी तिथि से युक्त होने पर ही इनमें उपवास का विधान है । पहले दिन में और रात में भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रात: काल एकदण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथि का परित्याग करके दूसरे दिन की द्वादशीयुक्त एकादशी को ही उपवास करना चाहिए । यह विधि मैंने दोनों पक्षों की एकादशी के लिए बतायी है ।

जो मनुष्य एकादशी को उपवास करता है, वह वैकुण्ठधाम में जाता है, जहाँ साक्षात् भगवान गरुड़ध्वज विराजमान रहते हैं । जो मानव हर समय एकादशी के माहात्मय का पाठ करता है, उसे हजार गौदान के पुण्य का फल प्राप्त होता है । जो दिन या रात में भक्तिपूर्वक इस माहात्म्य का श्रवण करते हैं, वे नि:संदेह ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाते हैं । एकादशी के समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है ।

Wednesday, November 11, 2009

भलाई करो

dusro की भलाई me तुम्हारी भलाई है ! kishi की burai ना सोचो ! babul के पेड़ को pani दो to usme babul के kante ही utpan होंगे परन्तु यदि angaur के पेड़ को pani दिया जाएगा to avashay उस vursh से angur ही utpan होंगे ! जैसा काम किया जाएगा vesa ही phal मिलेगा

duniya अजीब बाजार है कुछ jins yaha की sath ले
neki का badala नेक है बुरे से buri bat ले meva खिला to meva मिले aram दे to aram मिले

कोई अपने ऊपर क्रोध करे to aprashan नही होना चाहिए prashanta me rahana चाहिए

Friday, November 6, 2009

गुरुदेव



किसान चाहे कितनी भी खेती करे , खाद डाले , बिज बोए पानी देवे , परन्तु सूर्य का प्रकाश नही मिलता तब तक सब व्यर्थ है । इसी प्रकार मनुष्य चाहे कितना भी जप तप करे , यम् नियमो का पालन करे परन्तु जब तक सचे सतगुरु रूपी सूर्य का आत्मप्रकाश नही मिलता तब तक सब व्यर्थ हें साधक तू भी उसी आत्म प्रकाश में गोते लगा और साकार करले अपने मनुष्य तन को .हरी ॐ

Sunday, November 1, 2009

गुरु नानक जयंती कार्तिक पूर्णिमा

हरी ॐ
Guru Nanak Dev Ji, the founder of the Sikhism also known as first Nanak, was born in the month of Kartik (October/November), in the year 1469 AD. He was born in Tolevandi (around 30 miles away from Lahore) which is the present Shekhupura distict of Pakistan and is also known as Nanakana Sahib. The birthday of Guru Nanak Sahib falls on Kartik Puranmashi which is the full moon day of the Kartik month. His birthday is known as Guru Nanak Jayanti. The anniversaries of Sikh Guru's are known as Gurpurabs (festivals) and are celebrated with devotion and डेडिकेशन

Kartik poornima
The full moon day in the month of Kartik heralds the festival of Dev Diwali. Lamps are lit under the star-studded canopy of the sky and families gather to feast and enjoy the end of the Diwali fortnight.
This day is called Kartik Purnima (Purnima is the full moon day of each month), and celebrates the coming of Vishnu as Matsya or the fish incarnation in order to save Manu, the first man, from the primeval flood that destroyed the universe। Manu also saved all species of animals, birds and insects so that life could flourish again. It is because of Manu that Man is called 'manav' or 'manushya' in Sanskrit.
Kartika month is considered very auspicious by the Hindus. It is on this day that Lord Shiva destroyed Tripuri—the three cities ruled by demons and for Shiva worshippers it is the next most auspicious day after महाशिवरात्रि

सिद्धपुर में त्रिवेणी संगम पे लाखो लोग गंगा , जमना और सरस्वती के संगम में स्नान करके अपने आपको पवित्र बनाते है । पुष्कर और अलाहाबाद में भी लोग इस पवित्र दिन का फायदा लेते है । देव दीवाली , गुरु नानक जयंती और पूर्णिमा के इस पवन अवसर की आप सबको बहोत बहोत अभिनन्दन

Friday, October 30, 2009

KARTIK SNAN

In the holy month of Kartik, which is very dear to Shri Hari, one who bathes early in the morning (before sunrise) attains the religious merit (punya) of bathing in all places of pilgrimage [Padma Purana, Brahma Khanda].Pujya Bapuji has advised that in case, one is unable to do this for the entire Kartik month, he should try to ensure that he bathes before sunrise in the last 3 days of the month (Trayodashi, Chaturdashi & Purnima). This also affords the same religious merits as bathing before sunrise during the entire Kartik month.The last three days of the Kartik month this year are from Saturday, 31st Oct'09 - Monday, 2nd Nov'09. All sadhaks are advised to take benefit of these three days (by bathing prior to sunrise).

Wednesday, October 28, 2009

सूर्य नारायण भगवान्

मनोबल संयम बढ़ाने के लिए सूर्य नारायण को अर्घ्य दे.......
सुख चाहनेवाला सुख के लिए सूर्य नारायम को अर्घ्य दे ............
धन चाहनेवाला धन की इच्छा से सूर्य नारायण को अर्घ्य दे .....
...विद्यार्थी विद्या पाने के लिए सूर्य नारायण को जल(अर्घ्य) दे...........
सुहागन अपने सुहाग की रक्षा के लिए सूर्य नारायण को अर्घ्य दे............
कुटुम्बी अपने बाल-गोपाला के लिए सूर्य भगवान को अर्घ्य दे..

देव-जगी एकादशी २९/१०/०९


देव-जगी एकादशी के दिन , संध्या के समय कपूर आरती करने से आजीवन अकाल-मृत्यु से रक्षा होती है; एक्सीडेंट, आदि उत्पातों से रक्षा होती है



प्रबोधिनी एकादशी

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : हे अर्जुन ! मैं तुम्हें मुक्ति देनेवाली कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के सम्बन्ध में नारद और ब्रह्माजी के बीच हुए वार्तालाप को सुनाता हूँ । एक बार नारादजी ने ब्रह्माजी से पूछा : ‘हे पिता ! ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत का क्या फल होता है, आप कृपा करके मुझे यह सब विस्तारपूर्वक बतायें ।’

ब्रह्माजी बोले : हे पुत्र ! जिस वस्तु का त्रिलोक में मिलना दुष्कर है, वह वस्तु भी कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत से मिल जाती है । इस व्रत के प्रभाव से पूर्व जन्म के किये हुए अनेक बुरे कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते है । हे पुत्र ! जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस दिन थोड़ा भी पुण्य करते हैं, उनका वह पुण्य पर्वत के समान अटल हो जाता है । उनके पितृ विष्णुलोक में जाते हैं । ब्रह्महत्या आदि महान पाप भी ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन रात्रि को जागरण करने से नष्ट हो जाते हैं ।

हे नारद ! मनुष्य को भगवान की प्रसन्नता के लिए कार्तिक मास की इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए । जो मनुष्य इस एकादशी व्रत को करता है, वह धनवान, योगी, तपस्वी तथा इन्द्रियों को जीतनेवाला होता है, क्योंकि एकादशी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है ।

इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ (भगवान्नामजप भी परम यज्ञ है। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ । यज्ञों में जपयज्ञ मेरा ही स्वरुप है।’ - श्रीमद्भगवदगीता ) आदि करते हैं, उन्हें अक्षय पुण्य मिलता है ।

इसलिए हे नारद ! तुमको भी विधिपूर्वक विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए । इस एकादशी के दिन मनुष्य को ब्रह्ममुहूर्त में उठकर व्रत का संकल्प लेना चाहिए और पूजा करनी चाहिए । रात्रि को भगवान के समीप गीत, नृत्य, कथा-कीर्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करनी चाहिए ।

‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन पुष्प, अगर, धूप आदि से भगवान की आराधना करनी चाहिए, भगवान को अर्ध्य देना चाहिए । इसका फल तीर्थ और दान आदि से करोड़ गुना अधिक होता है ।

जो गुलाब के पुष्प से, बकुल और अशोक के फूलों से, सफेद और लाल कनेर के फूलों से, दूर्वादल से, शमीपत्र से, चम्पकपुष्प से भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, वे आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं । इस प्रकार रात्रि में भगवान की पूजा करके प्रात:काल स्नान के पश्चात् भगवान की प्रार्थना करते हुए गुरु की पूजा करनी चाहिए और सदाचारी व पवित्र ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर अपने व्रत को छोड़ना चाहिए ।

जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत में किसी वस्तु को त्याग देते हैं, उन्हें इस दिन से पुनः ग्रहण करनी चाहिए । जो मनुष्य ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन विधिपूर्वक व्रत करते हैं, उन्हें अनन्त सुख मिलता है और अंत में स्वर्ग को जाते हैं ।

भीषम पंचक व्रत



श्री आशाराम बापू

S..... Salutations! O my Master……………………
H..... Holy is your company, sweeter than nectar.
R..... Reveals truth, breaks off all shackle,
I..... It happens unknowingly, is it not a miracle।

A..... All troubles and miseries, You keep at arm’s length,
S..... Supreme is Your grace, gives us unparallel strength.
A..... Amazing is Your voice, charming is Your compassion,
R..... Rishi Prasad is Your Prasad, in form of publication.
A..... And blessed are we, to behold You in human form,
M..... Majestic is Your appearance, turns night into morn.
B..... Bless us O Bapu, with thoughts of Your holy feet,
A..... And bestow equanimity, in victory and in defeat.
P..... Present are You always, before and after,
U..... Unceasingly we sing, Salutations ! O my Master

Tuesday, October 27, 2009

अनित्य शरीर

शरीर अनित्य है , वैभव नश्वर है , मुर्त्यु सदा नजदीक आ रही है ! अन्तः लाला ललिया देविया धर्म और पुण्य का संग्रह कराने में लग जावो आत्मा गियान बढाते जावो ...........पूज्य गुरुदेव

संत

संत तो मौजी होते हैं जो अहंकार लेकर किसी संत के पास जाता है, वह खाली हाथ लौटता है और जो विनम्र होकर शरणागति के भाव से उनके सम्मुख जाता है, वह सब कुछ पा लेता है विनम्र और श्रद्धायुक्त लोगों पर संत की करुणा कुछ देने को जल्दी उमड़ पड़ती है

Sunday, October 25, 2009

जीवन जीने के कला

तुम जियो तो एसा जियो की जेसे देखो उसमे बस , अपना आत्मा ब्रह्म दिखे ! एसा खावो की जो खावो वह प्रशाद हो जाए ! जीवन बड़ा कीमती है ! वैमनस्य और विग्रह से अपनी शक्तियों को कम क्यो करना ? व्यर्थ की चर्चा और व्यर्थ का वाणी विलास करने से अपने को बचोवो ! सत्य परमात्मा में मन को लगावो ! इसी जीवन में धन्यता का अनुभव करो ! ........पूज्य संत श्री आशाराम बापू .

Saturday, October 24, 2009

जप दियान तिथिया

इन तिथियों पर जप/ध्यान करने का वैसा ही हजारों गुना फल होता है जैसा की सूर्य/चन्द्र ग्रहण में जप/ध्यान करने से होता है:
१. सोमवती अमावस्या - (26th Jan'09, 22 Jun'09, 16th Nov'09)२. रविवार को सप्तमी हो जाए. (28th June'09, 25th Oct'09, )३. मंगलवार की चतुर्थी हो जाए.(28th Apr'09, 8th Sept'09, 22 Sept'09)४. बुधवार की अष्टमी हो जाए. (4th Mar'09, 15th Jul'09 ,29th Jul'09, 25th Nov'09, 9th Dec'09)
इन तिथियों पर जप/ध्यान का फल ग्रहण के समय किये ही जप/ध्यान के सामान होता है. इसलिए हमें इन तिथियों पर जादा जप करना चाहिए, जिस से हमें थोडे में ही जादा लाभ मिले

ब्रमवेता महापुरुष

बारह कोष चलकर जाने से भी यदि सत्पुरुष के दर्शन मिलते है तो में पेदल चलाकर जाने के लिए तेयार हु कयोकी इसे ब्रह्म्वेता महापुरुष के दर्शन से कैसा अध्यात्मिक लाभ मिलता है वह में अच्छी तरह जनता हु ...........स्वामी विवेकानंद .

Monday, October 19, 2009

नूतन वर्ष संदेश पूज्य गुरुदेव के वचन

हरि ॐ...

1. वेद व्यास जी ने युधिष्ठिर जी से कहा - नूतन वर्ष के प्रथम दिन जो मनुष्य हर्ष में रहता है, उस का पूरा वर्ष हर्ष में जाता है, और जो शोक में रहता है, उसका पूरा वर्ष शोक में व्यतीत होता है;

दीवाली की रात वर्ष की आखरी रात है, दूसरा दिन वर्ष का प्रारंभ है; जैसे सुबह प्रारंभिक प्रसन्नता तो दिन भर प्रसन्नता काम देती है, ऐसे ही वर्ष के प्रारंभ में प्रसन्नता वर्ष भर आपको प्रसन्नता और सफलता देगी;

2. ब्रह्म वैवर्त पुराण में भगवान श्री कृष्ण से पूछा, हे जनार्दन! किस के दर्शन से प्रसन्नता और पुण्याई बढ़ती है और किस के दर्शन से खिन्नता या पाप बढ़ता है? आप इन बातों को अभी समझ लेना, दीवाली के दिन अथवा उसके एक दो दिन पहले ही प्रसन्नता का सामान जुटा लेना;

3. किस के दर्शन से प्रसन्नता होती है?

गाय के घी के दर्शन से प्रसन्नता होती है; गाय का दूध भी पुण्यमाय दर्शन है; तीर्थ, देव प्रतिमा पुण्यमय दर्शन है; सती स्त्री का दर्शन (सदभाव, देवी भाव से) पुण्यमय है; सन्यासी, यति , ब्रह्मचारी, और गाय माता और अग्नि और गुरुदेव का दर्शन पुण्यमय माना जाता है;


हाथी, गजराज, सिंह, और श्वेत घोड़े का दर्शन पुण्यमय माना गया है; पोपट, कोकिला, हंस, मोर, बछङे सहित गाय का दर्शन पुण्यमय है;

पुण्यमय दर्शन वर्ष के प्रथम दिन हों, उसका ज़रा आप लोग ध्यान रखना; इस बात को एक दूसरे को बता देना जिस से भारत हमारा विशेष पुण्यमय हो जाए; पुण्यमय आप दर्शन करना;

तीर्थ यात्री जो ईमानदारी से तीर्थ यात्रा कर के आया है, दिखावे बिना की, उसका दर्शन भी पुण्यमय है; सुवर्ण, मणि, मोती, हीरा का दर्शन पुण्यमय है;

तुलसी जी का दर्शन भी पुण्यमय माना जाता है; सफेद फूलों का दर्शन (सुगंधित) वे भी पुण्यमय दर्शन माना जाता है; धान्य का दर्शन, गाय के दूध का, दही का, मधु का, और पानी से भरे हुए गंगा-जल अथवा पानी से भरे हुए जल का दर्शन भी पुण्यमय माना जाता है;

सुबह सुबह अपना दीदार और अपने ठाकुर जी का दीदार आईने में हो जाए, बड़ा पुण्यमय दर्शन होता है; श्वेत फूलों की माला का दर्शन पुण्यमय माना जाता है; चाँदी का दर्शन और नदी, तालाब, अथवा समुद्र का दर्शन भी आह्लाद और पुण्य देने वाला है; फूलों की वाटिका का दर्शन भी आह्लाद और सत्त्व-गुण देता है;

शास्त्रों ने कहा "सुगंधिम् पुष्टि वर्धनम्"; श्री कृष्ण ने कहा "पुण्यो गंधाम पृथ्व्यां च"; जो पर्फ्यूम है वो पुण्यमयी गंध नहीं है, वो विकारमयी गंध है; लेकिन यह कुदरती फूलों की गंध पुष्टि-वर्धक है, आयुष्य बढ़ाती है, ज्ञान तंतुओं को ताज़ा तवाना रखती है; इसलिए ठाकुर जी को जो फूल चढ़ाते हैं, उनका घूम फिर कर अपने को ही फायदा मिलता है;

कस्तूरी, चंदन और चंद्रमा का दर्शन पुण्यमय माना जाता है; कुमकुम का दर्शन पुण्यमय माना जाता है; अक्षय वट और पीपल का दर्शन पुण्यमय है; देवालय और देव संबंधी जलाशय का दर्शन पुण्यमय माना जाता है;

श्री कृष्ण कह रहे हैं, उनकी बात में संदेह ना करना, इन पुण्यमय वस्तुओं का दर्शन करना आप चालू कर दो और वर्ष के प्रथम दिन तो इसका दर्शन ज़रूर करना नहीं तो मारूँगा [गुरुदेव हँसते हुए ] हम हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं और दम मारकर भी कहते हैं की ऐसे पुण्यमय दर्शन नहीं करोगे तो मारूँगा ...नारायण नारायण नारायण...

मूँगा, रजत, स्फटिक, मणि, कुशा, और गंगाजी की मिट्टी का दर्शन भी पुण्यमय कहा श्री कृष्ण ने;

तांबे का दर्शन; स्वास्थ्य के लिए वरदान है तांबे में रखे हुए पानी का उपयोग करना; भगवान ने धन संपत्ति दी है, तो दूध उबलता है उस में सोने की चूड़ी डाल दो, अथवा सोने का जो कुछ हो घर में वो डाल दो - पुष्टि वर्धक है, बुद्धि वर्धक है;

पुराण पुस्तक, श्रेष्ठ पुस्तक, शास्त्रों का दर्शन भी पुण्यमय है; तो आप वर्ष के प्रथम दिन भागवत पुराण, शिव पुराण, महाभारत हो, वेद पुराण हो, जो भी हो, उन के दर्शन कर लेना;

सोने/चाँदी के बर्तन में घी का दर्शन हो जाए तो अच्छा है, नहीं तो काँसे की ताली में भी कर सकते हैं; गौ-दुग्ध, गौ-मूत्र (गौ झरण अर्क), गौ-गोबर का दर्शन भी पुण्यमय माना है;

तुलसी के पत्ते और गौ-मूत्र सात दिन तक बासी नहीं माना जाता है; गाय की खुरों की धूलि का दर्शन भी अच्छा होता है; गौशाला के गौ खुरों का दर्शन भी मंगलमय माना जाता है;

पकी हुई खेती से भरे हुए खेत और सौभाग्यवती गहने गाँठे और सिंदूर के तिलक से संपन्न नारी देवी का दर्शन (सदभाव से, जगदंबा भाव से) भी पुण्यमय माना जाता है;

हरी दूर्वा, तांदुल, शुद्ध सात्त्विक भोजन, उत्तम अन्न का दर्शन भी पुण्यमय माना जाता है;

4. किन वस्तु, व्यक्तियों के दर्शन से पाप होता है?

जिन के दर्शन से पुण्य होता है वो सुन लिया, और जिनके दर्शन से पाप होता है, उन से सावधान रहना;

गौ, ब्राह्मण के हत्यारे का दर्शन पाप देने वाला होता है; हरे पीपल का घात करने वाला, काटने वाले का दर्शन पाप उपजाता है;

जो कृतघ्न व्यक्ति है उसके दर्शन से पाप लगता है; भगवद् मूर्ति को तोड़ने वाले का दर्शन, माता-पिता का हत्यारा का दर्शन पाप देता है; विश्वास-घाती और झूठी गवाही देने वाला का दर्शन पाप देता है; अतिथि के साथ छल करने वाले का दर्शन पापमयी है; देवता/ब्राह्मण के धन का अपहरण करने वाला, शिव/विष्णु की निंदा करने वाला और दीक्षा-रहित (निगुरा) आचार-हीन का दर्शन पापमय होता है; देवता के चढ़ावे और पूजा पर जो जीवित रहता है उसका दर्शन भी उन्नति कारक नहीं, पापमय माना गया है; नककटी नारी (जो आया सो करने लगी) का दर्शन भी वर्जित कहा है; देवता/ब्राह्मण की निंदा करने वाला, और पति भक्ति विहीन, विष्णु भक्ति से शून्य, व्यभिचारिणी स्त्री का दर्शन भी पापमय माना गया है; चोर, मिथ्या-वाडिनी, और शरणागतों को जो सताता है, माँस की चोरी करने वाले का दर्शन पापमय माना जाता है;

5. आप वर्ष के प्रथम दिन पुण्यमय दर्शन के लिए अगर हीरा, सुवर्ण, चाँदी का बर्तन हो, गाय का घी हो, पुराण का दर्शन;

सब चीज़ें याद रख पाओ ना रख पाओ, जितनी 2-4 चीज़ें याद रह जायें - घी तो याद रह सकता है, दीप, तीर्थ-यात्री का दर्शन;

और उन पुण्यमय दर्शनों में पुण्यों के दाता और पुण्यों के साक्षी प्रभु का चिंतन मिला दोगे, तो दर्शन आए हाय! हरि हरि! प्रभु प्रभु! आनंद आनंद!;

गाय को तो देखो लेकिन गाय में चेतना तेरी है, ऐसे करके दर्शन करो, तो मुझे लगता है और अच्छा पुण्यमय हो जाएगा; तुलसी का दर्शन, पीपल का दर्शन, यह तो आप आसानी से कर सकते हैं; आइने का दर्शन सुबह सुबह मंगलमय भाव से; अपने कमरे में ऐसे चित्र रखो की महापुरुषों का दर्शन हो जाए; और वर्ष के प्रथम दिन इस बात की सावधानी रखना;

जैसे संक्रामक रोग ना चाहे तो भी चिपक जाता है, ऐसे ही ना चाहते हुए भी इस वर्ष यह पुण्य सब को चिपक जाए जिस से देश और व्यक्ति का जीवन सुखमय हो, आनंदमय हो, आरोग्यमय हो;

वर्ष के प्रथम दिन प्रभु से कहो, बिन फेरे हम तेरे और हास्य प्रयोग ज़रूर से करना;

Saturday, October 17, 2009

दीपावली mantra

दीपावली पर लक्ष्मीप्राप्ति की सचोट साधना-विधियाँ
धनतेरस से आरंभ करें


सामग्रीः दक्षिणावर्ती शंख, केसर, गंगाजल का पात्र, धूप अगरबत्ती, दीपक, लाल वस्त्र।



विधिः साधक अपने सामने गुरुदेव व लक्ष्मी जी के फोटो रखे तथा उनके सामने लाल रंग का वस्त्र (रक्त कंद) बिछाकर उस पर दक्षिणावर्ती शंख रख दे। उस पर केसर से सतिया बना ले तथा कुमकुम से तिलक कर दे। बाद में स्फटिक की माला से मंत्र की 7 मालाएँ करे। तीन दिन तक ऐसा करना योग्य है। इतने से ही मंत्र-साधना सिद्ध हो जाती है। मंत्रजप पूरा होने के पश्चात् लाल वस्त्र में शंख को बाँधकर घर में रख दें। कहते हैं – जब तक वह शंख घर में रहेगा, तब तक घर में निरंतर उन्नति होती रहेगी।



मंत्रः ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं महालक्ष्मी धनदा लक्ष्मी कुबेराय मम गृह स्थिरो ह्रीं ॐ नमः।



अनुक्रम

दीपावली से आरंभ करें


दीपावली पर लक्ष्मी प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार की साधनाएँ करते हैं। हम यहाँ अपने पाठकों को लक्ष्मीप्राप्ति की साधना का एक अत्यन्त सरल व मात्र त्रिदिवसीय उपाय बता रहे हैं।



दीपावली के दिन से तीन दिन तक अर्थात् भाईदूज तक एक स्वच्छ कमरे में धूप, दीप व अगरबत्ती जलाकर शरीर पर पीले वस्त्र धारण करके, ललाट पर केसर का तिलक कर, स्फटिक मोतियों से बनी माला नित्य प्रातःकाल निम्न मंत्र की दो-दो मालाएँ जपें।



ॐ नमः भाग्यलक्ष्मी च विद् महे।

अष्टलक्ष्मी च धीमहि।

तन्नोलक्ष्मी प्रचोदयात्।



दीपावली लक्ष्मीजी का जन्मदिवस है। समुद्र मन्थन के दौरान वे क्षीरसागर से प्रकट हुई थीं। अतः घर में लक्ष्मी जी के वास, दरिद्रता के विनाश और आजीविका के उचित निर्वाह हेतु यह साधना करने वाले पर लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं।

माँ लक्ष्मी मंत्र

माँ लक्ष्मी मन्त्र
दिवाली की रात कुबेर भगवान ने लक्ष्मी जी की आराधना की थी तो कुबेर बन गए ,जो धनाढ्य लोगो से भी बड़ा धनाढ्य है..सभी धन का स्वामी है..ऐसा इस काल का महत्त्व है.. दिया जलाके जाप कराने वाले को धन, सामर्थ्य , ऐश्वर्य पाए…ध्रुव , रजा प्रियव्रत ने भी आज की रात को लक्ष्मी प्राप्ति का , वैभव प्राप्ति का जप किया था…मन्त्र बहुत सरल है…मन्त्र का फल प्राप्त करने के लिए श्रद्धा से मंत्र सुने -

माँ लक्ष्मी मन्त्र :-


श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा

Thursday, October 15, 2009

मंत्र साधना दीपावली पे

Mantra Sadhana



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Maa Lakshmi Mantra



माँ लक्ष्मी मन्त्र :-


श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा

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दीपावली पर लक्ष्मीप्राप्ति की सचोट साधना-विधियाँ
धनतेरस से आरंभ करें


सामग्रीः दक्षिणावर्ती शंख, केसर, गंगाजल का पात्र, धूप अगरबत्ती, दीपक, लाल वस्त्र।



विधिः साधक अपने सामने गुरुदेव व लक्ष्मी जी के फोटो रखे तथा उनके सामने लाल रंग का वस्त्र (रक्त कंद) बिछाकर उस पर दक्षिणावर्ती शंख रख दे। उस पर केसर से सतिया बना ले तथा कुमकुम से तिलक कर दे। बाद में स्फटिक की माला से मंत्र की 7 मालाएँ करे। तीन दिन तक ऐसा करना योग्य है। इतने से ही मंत्र-साधना सिद्ध हो जाती है। मंत्रजप पूरा होने के पश्चात् लाल वस्त्र में शंख को बाँधकर घर में रख दें। कहते हैं – जब तक वह शंख घर में रहेगा, तब तक घर में निरंतर उन्नति होती रहेगी।

मंत्रः ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं महालक्ष्मी धनदा लक्ष्मी कुबेराय मम गृह स्थिरो ह्रीं ॐ नमः।




दीपावली से आरंभ करें



दीपावली पर लक्ष्मी प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार की साधनाएँ करते हैं। हम यहाँ अपने पाठकों को लक्ष्मीप्राप्ति की साधना का एक अत्यन्त सरल व मात्र त्रिदिवसीय उपाय बता रहे हैं।





दीपावली के दिन से तीन दिन तक अर्थात् भाईदूज तक एक स्वच्छ कमरे में धूप, दीप व अगरबत्ती जलाकर शरीर पर पीले वस्त्र धारण करके, ललाट पर केसर का तिलक कर, स्फटिक मोतियों से बनी माला नित्य प्रातःकाल निम्न मंत्र की दो-दो मालाएँ जपें।




ॐ नमः भाग्यलक्ष्मी च विद् महे।

अष्टलक्ष्मी च धीमहि।

तन्नोलक्ष्मी प्रचोदयात्।




दीपावली लक्ष्मीजी का जन्मदिवस है। समुद्र मन्थन के दौरान वे क्षीरसागर से प्रकट हुई थीं। अतः घर में लक्ष्मी जी के वास, दरिद्रता के विनाश और आजीविका के उचित निर्वाह हेतु यह साधना करने वाले पर लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं।

Tuesday, October 13, 2009

रमा एकादशी

रमा एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! मुझ पर आपका स्नेह है, अत: कृपा करके बताइये कि कार्तिक के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ?

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! कार्तिक (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार आश्विन) के कृष्णपक्ष में ‘रमा’ नाम की विख्यात और परम कल्याणमयी एकादशी होती है । यह परम उत्तम है और बड़े-बड़े पापों को हरनेवाली है ।

पूर्वकाल में मुचुकुन्द नाम से विख्यात एक राजा हो चुके हैं, जो भगवान श्रीविष्णु के भक्त और सत्यप्रतिज्ञ थे ।

अपने राज्य पर निष्कण्टक शासन करनेवाले उन राजा के यहाँ नदियों में श्रेष्ठ ‘चन्द्रभागा’ कन्या के रुप में उत्पन्न हुई । राजा ने चन्द्रसेनकुमार शोभन के साथ उसका विवाह कर दिया ।

एक बार शोभन दशमी के दिन अपने ससुर के घर आये और उसी दिन समूचे नगर में पूर्ववत् ढिंढ़ोरा पिटवाया गया कि: ‘एकादशी के दिन कोई भी भोजन न करे ।’ इसे सुनकर शोभन ने अपनी प्यारी पत्नी चन्द्रभागा से कहा : ‘प्रिये ! अब मुझे इस समय क्या करना चाहिए, इसकी शिक्षा दो ।’

चन्द्रभागा बोली : प्रभो ! मेरे पिता के घर पर एकादशी के दिन मनुष्य तो क्या कोई पालतू पशु आदि भी भोजन नहीं कर सकते । प्राणनाथ ! यदि आप भोजन करेंगे तो आपकी बड़ी निन्दा होगी । इस प्रकार मन में विचार करके अपने चित्त को दृढ़ कीजिये ।

शोभन ने कहा : प्रिये ! तुम्हारा कहना सत्य है । मैं भी उपवास करुँगा । दैव का जैसा विधान है, वैसा ही होगा ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके शोभन ने व्रत के नियम का पालन किया किन्तु सूर्योदय होते होते उनका प्राणान्त हो गया । राजा मुचुकुन्द ने शोभन का राजोचित दाह संस्कार कराया । चन्द्रभागा भी पति का पारलौकिक कर्म करके पिता के ही घर पर रहने लगी ।

नृपश्रेष्ठ ! उधर शोभन इस व्रत के प्रभाव से मन्दराचल के शिखर पर बसे हुए परम रमणीय देवपुर को प्राप्त हुए । वहाँ शोभन द्वितीय कुबेर की भाँति शोभा पाने लगे ।

एक बार राजा मुचुकुन्द के नगरवासी विख्यात ब्राह्मण सोमशर्मा तीर्थयात्रा के प्रसंग से घूमते हुए मन्दराचल पर्वत पर गये, जहाँ उन्हें शोभन दिखायी दिये । राजा के दामाद को पहचानकर वे उनके समीप गये ।
शोभन भी उस समय द्विजश्रेष्ठ सोमशर्मा को आया हुआ देखकर शीघ्र ही आसन से उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम किया । फिर क्रमश : अपने ससुर राजा मुचुकुन्द, प्रिय पत्नी चन्द्रभागा तथा समस्त नगर का कुशलक्षेम पूछा ।

सोमशर्मा ने कहा : राजन् ! वहाँ सब कुशल हैं । आश्चर्य है ! ऐसा सुन्दर और विचित्र नगर तो कहीं किसीने भी नहीं देखा होगा । बताओ तो सही, आपको इस नगर की प्राप्ति कैसे हुई?

शोभन बोले : द्विजेन्द्र ! कार्तिक के कृष्णपक्ष में जो ‘रमा’ नाम की एकादशी होती है, उसीका व्रत करने से मुझे ऐसे नगर की प्राप्ति हुई है । ब्रह्मन् ! मैंने श्रद्धाहीन होकर इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया था, इसलिए मैं ऐसा मानता हूँ कि यह नगर स्थायी नहीं है । आप मुचुकुन्द की सुन्दरी कन्या चन्द्रभागा से यह सारा वृत्तान्त कहियेगा ।

शोभन की बात सुनकर ब्राह्मण मुचुकुन्दपुर में गये और वहाँ चन्द्रभागा के सामने उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया ।

सोमशर्मा बोले : शुभे ! मैंने तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा । इन्द्रपुरी के समान उनके दुर्द्धर्ष नगर का भी अवलोकन किया, किन्तु वह नगर अस्थिर है । तुम उसको स्थिर बनाओ ।

चन्द्रभागा ने कहा : ब्रह्मर्षे ! मेरे मन में पति के दर्शन की लालसा लगी हुई है । आप मुझे वहाँ ले चलिये । मैं अपने व्रत के पुण्य से उस नगर को स्थिर बनाऊँगी ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! चन्द्रभागा की बात सुनकर सोमशर्मा उसे साथ ले मन्दराचल पर्वत के निकट वामदेव मुनि के आश्रम पर गये ।

वहाँ ॠषि के मंत्र की शक्ति तथा एकादशी सेवन के प्रभाव से चन्द्रभागा का शरीर दिव्य हो गया तथा उसने दिव्य गति प्राप्त कर ली । इसके बाद वह पति के समीप गयी ।

अपनी प्रिय पत्नी को आया हुआ देखकर शोभन को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने उसे बुलाकर अपने वाम भाग में सिंहासन पर बैठाया । तदनन्तर चन्द्रभागा ने अपने प्रियतम से यह प्रिय वचन कहा: ‘नाथ ! मैं हित की बात कहती हूँ, सुनिये । जब मैं आठ वर्ष से अधिक उम्र की हो गयी,

तबसे लेकर आज तक मेरे द्वारा किये हुए एकादशी व्रत से जो पुण्य संचित हुआ है, उसके प्रभाव से यह नगर कल्प के अन्त तक स्थिर रहेगा तथा सब प्रकार के मनोवांछित वैभव से समृद्धिशाली रहेगा ।’

नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार ‘रमा’ व्रत के प्रभाव से चन्द्रभागा दिव्य भोग, दिव्य रुप और दिव्य आभरणों से विभूषित हो अपने पति के साथ मन्दराचल के शिखर पर विहार करती है ।

राजन् ! मैंने तुम्हारे समक्ष ‘रमा’ नामक एकादशी का वर्णन किया है । यह चिन्तामणि तथा कामधेनु के समान सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली है ।

Tuesday, September 29, 2009

पापांकुशा एकादशी

पापांकुशा एकादशी


युधिष्ठिर ने पूछा : हे मधुसूदन ! अब आप कृपा करके यह बताइये कि आश्विन के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है और उसका माहात्म्य क्या है ?



भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आश्विन के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, वह ‘पापांकुशा’ के नाम से विख्यात है । वह सब पापों को हरनेवाली, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, शरीर को निरोग बनानेवाली तथा सुन्दर स्त्री, धन तथा मित्र देनेवाली है । यदि अन्य कार्य के प्रसंग से भी मनुष्य इस एकमात्र एकादशी को उपास कर ले तो उसे कभी यम यातना नहीं प्राप्त होती ।



राजन् ! एकादशी के दिन उपवास और रात्रि में जागरण करनेवाले मनुष्य अनायास ही दिव्यरुपधारी, चतुर्भुज, गरुड़ की ध्वजा से युक्त, हार से सुशोभित और पीताम्बरधारी होकर भगवान विष्णु के धाम को जाते हैं । राजेन्द्र ! ऐसे पुरुष मातृपक्ष की दस, पितृपक्ष की दस तथा पत्नी के पक्ष की भी दस पीढ़ियों का उद्धार कर देते हैं । उस दिन सम्पूर्ण मनोरथ की प्राप्ति के लिए मुझ वासुदेव का पूजन करना चाहिए । जितेन्द्रिय मुनि चिरकाल तक कठोर तपस्या करके जिस फल को प्राप्त करता है, वह फल उस दिन भगवान गरुड़ध्वज को प्रणाम करने से ही मिल जाता है ।



जो पुरुष सुवर्ण, तिल, भूमि, गौ, अन्न, जल, जूते और छाते का दान करता है, वह कभी यमराज को नहीं देखता । नृपश्रेष्ठ ! दरिद्र पुरुष को भी चाहिए कि वह स्नान, जप ध्यान आदि करने के बाद यथाशक्ति होम, यज्ञ तथा दान वगैरह करके अपने प्रत्येक दिन को सफल बनाये ।



जो होम, स्नान, जप, ध्यान और यज्ञ आदि पुण्यकर्म करनेवाले हैं, उन्हें भयंकर यम यातना नहीं देखनी पड़ती । लोक में जो मानव दीर्घायु, धनाढय, कुलीन और निरोग देखे जाते हैं, वे पहले के पुण्यात्मा हैं । पुण्यकर्त्ता पुरुष ऐसे ही देखे जाते हैं । इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ, मनुष्य पाप से दुर्गति में पड़ते हैं और धर्म से स्वर्ग में जाते हैं ।



राजन् ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार ‘पापांकुशा एकादशी’ का माहात्म्य मैंने वर्णन किया । अब और क्या सुनना चाहते हो?

Monday, August 24, 2009

स्यमंतक मणि

स्यमंतक मणि

स्यमन्तक मणि वही हीरा है, जो वर्तमान आधुनिक युग में कोहिनूर हीरा नाम से प्रसिद्ध है। इसकी कथा द्वापर युग से बतायी जाती है।


[संपादित करें] सन्दर्भ
एक बार नंदकिशोर ने सनतकुमारों से कहा कि चौथ की चंद्रमा के दर्शन करने से श्रीकृष्ण पर जो लांछन लगा था, वह सिद्धि विनायक व्रत करने से ही दूर हुआ था। ऐसा सुनकर सनतकुमारों को आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण को कलंक लगने की कथा पूछी तो नंदकिशोर ने बताया।


[संपादित करें] कथा
श्रीकृष्ण समुद्र के मध्य नगरी बसाकर रहने लगे। इसी नगरी का नाम आजकल द्वारिकापुरी है। द्वारिकापुरी में निवास करने वाले सत्राजित यादव ने सूर्यनारायण की आराधना की। तब भगवान सूर्य ने उसे नित्य आठ भार सोना देने वाली स्यमन्तक नामक मणि अपने गले से उतारकर दे दी।

मणि पाकर सत्राजित यादव जब समाज में गया तो श्रीकृष्ण ने उस मणि को प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। सत्राजित ने वह मणि श्रीकृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनजित को दे दी। एक दिन प्रसेनजित घोड़े पर चढ़कर शिकार के लिए गया। वहाँ एक शेर ने उसे मार डाला और मणि ले ली। रीछों का राजा जामवन्त उस सिंह को मारकर मणि लेकर गुफा में चला गया।

जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से न लौटा तो सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। उसने सोचा, श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उसका वध कर दिया होगा। अतः बिना किसी प्रकार की जानकारी जुटाए उसने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मारकर स्यमन्तक मणि छीन ली है। इस लोक-निन्दा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए। वहाँ पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालना और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए। रीछ के पैरों की खोज करते-करते वे जामवन्त की गुफा पर पहुँचे और गुफा के भीतर चले गए। वहाँ उन्होंने देखा कि जामवन्त की पुत्री उस मणि से खेल रही है। श्रीकृष्ण को देखते ही जामवन्त युद्ध के लिए तैयार हो गया।

युद्ध छिड़ गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथियों ने उनकी सात दिन तक प्रतीक्षा की। फिर वे लोग उन्हें मर गया जानकर पश्चाताप करते हुए द्वारिकापुरी लौट गए। इधर इक्कीस दिन तक लगातार युद्ध करने पर भी जामवन्त श्रीकृष्ण को पराजित न कर सका। तब उसने सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था। यह पुष्टि होने पर उसने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी। श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए तो सत्राजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ। इस लज्जा से मुक्त होने के लिए उसने भी अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।

कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण किसी काम से इंद्रप्रस्थ चले गए। तब अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा यादव ने सत्राजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली। सत्राजित की मौत का समाचार जब श्रीकृष्ण को मिला तोवे तत्काल द्वारिका पहुँचे। वे शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गए। इस कार्य में सहायता के लिए बलराम भी तैयार थे। यह जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं भाग निकला। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार तो डाला, पर मणि उन्हें नहीं मिल पाई।

बलरामजी भी वहाँ पहुँचे। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि इसके पास नहीं है। बलरामजी को विश्वास न हुआ। वे अप्रसन्न होकर विदर्भ चले गए। श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने पर लोगों ने उनका भारी अपमान किया। तत्काल यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया। श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहाँ नारदजी आ गए। उन्होंने श्रीकृष्णजी को बताया- आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चंद्रमा का दर्शन किया था। इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है।

श्रीकृष्ण ने पूछा- चौथ के चंद्रमा को ऐसा क्या हो गया है जिसके कारण उसके दर्शनमात्र से मनुष्य कलंकित होता है। तब नारदजी बोले- एक बार ब्रह्माजी ने चतुर्थी के दिन गणेशजी का व्रत किया था। गणेशजी नेप्रकट होकर वर माँगने को कहा तो उन्होंने माँगा कि मुझे सृष्टि की रचना करने का मोह न हो। गणेशजी ज्यों ही 'तथास्तु' कहकर चलने लगे, उनके विचित्र व्यक्तित्व को देखकर चंद्रमाने उपहास किया। इस पर गणेशजी ने रुष्ट होकर चंद्रमा को शाप दिया कि आज से कोई तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा।

शाप देकर गणेशजी अपने लोक चले गए और चंद्रमा मानसरोवर की कुमुदिनियों में जा छिपा। चंद्रमा के बिना प्राणियों को बड़ा कष्ट हुआ। उनके कष्ट को देखकर ब्रह्माजी की आज्ञा से सारे देवताओं के व्रत से प्रसन्न होकर गणेशजी ने वरदान दिया कि अब चंद्रमा शाप से मुक्त तो हो जाएगा, पर भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को जो भी चंद्रमा के दर्शन करेगा, उसे चोरी आदि का झूठा लांछन जरूर लगेगा। किन्तु जो मनुष्य प्रत्येक द्वितीया को दर्शन करता रहेगा, वह इस लांछन से बच जाएगा। इस चतुर्थी को सिद्धि विनायक व्रत करने से सारे दोष छूट जाएँगे।

यह सुनकर देवता अपने-अपने स्थान को चले गए। इस प्रकार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन करने से आपको यह कलंक लगा है। तब श्रीकृष्ण ने कलंक से मुक्त होने के लिए यही व्रत किया था।

मुख्य लेख: गणेश चतुर्थी
कुरुक्षेत्र के युद्ध में युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा- भगवन! मनुष्य की मनोकामना सिद्धि का कौन-सा उपाय है? किस प्रकार मनुष्य धन, पुत्र, सौभाग्य तथा विजय प्राप्त कर सकता है? यह सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- यदि तुम पार्वती पुत्र श्री गणेश का विधिपूर्वक पूजन करो तो निश्चय ही तुम्हें सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण की आज्ञा से ही युधिष्ठिरजी ने गणेश चतुर्थी का व्रत करके महाभारत का युद्ध जीता था। यही चतुर्थ गणेश चतुर्थी नाम से प्रसिद्ध है।

Sunday, August 23, 2009

Rishi Panchami

Rishi Panchami

(Excerpts from Satsang of Pujya Bapuji)
This festival is meant for all those who are ignorant of their True Self
India is the land of Rishis and Munis. The country is so profoundly influenced by the enlightening knowledge of the Rishis and their teachings that even today people follow their precepts and succeed in leading a life of piety, virtue and righteousness and finally attain emancipation as well. There have been so many Rishis who have spent their entire lives in the service and welfare of humanity. We adore and worship those Rishis. Of those Rishis, Vasishtha, Vishwamitra, Jamdagni, Bharadwaj, Atri, Gautam and Kashyap are represented by the constellation of Ursa Major, the Great Bear, so that they are forever imprinted in our memory.
Rishis are also called ‘Mantradrashta’. Rishis do not consider themselves to be doers. They observe the world in a detached manner, remaining established in the state of a dispassionate witness. Similarly, they espouse the esoteric meaning and impact of the mantras in a completely detached manner. As such, Rishis are known to be ‘Mantradrashta’.
On the occasion of Rishi Panchami, such Mantradrashta Rishis are worshipped. Women in particular observe a fast on this day.
There is no distinction between men and women in the eyes of the Rishis. Everything to them is but the manifestation of their own infinite Self. This festival is meant for all those who are ignorant of their own Self. With a heart full of gratitude we salute and pay obeisance to the Rishis who have endeavoured to remove the ignorance due to which jiva gets entangled in cycles of birth and death, going through various species and suffering extensively in the process.
However, the real worship of the Rishis and Munis lies in complying with their commandments. And their expectation is:
‘Worship God by being god.’ Rishis are established in the state of being an eternal witness and are seers with no attachments at all. They are not distracted in the least from this state by the vagaries of pleasure or pain, loss or gain, respect or disrespect or even auspicious and inauspicious events of the world. To establish oneself in that state of an eternal witness through unrelenting practice is, in essence, their true worship. They have toiled hard to free the world from attachments. They have introduced specific ceremonies, social customs, festivals and traditions so that we may see life as it is and realize the Supreme Self, setting aside the obstructions of our age old notions. As a mark of our gratitude, we should revere the Rishis in order to absolve ourselves from the debt owed to them.
THE STORY IN RELATION TO THE RISHI PANCHAMI FAST
The story related to the Rishi Panchami fast is described in ‘Hemadri Khanda’ of the ‘Bhavishyottar Purana’.
Once there was a Brahmin named Sumitra. His wife’s name was Jayashri. In general, they led their life properly, but they failed to observe some of the important canons of healthy living, such as self-restraint and circumspection.
Brahmin’s wife Jayashri did not pay heed to the rules prescribed to be followed during menstrual cycles. She continued to cook food on those days and the Brahmin Sumitra used to take the food prepared by her. With the passage of time, the Brahmin’s intellect lost its brilliance and sharpness, and his capabilities also got blunted. Though he was blessed with a human life, he made no attempts to elevate himself to the higher stages of divinity. He frittered away his precious human life by leading an animalistic life and was consequently condemned to lower species after his death.
It has been even scientifically proved that the female body emits negative vibrations (aura) during menstruation. Her mind and life force are concentrated in the lower centres. Therefore, it is essential for the sake of our own advancement to follow the rules and regulations prescribed by the scriptures during menstrual periods. For example, a boy who does not study properly while in school and also avoids doing his homework cannot be successful and will lag behind even though he may be intelligent and belong to a progressive family. Similarly, we are attending this school of life in this human form; and without knowing the nuances of righteousness, action and enlightenment, our intellect cannot attain the heightened state required for Self-realization. Thus we fail to appreciate the real worth of our human birth. If a son cannot manage the business and wealth handed over to him by his father, he ends up becoming insolvent and has to find a job to make both ends meet. Similarly, we, the sons of God, who is the embodiment of Truth, Consciousness and Bliss, have been given a human birth, and if we do not progress we will be condemned to take lower births. This is but the law of nature.
That Brahmin Sumitra and his wife Jayashri were born as a bullock and a bitch respectively in the next birth, in their same house. The name of Brahmin Sumitra’s son was Sumati and his wife’s name was Chandrawali.
Many people have a “debtor-creditor” relationship or feelings towards one another. The law of Karma operates in such a way that even while born in different species such souls happen to live together. Jayashri had not observed the prescribed rules during her menstrual cycles; therefore she had committed grave sins and was condemned to become a bitch. Her husband had unwittingly committed the mistake of not being careful enough; and so he landed up to be an ox.
As a Brahmin, it was his duty to be circumspect and maintain purity within the house as ordained by the scriptures. When he failed in that duty, he also had to suffer the consequences.
One day it so happened that Chandrawali’s former mother-in-law, the bitch, entered the kitchen. The daughter-in-law, Chandrawali who was working in the kitchen, beat the bitch with a stick.
All these events are written in the Puranas. As such this event would have occurred even earlier than the Puranic period which is dated thousands of years back. Therefore, it is quite probable that humans and animals could comprehend each other’s language in those days. The daughter-in-law Chandrawali did not know that the bitch whom she hit was none other than her own mother-in-law. The former husband and wife in the form of the ox and the bitch were having their meals outside their son’s house. They started talking amongst themselves. The bitch said, “She beat me mercilessly. What sins have I committed that the wife of my own son, whom we brought up so carefully, is now beating me?”
The ox said, “Sure enough, we must have committed some sins.”
The daughter-in-law overheard this conversation. She told her husband, the son of the Brahmin Sumitra, about this. He was deeply moved, ‘Oh! These are my parents and in such a miserable and sorry state! I must do something for their emancipation.’
During those days, a renowned Muni, Sarvatapa, lived in that locality. He was impartial and was established in the Supreme bliss of his True Self. The guidance of such great Saints is highly beneficial for all beings. One, who is beyond attachment and hatred and is established in the Supreme Being, is the most elevated of all. Anyone who follows their instructions, quickly attains an elevated state. What they say may not be appealing at that instant, but should still be accepted whole-heartedly. It brings immense good to one, without fail.
‘Shri Guru Gita’ says,
‘Guru’s instructions should never be disobeyed whether right or wrong. One should carry out Gurudev’s commandments day in and day out and live like a slave in his proximity.’
For example, when a child goes to school, the teacher tells him that the earth is round. Irrespective of whether it appeals to his intellect or not, he accepts it. Later on he comprehends the concept. Similarly, you should accept this precept of Enlightened Gurus, the liberated Saints, that You are not this physical body but Brahman. Subsequently, if you steadfastly imbibe this truth, you will come to terms with it and realize Brahman.
The Brahmin’s son went to Sarvatapa Muni, and related the entire story stating,
“My parents live in my own courtyard as an ox and a bitch. It is the bounden duty of a son to make efforts for his parents’ emancipation. Kindly prescribe the ways and means for the same.”
Sarvatapa Muni delved for a while into his own Self, the source of all knowledge throughout the universe, and said,
“Your mother transgressed the rules to be followed during menstruation. As a result of this sin she has taken birth as a bitch. Your father unwittingly and foolishly acquiesced in her sin; that is why he is in the body of an ox. He had got the human birth endowed with intellectual faculties, but failing to utilize that invaluable privilege he acted foolishly and ended up as an ox.”
Sarvatapa Muni then prescribed a course of action for their emancipation, “These animal bodies do not possess the intellect to comprehend the concept of fasting. You may starve the ox by denying it fodder, and the bitch by refusing to give it bread; but they will hardly comprehend that they are observing a fast. Starving under compulsion yields no virtue. A fast becomes virtuous only when it is observed willingly. Therefore you should yourself observe a fast in lieu of them. On the day of Rishi Panchami observe the fast while remembering and worshipping the seven aforesaid Rishis along with Arundhati (the wife of Maharshi Vasishtha). Offer the virtues of your fast, japa and meditation performed on that day to your parents to absolve them of their sins. This will give your parents an opportunity to be free from the Rishis’ debt and they will thus be emancipated.”
The Brahmin’s son and his wife observed the fast and donated the virtue accruing therefrom to their parents. Consequently, both their parents were released from their animal births and proceeded to heaven.
Generally women observe the Rishi Panchami fast. As per this tale, any woman who has violated the rules ordained by the scriptures in regard to the days of menstruation or unwittingly had darshan of a Rishi during menstrual periods, thereby committing an act of sacrilege, should observe this fast for expiation of that sin, thus seeking forgiveness.
The modern woman may claim, “I don’t believe in such customs.” As a result, she suffers the consequences; begetting physically impaired and lustreless children.
Rishis and Munis are called ‘Arshadrashta’. They have laid down these customs only after thorough investigation and not on the basis of their whims. You can see for yourself that when any woman in the house is menstruating, your mind is not as elevated and cheerful as it is on other days.
I know a number of ascetics and yoga aspirants who engage themselves in austerities and practice of yoga, but to look after their daily needs they keep a woman who disregards the rules of maintaining piety during menstruation. Such yogis and aspirants miss the effulgence of asceticism or yoga in their lives. They fail to impress. Although my Gurudev might not have engaged in such extensive austerities and meditation, yet he had a rare and unique power of elevating people through his gracious glance, because he was highly circumspect in such matters.
My Gurudev believed in women’s liberation, but not in the kind of liberation that is observed today. What passes off as liberation today is in fact shamelessness. Women are becoming more and more helpless everyday. Real liberation of women can be appreciated only from the point of view of Rishis. There have been epitomes of female virtue like Madalasa, Jijabai, Chudala, Dirghatapa’s wife, etc. Young ladies like Gargi and Sulabha used to have open debates with renowned scholars in spiritual discourses and competitions. Many a woman has attained the status of a Rishi and even contributed to the composition of the Upanishads. Where are that sort of vibrancy, strength and lustre in the modern women? Lustrous children are born in only those families wherein people exercise self-restraint and observe the rules ordained by the scriptures.

Katha of Syamantak Mani

How the Syamantaka Jewel Brought Krishna Jâmbavatî and Satyabhâmâ(1) S'rî S'uka said: 'Satrâjit having been offensive with Lord Krishna gave for his elevation his daughter together with the jewel known as Syamantaka.' (2) The honorable king said: 'What offense committed Satrâjit against Krishna, o brahmin, from where came Syamantaka and why gave he his daughter to the Lord?(3) S'rî S'uka said: 'The sungod who was Satrâjit's best friend affectionate with him gave, to his satisfaction with his devotee, the jewel called Syamantaka. (4) He, wearing that jewel shining as brilliant as the sun around his neck, having entered Dvârakâ, o King, was because of the effulgence not recognized. (5) The people, by the glare robbed of their vision seeing him from a distance, presuming that Sûrya had arrived reported that to the Supreme Lord who was playing dice: (6) 'O Nârâyana, with obeisances unto You, o Holder of Club, Cakra and Lotus, o Dâmodara, o Lotus-eyed One, o Govinda, o beloved of the Yadus! (7) Savitâ ['the radiant one'], who with the intense radiation of his radiating disc steals the vision of men, has come to see You, o Lord of the Universe. (8) It must be so that of the most exalted of the gods of wisdom seeking out Your path, the one not born [Sûrya], knowing that You now hide among the Yadus, has come to see You.' (9) S'rî S'uka said: 'Hearing these innocent words said He with the Lotuslike Eyes smiling: 'This one's not Ravideva, it's Satrâjit glowing of his jewel.' (10) He [Satrâjit] arriving at his opulent home executed with festivity auspicious rituals in the temple room where he with the help of the learned installed the jewel. (11) Day after day would it bring him eight bhâras [of about 9.7 kg] of gold, o prabhu, and none of the inauspicious of famines, premature deaths, catastrophes, snakebites, mental and physical disorders and cheaters would take place there in the presence of the gem properly worshiped. (12) Some day asked S'auri [Krishna] on behalf of the king of the Yadus [Ugrasena] for the gem, but, he, greedy for the wealth, saw no offense in it not to hand it over. (13) One day, hanging the intensely radiating jewel around his neck, mounted Prasena [Satrâjit's brother] a horse and went he hunting in the forest. (14) Prasena along with his horse were killed and taken away by a lion who on his turn entering a cave was killed by Jâmbavân ['he from the Jambu-trees'] who wanted the jewel. (15) He then in the cave made the jewel a toy for his kid as meanwhile not seeing his brother, brother Satrâjit got deeply troubled: (16) 'My brother gone to the forest wearing the jewel around his neck is probably killed by Krishna', and what he thus said was what the people heard whispering in one another's ears. (17) The Supreme Lord who came to hear of it then, to clear Himself of the gossip to His infamy, together with the citizens followed the path taken by Prasena. (18) Seeing that he and his horse were killed by a lion in that forest, discovered they that the lion had been killed too by Riksha at a mountain side. (19) Stationing the people outside of the terrifying cave of the king of the rikshas [the bears] entered the Supreme Lord alone the place covered in pitch-dark. (20) When He saw that that most precious of jewels was used as a child's plaything, decided He to take it away and got He Himself over there close to the child. (21) Seeing the stranger cried the nurse in fear so that Jâmbavân, that best one of the strong, hearing it ran forward in rage. (22) He indeed, thinking Him a worldly person, unaware of His position fought with Him, the Supreme Lord, his own Master. (23) A very furious fight ensued between the two who each tried to win with the help of stones, trees, their arms and with weapons as if they were two hawks fighting over some meat. (24) Day and night without a pause continued for twenty-eight days the fight with blows hard as lightening of fists against fists. (25) With the muscles of his huge body pummeled by the blows of Krishna's fists, perspired he, diminished in strength, all over and addressed he Him in great amazement: (26) 'I know You, You are the life air, the physical and mental strength of all living beings, Lord Vishnu, the Primeval Personality, the All-powerful Supreme Controller. (27) You indeed are the Creator who of All Creators and the Created of the Universe art the Essence, who of the subduers art the Subduer, the Lord, the Soul Supreme to all the Souls [compare 3.25: 41-42]. (28) You are the One of whose little evidence of anger with Your glances the ocean and the crocodiles and whale-eating whales [timingilas] agitated gave way for building a bridge; You are the one famous for setting Lankâ afire; of You fell the heads of the râkshasa to the ground that You cut off with Your arrows.'(29-30) O King, Acyuta, the lotus-eyed Supreme Lord, the son of Devakî, then in great compassion for His devotee with a voice as deep as the [rumbling] clouds spoke to the king of the bears who thus had understood the truth, touching him with the hand that bestows all blessings: (31) 'O lord of the bears, we came here to the cave because of the jewel, in order to dispel the false accusation with this jewel held against Me.' (32) Thus addressed presented he along with the jewel happily as a respectful offering his maiden daughter named Jâmbvatî to Krishna. (33) Not seeing S'auri who had entered the cave coming out, went the people after waiting for twelve days unhappy back to their city. (34) Devakî, Rukminî devî, Vasudeva and all His friends and relatives lamented over Krishna not coming out of the cave. (35) They, the residents of Dvârakâ sorrowfully cursing Satrâjit then worshiped Durgâ, the fortune of the moon [the deity called Candrabhâgâ] in order to retrieve Krishna. (36) After the worship of the goddess granted she in response to them the benediction after which, creating joy, the Lord having achieved His purpose appeared with His [new] wife. (37) Greatly aroused on finding out that Hrishikes'a had come with a wife and the jewel around His neck, they all rejoiced as if someone had risen from the dead. (38) Satrâjit, summoned by the Supreme Lord to the royal assembly, was in the presence of the king informed of the recovery of the jewel which then was presented to him. (39) And he took extremely ashamed, head down, the gem and went home from there full of remorse about his sinful behavior. (40-42) Pondering over that evident offense and fearing a conflict with the ones in power thought he: 'How will I cleanse myself of the contamination and how can I satisfy Acyuta? What good should I do so that the people won't curse me for being narrow-minded, petty, befooled and avaricious after the wealth? I'll give the [Syamantaka-]jewel to Him as well as my daughter, a jewel among women; that's the way to make it up with Him and nothing else!'Satrâjit Murdered, the Jewel Stolen and Returned Again(1) The son of Vyâsa said: 'Though aware of what factually had transpired went Krishna, hearing [of the rumor] that the sons of Pându and queen Kuntî had burned to death [in the house of lac], in order to answer to His family obligations together with Balarâma to the Kuru kingdom. (2) Meeting with Bhîshma, Kripa, Vidura, Gândhârî and Drona They equally sorrowful said: 'Ah how painful this is!' (3) Getting the chance, o King, said Akrûra and [the Bhoja] Kritavarmâ [meanwhile in Krishna's absence in Dvârakâ] to S'atadhanvâ ['hundredbow', a bad character]: 'Why not take the jewel? (4) He who promised each of us his gem of a daughter, gave her, ignoring us, to Krishna; why then should Satrâjit not follow his brother ? (5) Thus influenced by the two killed that most wicked man, in his sinfulness shortening his lifespan, out of greed Satrâjit as he was sleeping. (6) While the women helplessly cried calling for help took he, after having killed like a butcher does animals, the jewel and took he off. (7) Satyabhâmâ after seeing her father killed, thrown in grief lamented: 'O father, alas o father, with you being killed I am killed!' and then fainted. (8) Putting the corpse in a large vessel of oil she went to Hastinâpura to Krishna who [already] was aware of the situation, and related sorrowfully the murder of her father. (9) The Lords hearing that, o King, imitating the human ways both lamented, eyes full of tears: 'Oh what a tragedy fell upon us!' (10) The Supreme Lord returned from there to His capital with his His wife and elder brother, prepared to kill S'atadhanvâ and take the jewel from him. (11) He, learning that, in fear also readied himself to save his life and entreated for assistance Kritavarmâ who told him: (12-13) 'I cannot be of any offense with the Lords Râma and Krishna; how can he who causes Them trouble indeed be of good fortune? Kamsa and his followers in their hatred of waging against lost their wealth and lives and Jarâsandha from seventeen battles became bereft [even] of his chariot!' (14) He, turned down, next begged Akrûra for help but he also said: 'Who, knowing the strength of the Lordships, can can oppose? (15-17) He who maintains, creates and destroys this universe as a play; He whose purpose is not even known to the secondary creators [headed by Brahmâ] being bewildered by His invincible potency [of mâyâ]; He who playing as a child of seven years of age uprooted a mountain that He held up with a single hand like a boy does a mushroom [see 10.25]; Him, Krishna the Supreme Lord to whose wondrous acts there is no end I do worship; Him who as the source of all existence is the Supreme Soul, the immovable center, I offer my obeisances.' (18) He, S'atadhanvâ also by him refused, left the precious jewel with him, mounted a horse that could cover a hundred yojanas and departed. (19) Krishna and Râma mounting the chariot with the emblem of Garuda followed with the swiftest horses, o King, the murderer of Their guru [Their father-in-law as a teacher]. (20) In a Mithilâ suburban park abandoning his horse that had fallen, ran he on foot terrified with a furious Krishna speeding after him likewise. (21) With him on the run severed the Lord on foot with the sharp edged disc his head, and searched He his upper and lower garments for the stone. (22) Not finding the gem said Krishna approaching His elder brother getting near: 'S'atadhanvâ was killed uselessly, the jewel is not with him.' (23) Balarâma then said: 'S'atadhanvâ must have left the rock with some person, so go [back] to the city [of Dvârakâ] and search him out. (24) l wish to see the king of Videha most dear to Me', and thus having spoken entered the descendant of Yadu, o King, Mithilâ [the capital of Videha]. (25) Seeing Him the king of Mithilâ immediately rose with a mind full of love and honored Him being worshipable, as was prescribed with all there was to it. (26) There in Mithilâ did He, the Mighty One, honored by the affectionate Janaka, the great soul, live for several years for the time teaching Duryodhana to wield the club.(27) Kes'ava the All-powerful getting to Dvârakâ, told to the comfort of His beloved [the grieving Satyabhâmâ] of the demise of S'atadhanvâ and the failure to get hold of the jewel. (28) He, the Supreme Lord together with all the well-wishers one may so have at the end of one's life, then made sure to have the obsequies performed for the deceased relative [Satrâjit]. (29) The ones responsible, Akrûra and Kritavarmâ, hearing of the killing of S'atadhanava, seized by fear went into exile from Dvârakâ. (30) With Akrûra in exile ill omens arose indeed for the residents of Dvârakâ that gave them by higher powers [natural disasters included] and other living beings, constantly trouble in body and mind. (31) Thus, my dear, were some in conjecture forgetting what of old had been described by the sages as following His residence; how could with His presence any calamity arise? (32) [They said:] 'When Indra withheld the rains gave the king of Benares his daughter Gândinî to S'vaphalka who came to him, after which it then indeed did rain in Kâs'î. (33) Wherever indeed he, Akrûra, his son, having his [fathers] powers stays, will lord Indra shower rains and will there be no painful disturbances or untimely deaths.'(34) Hearing of the elders these words ordered Janârdana, with the thought that this was not the only cause of the matters at hand , that Akrûra should be brought back. (35-36) Greeting him with respect and honor and pleasantly discussing topics, smiled He, fully aware of everything that went on in his heart, and said: 'We of course, o master of charity, arealready known with the fact that you indeed at present hold the opulent syamantaka-jewel that S'atadhanvâ put under your care. (37) Since Satrâjit had no sons is it his daughter's sons [she and her sons] who after presenting water, offerings and having cleared his remaining debts, should receive his inheritance. (38-39) Nevertheless should the jewel, as it is impossible to hold by others, remain with you, o trustworthy keeper of the vows. However, My brother does not completely believe Me concerning the gem. Please, to bring peace to My relatives, show it Us now, o most fortunate soul who with your altars of gold uninterrupted continues with your sacrifices. (40) Thus won over by the conciliatory words took the son of S'vaphalka the gem hidden in his garment and gave he it, shining as brilliant as the sun. (41) After showing Syamantaka to His relatives, [and thus] doing away with the emotions [of the accusations held] with Him, offered the Master it back to him again. (42) Whoever recites, hears or remembers this narration which indeed, rich with the prowess of the Supreme Controller Vishnu, most auspiciously removes the reactions to sin, will attain peace and drive away his badness and bad reputation.(43) Thus intelligently deciding set Satrâjit himself to it and presented he his fair daughter and the jewel to Krishna. (44) She, Satyabhâmâ, sought by many men for being endowed with the qualities of a fine character, beauty and magnanimity, married the Lord according the customs. (45) The Supreme Lord said: 'We do not desire back the jewel, o King, let it remain with you being of devotion with the godhead [Sûrya] so that We may also be the enjoyers of its fruits.

गणेश चतुर्थी


Ganesh Chaturthi (23rd Aug’09)
On the Auspicious Afternoon of Bhadrapad Shukla Chaturthi, Bhagawan Shri Ganapati was born.

Aum Gam Ganapataye Namah

This mantra should be chanted calmly on this auspicious day as much as one कैन

Excerpts from the Satsang of Param Pujya Sant Shri Asaramji Bapuji)
Once Lord Ganesha was walking in His own delightful rhythm. It was the fourth lunar day (chaturthi). The Moon god saw him. The Moon god was very vain about his good looks. He said with a bitter sarcasm to Lord Ganesha, "What a beautiful form you have! A big belly and an elephant's head...".
Lord Ganesha realized that the Moon's vanity will not go without his being appropriately punished for the same. Lord Ganesha said, "Your face will not be worth showing to anybody."
The Moon did not rise after that. The gods were worried, "The whole department that nourishes the earth has been closed! How will the medicinal herbs be enriched? How will the affairs of the world be conducted?"
Lord Brahma said, "The Moon's insolence has angered Lord Ganesha."
The gods worshipped Lord Ganesha in order to propitiate him. When Lord Ganesha was pleased, the Moon's face became worth showing to others. The Moon god prayed to Lord Ganesha with hymns.

Lord Ganesha said, "Your face will be worth showing on other days of the year, but on the fourth lunar day of the bright fortnight of Bhadrapada, the day when you insulted me, whoever sees you will be slandered with a serious blemish within a year. This is necessary to give the message to the people that 'No one should be vain regarding one's physical beauty and charm.'

The Lord of all the gods and senses is the Self. You are ridiculing a Self-Realized personality like me? You are finding faults with my physical form and are proud of your external beauty? You are ignorant of Me, the Self, the source of all beauty, that lends beauty to your external form. That Self alone exists. He alone is seen in the forms of Lord Narayana, Lord Ganesha, Lord Shiva as also in all beings. O Moon! Even your real Being is That very Self. Don't be proud of your external beauty."
Even Lord Krishna was accused of stealing the 'Syamantaka Gem', because He happened to see the Moon on that particular fourth lunar day. His brother Balrama has also joined the accusers; though, in fact, Lord Krishna had not stolen the 'Syamantaka Gem'.
Those who don't believe in the truth of this incident, who are sceptical of the scriptures, are invited to test its veracity by looking at the Moon on the fourth lunar day of the bright fortnight of Bhadrapada (Ganesh Chaturthi). A sceptic will pay the cost of disbelieving the scriptures retold in satsang. Within a year, he will be the victim of such a great blemish as will completely vitiate his dignity.

IMPORTANT NOTE:

This year Ganesh-Chaturthi falls on the 23rd of August, 2009. It is extremely harmful to look at the Moon on Ganesh-Chaturthi. Therefore be very careful not to look at the moon on that night. If it happens to look at the Moon on the night of Ganesh-Chaturthi, then no matter how innocent one is, one will definitely be defamed.

Even Lord Krishna was accused of having stolen the ‘Syamantak Mani’ because of looking at the Moon on this night.However, if you look at the Moon on the 3rd(22nd Aug '09) and 5th (24th Aug'09) nights of that lunar month, the harmful effects caused by seeing the Moon on the 4th lunar night is countered.

This year On Ganesh Chaturthi moonset is at 9.00 PM IST, Pujya Bapuji asks sadhaks to do Jap-dhyan from evening Sandhya to Moon set(9.00 PM) in your pooja room.

In any case, if by mistake you do happen to look at the Moon on this night, read or listen to the episode narrating the theft of the Syamantak Mani as described in the 56th and 57th chapters of the tenth Skanda of the Srimad Bhagawata.Below is the mantra to encounter the effect of Chandra Darshan on Ganesh Chaturthi
Mantra to encounter the effect of Chandra Darshan


सिहः प्रसेनमवधीत सिंहो जाम्बवता हतः ।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥

Sinha prasenmavadheet sinho jambavataa hatah.
Sukumarak ma rodeestav hyesh syamantakah.

Saturday, August 15, 2009

जन गन मन

हरी ॐ

मेरा देश महान , मेरा प्यारा देश , मेरी प्यारी जन्मभूमि माँ तुजे लाखो लाखो सलाम , तुज पे हमारा दिल कुर्बान ,

http://www.youtube.com/watch?v=ह२६ज़्जीह९ई

आप सभी से निवेधन है आप सब सलाम करे अपने प्यारे वतन को

और जरुर यह गाए
हरी ॐ

Monday, August 10, 2009

अखंड महा मुर्तुन्जय मंत्र जप समर्पित पूज्य गुरुदेव जन्मास्त्त्मी के दिन १४/०८/09

Hari om to all


Just to remind all of you that we allready send you email Regarding AKHAND MAHA MURTUNJAY MANTRA JAP ON JANMASTMI 14/08/09 FRIDAY FROM 6.00 AM INDIAN TIME TO 15/08/09 7.00AM INDIAN TIME 25 HOURS WORLD WIDE SAMARPIT TO PUJYA GURUDEV'S HOLY FEET

All slots are half hours slot but to make continuty just start .05 min before and finish .05 min after so it will be continue akhand .

We request all of you that we all have lot more time for us just spare only .40 min from your valubele time and do the seva For Guruvar .

Dubai people can take the benefit double as there is same 25 hours Maha Murtunjay Mantra Jap the part of world wide seva at Naresh Motwani residence from local time 4.25 AM 14/08/09 TO 5.35 AM 15/08/09 . 25 HOURSS JAP. including Janmastmi Mahotsav Krishna Janma Celebration at their residence from 9.00 pm to 11.30 pm local time .

To take the part in World wide jap seva please send your time , city and name to the worldwideseva@yahoo.com



WWST
(WORLD WIDE SEVA TEAM )
GURU SEVA HI PARAM DHARAM

Saturday, August 1, 2009

पुत्रदा एकादशी

पुत्रदा एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : मधुसूदन ! श्रावण के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है ? कृपया मेरे सामने उसका वर्णन कीजिये ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! प्राचीन काल की बात है । द्वापर युग के प्रारम्भ का समय था । माहिष्मतीपुर में राजा महीजित अपने राज्य का पालन करते थे किन्तु उन्हें कोई पुत्र नहीं था, इसलिए वह राज्य उन्हें सुखदायक नहीं प्रतीत होता था । अपनी अवस्था अधिक देख राजा को बड़ी चिन्ता हुई । उन्होंने प्रजावर्ग में बैठकर इस प्रकार कहा: ‘प्रजाजनो ! इस जन्म में मुझसे कोई पातक नहीं हुआ है । मैंने अपने खजाने में अन्याय से कमाया हुआ धन नहीं जमा किया है । ब्राह्मणों और देवताओं का धन भी मैंने कभी नहीं लिया है । पुत्रवत् प्रजा का पालन किया है । धर्म से पृथ्वी पर अधिकार जमाया है । दुष्टों को, चाहे वे बन्धु और पुत्रों के समान ही क्यों न रहे हों, दण्ड दिया है । शिष्ट पुरुषों का सदा सम्मान किया है और किसीको द्वेष का पात्र नहीं समझा है । फिर क्या कारण है, जो मेरे घर में आज तक पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ? आप लोग इसका विचार करें ।’

राजा के ये वचन सुनकर प्रजा और पुरोहितों के साथ ब्राह्मणों ने उनके हित का विचार करके गहन वन में प्रवेश किया । राजा का कल्याण चाहनेवाले वे सभी लोग इधर उधर घूमकर ॠषिसेवित आश्रमों की तलाश करने लगे । इतने में उन्हें मुनिश्रेष्ठ लोमशजी के दर्शन हुए ।

लोमशजी धर्म के त्तत्त्वज्ञ, सम्पूर्ण शास्त्रों के विशिष्ट विद्वान, दीर्घायु और महात्मा हैं । उनका शरीर लोम से भरा हुआ है । वे ब्रह्माजी के समान तेजस्वी हैं । एक एक कल्प बीतने पर उनके शरीर का एक एक लोम विशीर्ण होता है, टूटकर गिरता है, इसीलिए उनका नाम लोमश हुआ है । वे महामुनि तीनों कालों की बातें जानते हैं ।

उन्हें देखकर सब लोगों को बड़ा हर्ष हुआ । लोगों को अपने निकट आया देख लोमशजी ने पूछा : ‘तुम सब लोग किसलिए यहाँ आये हो? अपने आगमन का कारण बताओ । तुम लोगों के लिए जो हितकर कार्य होगा, उसे मैं अवश्य करुँगा ।’

प्रजाजनों ने कहा : ब्रह्मन् ! इस समय महीजित नामवाले जो राजा हैं, उन्हें कोई पुत्र नहीं है । हम लोग उन्हींकी प्रजा हैं, जिनका उन्होंने पुत्र की भाँति पालन किया है । उन्हें पुत्रहीन देख, उनके दु:ख से दु:खित हो हम तपस्या करने का दृढ़ निश्चय करके यहाँ आये है । द्विजोत्तम ! राजा के भाग्य से इस समय हमें आपका दर्शन मिल गया है । महापुरुषों के दर्शन से ही मनुष्यों के सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं । मुने ! अब हमें उस उपाय का उपदेश कीजिये, जिससे राजा को पुत्र की प्राप्ति हो ।

उनकी बात सुनकर महर्षि लोमश दो घड़ी के लिए ध्यानमग्न हो गये । तत्पश्चात् राजा के प्राचीन जन्म का वृत्तान्त जानकर उन्होंने कहा : ‘प्रजावृन्द ! सुनो । राजा महीजित पूर्वजन्म में मनुष्यों को चूसनेवाला धनहीन वैश्य था । वह वैश्य गाँव-गाँव घूमकर व्यापार किया करता था । एक दिन ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में दशमी तिथि को, जब दोपहर का सूर्य तप रहा था, वह किसी गाँव की सीमा में एक जलाशय पर पहुँचा । पानी से भरी हुई बावली देखकर वैश्य ने वहाँ जल पीने का विचार किया । इतने में वहाँ अपने बछड़े के साथ एक गौ भी आ पहुँची । वह प्यास से व्याकुल और ताप से पीड़ित थी, अत: बावली में जाकर जल पीने लगी । वैश्य ने पानी पीती हुई गाय को हाँककर दूर हटा दिया और स्वयं पानी पीने लगा । उसी पापकर्म के कारण राजा इस समय पुत्रहीन हुए हैं । किसी जन्म के पुण्य से इन्हें निष्कण्टक राज्य की प्राप्ति हुई है ।’

प्रजाजनों ने कहा : मुने ! पुराणों में उल्लेख है कि प्रायश्चितरुप पुण्य से पाप नष्ट होते हैं, अत: ऐसे पुण्यकर्म का उपदेश कीजिये, जिससे उस पाप का नाश हो जाय ।

लोमशजी बोले : प्रजाजनो ! श्रावण मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, वह ‘पुत्रदा’ के नाम से विख्यात है । वह मनोवांछित फल प्रदान करनेवाली है । तुम लोग उसीका व्रत करो ।

यह सुनकर प्रजाजनों ने मुनि को नमस्कार किया और नगर में आकर विधिपूर्वक ‘पुत्रदा एकादशी’ के व्रत का अनुष्ठान किया । उन्होंने विधिपूर्वक जागरण भी किया और उसका निर्मल पुण्य राजा को अर्पण कर दिया । तत्पश्चात् रानी ने गर्भधारण किया और प्रसव का समय आने पर बलवान पुत्र को जन्म दिया ।

इसका माहात्म्य सुनकर मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है तथा इहलोक में सुख पाकर परलोक में स्वर्गीय गति को प्राप्त होता है ।

Monday, July 20, 2009

सूर्य ग्रहण

हरी ॐ
२२ जुलाई को होने वाले सूर्य ग्रहण की अवधि ६.०० मिनिटे और ३९ सेकंड है और सब से ज्यादा उसकी अवधि चाइना में ५.०० मिनिटे और ३० सेकंड की है
भारत में यह १३ राजयो में दिखेगा जिसमे पटना में सबसे ज्यादा ३ मिनिटे और ३० सेकंड के लिए रहेगा । सूर्य ग्रहण अपने पूरनता में गुजरात ,मध्य प्रधेश ,उतर प्रदेश , बिहार ,पशिम बंगाल ,सिक्किम ,अरुणाचल प्रदेश में सुबह ५.३० के लेकर ७.३० के मध्य दिखेगा .पटना ,भोपाल ,इंदौर,गया ,वाराणसी ,भावनगर ,दार्जिलिंग ,गंगटोक ,सूरत , उज्जेँ और बरोधा में , भरूच ,में भी दिखेगा
नेपाल , बांग्लादेश ,भुतान ,मियामर , चाइना में इसका असर रहेगा और देखा जाएगा

ग्रहण का स्पर्श सुबह भारत में ५.५३.०९ को होगा और उसका मद्य ६.२३.३० रहेगाऔर उसका मोक्ष ७.२२.०५ पे होगा

दुबई में इसका समय ५.४३ ग्रहण लेकर ५ के.३९ दुबई टाईम्स dubai times ५.४३ तो ५.४७.३९
Grahan ka prabhav map
http://www.shadowandsubstance.com/
ke samay पालने योग्य baate
http://hariombooks.googlepages.com/hindi_grahan.htm
ग्रहण कल में मंत्र जप
ग्रहण कलमें किया हुवा जप , अनंत गुना फल दायक है .पूज्य गुरुदेव ने एक सत्संग में बताया था की की ग्रहण काल में अगर ॐ नमो नारायणाय मंत्र का ८००० मंत्रो का उचारण किया जाए तो वोह मंत्र सिद्द हो जाता है और फिर सिर्फ़ १५ बार उसका जप करके आप कोई भी अनुष्ठान शरु करो तो वोह निर्विघन पूरण होता है , और कोई बीमार है तो २१ बार जल में देखकर एस मंत्र का जप करके वोह अभिमंत्र किया हुवा जल पिला दो तो बहोत फायदा होता हा

Thursday, July 2, 2009

Pujya Gurudev Massage


Hari om Pujya Gurudev Massage for the Guru Poonam please do this Guru Poornima ki aapk sabko hardhik badhaiya Hari om

Thursday, June 25, 2009

JINE KI CHAH

आत्मविश्वास की कमी के चलते अब हजारों लोग जिंदगी की जंग हारकर मौत को गले लगा लेते हैं । आत्महत्या की बढती घटनाएं समाज के विविध वर्ग के लोगों के जीवन में बढ़ रही निराशा, संघर्ष करने की घटती क्षमता और जीने की इच्छाशक्ति की कमी की ओर संकेत करती हैं।

मौजूदा समय के भौतिकवादी माहौल ने लोगों की महत्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं को काफी बढा दिया है। अब आदमी के अंदर अच्छा घर, कार और आधुनिक जीवन की सभी सुख सुविधाएं हासिल करने की लालसा बढती जा रही है । वह अपने सपनों को जल्द पूरा करना चाहता है । सपने टूटते हैं और अपेक्षाएं पूरी नहीं होती हैं तो आत्मविश्वास की कमी के चलते लोग जिंदगी से मायूस हो जाते हैं । बडी संख्या में युवाओं का जीवन के प्रति मोहभंग होना पूरे समाज के लिए चिंता का विषय है । देश में हर साल करीब २४०० छात्र परीक्षा के तनाव या फिर फेल होने पर खुदकुशी कर लेते हैं । कभी प्रेम में निराशा मिलने पर तो कभी अर्थिक तंगी या गृहकलह आत्महत्या की वजह बन जाती है ।दरअसल, जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए आत्मविश्वास की शक्ति सर्वाधिक आवश्यक है । आत्मविश्वास के अभाव में किसी कामयाबी की कल्पना नहीं की जा सकती है । आत्मविश्वास के सहारे कठिन से कठिन लक्ष्य को प्राप्त करना भी सरल हो जाता है । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आत्मविश्वास के सहारे ही ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष किया । यह उनका आत्मविश्वास ही था जिसके सहारे उन्होंने अहिंसा के रास्ते पर चलकर देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया । आत्मविश्वास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-आत्म और विश्वास । यहां आत्मा से आशय अंतर्मन से है । विश्वास का अर्थ भरोसा होता है । वस्तुत: अंतर्मन के भरोसे को ही आत्मविश्वास कहते है ं। आत्मविश्वास मनुष्य के अंदर ही समाहित होता है । आंतरिक शक्तियों को एकीकृत करके आत्मविश्वास को मजबूत किया जा सकता है।आत्मविश्वास को जागृत करके और मजबूत बनाकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता अर्जित की जा सकती है ।

सत्य, सदाचार, ईमानदारी, सहृदयता आदि मानवीय गुणों को धारण करके आत्मविश्वास का संचार किया जा सकता है । आत्मविश्वास से भरे विद्यार्थी परीक्षा में सफलता प्राप्त करते हैं । रोजगार और व्यवसाय में भी उन्नति के शिखर पर पहुंचने का आधार आत्मविश्वास ही होता है । बडी से बडी समस्या भी उन्हें जिंदगी में आगे बढऩे से नहीं रोक सकती। आत्मविश्वास से दैदीप्य व्यक्तित्व ही समाज को नई दिशा देने में समर्थ होता है ।

वास्तव में आत्मविश्वास की शक्ति अद्भुत होती है ।प्रत्येक मनुष्य को सदैव आत्मविश्वास को मजबूत बनाए रखना चाहिए तभी वह जीवन में उन्नति कर सकता है । जिंदगी से मायूस हुए लोगों को ढाढस बंधाने का काम परिजनों अथवा उनके निकट के लोगों को करना चाहिए । बातचीत के माध्यम से निराशाजनक स्थितियों से गुजर रहे मनुष्य के अंदर जीने की इच्छाशक्ति को मजबूत किया जाना चाहिए ।

विविध प्रेरणादायक प्रसंगों की जानकारी देकर उन्हें जीवन के संघर्ष से घबराने के बजाय मुकाबला करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए । उनके मन से निराशा का अंधेरा छंट गया तो निश्चित रूप से उनमें जीवन के प्रति ललक जागृत होगी । उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न होगा तो वह वह भविष्य में जिम्मेदार नागरिक बनकर देश के विकास में अपना योगदान दे पाएंगे ।

Thursday, June 18, 2009

YOGINI EKADASHI 19TH JUNE FRIDAY

योगिनी एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : वासुदेव ! आषाढ़ के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? कृपया उसका वर्णन कीजिये ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ ! आषाढ़ (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ ) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘योगिनी’ है। यह बड़े बडे पातकों का नाश करनेवाली है। संसारसागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है ।

अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं । उनका ‘हेममाली’ नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था । हेममाली की पत्नी का नाम ‘विशालाक्षी’ था । वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था । एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन में न जा सका । इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे । उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की । जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : ‘यक्षों ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है ?’

यक्षों ने कहा: राजन् ! वह तो पत्नी की कामना में आसक्त हो घर में ही रमण कर रहा है । यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलवाया । वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया । उसे देखकर कुबेर बोले : ‘ओ पापी ! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने भगवान की अवहेलना की है, अत: कोढ़ से युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा ।’

कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया । कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं हुई । तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरि के शिखर पर गया । वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन हुआ । पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनिवर मार्कण्डेय ने उसे भय से काँपते देख कहा : ‘तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया ?’

यक्ष बोला : मुने ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ । मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव पूजा के समय कुबेर को दिया करता था । एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया । मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता है, यह जानकर मुझ अपराधी को कर्त्तव्य का उपदेश दीजिये ।

मार्कण्डेयजी ने कहा: तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ । तुम आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करो । इस व्रत के पुण्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायेगा ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: राजन् ! मार्कण्डेयजी के उपदेश से उसने ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत किया, जिससे उसके शरीर को कोढ़ दूर हो गया । उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया ।

नृपश्रेष्ठ ! यह ‘योगिनी’ का व्रत ऐसा पुण्यशाली है कि अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है, वही फल ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है । ‘योगिनी’ महान पापों को शान्त करनेवाली और महान पुण्य फल देनेवाली है । इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।