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Wednesday, September 28, 2011

पूज्य बापू जी का आत्मसाक्षात्कार दिवसः 29 सितम्बर 2011

पूज्य बापू जी का आत्मसाक्षात्कार दिवसः




29 सितम्बर 2011



जितना हो सके आप लोग मौन का सहारा लेना। बोलना पड़े तो बहुत धीरे बोलना और बार-बार अपने मन को समझाना, 'तेरा आसोज सुद दो दिवस (आत्मसाक्षात्कार-दिवस) कब होगा ? ऐसा क्षण कब आयेगा कि जिस क्षण तू परमात्मा में खो जायेगा ? ऐसी घड़ियाँ कब आयेगी कि तू सर्वव्यापक, सच्चिदानन्द परमात्मस्वरूप हो जायेगा ?



ऐसी घड़ियाँ कब आयेंगी कि जब निःसंकल्प अवस्था को प्राप्त हो जायेंगे ? योगी योग करते हैं और धारणा रखते हैं दिव्य शरीर पाने की लेकिन वह दिव्य शरीर भी प्रकृति का होता है, अंत में नाश हो जाता है। मुझे न दिव्य शरीर पाना है, न दिव्य भोग भोगने हैं, न दिव्य लोकों में जाना है, न दिव्य देव-देह ही पाकर विलास करना है। मैं तो सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हूँ, मेरा मुझको नमस्कार है – ऐसा मुझे कब अनुभव होगा ? जो सबके भीतर है, सबके पास है, सबका आधार है, सबका प्यारा है, सबसे न्यारा है, ऐसे सच्चिदानन्द परमात्मा में मेरा मन विश्रान्त कब होगा ? – ऐसा सोचते-सोचते मन को विश्रान्ति की तरफ ले जाना। ज्यों-ज्यों मन विश्रान्ति को उपलब्ध होगा त्यों-त्यों तुम्हारा तो बेड़ा पार हो ही जायेगा, तुम्हारा दर्शन करने वाले का भी बेड़ा पार होने लगेगा।



आत्मसाक्षात्कार के समय जो होता है उसको वाणी में नहीं लाया जा सकता है। योग की पराकाष्ठा दिव्य देह पाना है, भक्ति की पराकाष्ठा भगवान के लोक में जाना है, धर्मानुष्ठान की पराकाष्ठा स्वर्ग-सुख भोगना है लेकिन तत्त्वज्ञान की पराकाष्ठा है अनंत-अनंत ब्रह्माण्डों में जो फैल रहा चैतन्य है, जिसमें कोटि-कोटि ब्रह्मा होकर लीन हो जाते हैं, जिसमें कोटि-कोटि इन्द्र राज्य करके भी नष्ट हो जाते हैं, जिसमें अरबों और खरबों राजा उत्पन्न होकर लीन हो जाते हैं, उस चैतन्यस्वरूप से अपने-आपका ऐक्य अनुभव करना। यह आत्मसाक्षात्कार की खबर है।



धर्म, भक्ति, योग व साक्षात्कार में क्या अन्तर है यह समझना चाहिए। धर्म अधर्म से बचने के काम आता। भक्ति भाव को शुद्ध करने के काम आती है। भोग हर्ष पैदा करने के काम आते हैं। योग हर्ष व शोक को दबाने के काम आता है, मन व इन्द्रियों को शुद्ध करने में काम आता है लेकिन आत्मसाक्षात्कार इन सबसे ऊँची चीज है। उसके इर्द-गिर्द का बातें शास्त्रों में थोड़ी-बहुत आती हैं। धर्म से स्वर्गादि की उपलब्धि होती है, स्वर्ग में जाना पड़ता है। भक्ति से वैकुण्ठ में जाना पड़ता है सुख लेने के लिए। योग से दिव्य देह पाने के लिये प्रयत्न करना पड़ता है किंतु साक्षात्कार सारे कर्तव्य छुड़ा देता है।



साक्षात्कार का अर्थ है कि जो सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा है, उसमें मन का भलीभाँति तदाकार हो जाना। जैसे तरंग समुद्र से तदाकार हो जाती है, ऐसे ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मविद् हो जाता है। उसकी वाणी वेदवाणी हो जाती है। लौकिक भाषा हो या संस्कृत, भ्रम-भेद मिटाकर अभेद आत्मा में जगा देती है। साक्षात्कार कैसा होता है इसके बारे में कितना भी प्रयत्न किया जाय, उसका पूर्ण वर्णन नहीं हो सकता है। अन्य साधनाओं का फल लोक-लोकांतर में जाकर कुछ पाने का होता है लेकिन आत्मसाक्षात्कार के बाद कहीं जाकर कुछ पाना नहीं रहता। कुछ पाना भी नहीं रहता, कुछ खोना भी नहीं रहता। धर्मात्मा यदि अधर्म करेगा तो उसका पुण्य नष्ट हो जायेगा। योगी यदि दुराचार करेगा तो उसका योगबल नष्ट हो जायेगा। भक्त यदि भगवान की भक्ति छोड़ देगा तो अभक्त हो जायेगा। साक्षात्कार का मतलब एक बार साक्षात्कार हो जाये, फिर वह तीनों लोकों को मान डाले फिर भी उसको पाप नहीं लगता और तीनों लोकों को भंडारा करके भोजन कराये तो भी उसको पुण्य नहीं होता। क्योंकि वह एक ऐसी जगह, ऐसी ऊँचाई पर पहुँचा है कि वहाँ पुण्य नहीं पहुँचता, पाप भी नहीं पहुँचता। वह ऐसी ऊँचाई पर खड़ा है कि वहाँ धर्म भी नहीं पहुँचता और अधर्म भी नहीं पहुँचता है। वह आत्मवेत्ता एक ऐसी जगह पर खड़ा है। अखा भगत कहते हैं-



राज्य करे रमणी रमें, के ओढ़े मृगछाल।



जो करे सब सहज में, सो साहेब का लाल।।



यह आत्मज्ञान भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को सुनाते हैं- त्रैगुण्यविषया वेदा..... 'वेदों का ज्ञान, वेदों की उपलब्धियाँ भी तीन गुणों के अन्तर्गत हैं। निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। 'अर्जुन ! तू तीनों गुणों से पार चला जा।'



ज्ञानी क्या होता है ? वह सत्त्वगुण भी नहीं चाहता। भक्त सत्त्वगुण चाहता है, भोगी रजोगुण चाहता है, आलसी तमोगुण चाहता है। आलसी तमोगुण में सुख ढूँढता है, भोगी रजोगुण में सुख ढूँढता है और भक्त सत्त्वगुण में – ऊर्ध्व गच्छन्ति सत्त्वस्था.... वह सात्त्विक लोकों में जाता है। ज्ञानी आत्मा को जानने से तीनों गुणों और तीनों लोकों को काकविष्ठा जैसा जान लेता है।



कबीरा मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर।



पीछे पीछे हरि फिरै, कहत कबीर कबीर।।



ज्ञानी का अर्थ है कि जिसके पीछे-पीछे ईश्वर भी घूम ले। भक्त का अर्थ है कि जो भगवान के पीछे घूमे। भोगी का अर्थ है कि जो भोग के पीछे घूमे। भोगी का अर्थ है कि जो भोग के पीछे घूमे। योगी का अर्थ है कि जो दिव्य देह पाने के पीछे घूमे। अभी घूमना बाकी है। साक्षात्कार का अर्थ है कि बस.....



जानना था वो ही जाना, काम क्या बाकी रहा ?



लग गया पूरा निशाना, काम क्या बाकी रहा ?



देह के प्रारब्ध से मिलता है सबको सब कुछ।



नाहक जग को रिझाना, काम क्या बाकी रहा ?



लाख चौरासी के चक्कर से थका, खोली कमर।



अब रहा आराम पाना, काम क्या बाकी रहा ?



साक्षात्कार का मतलब है पूर्ण विश्रान्ति, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण शांति, पूर्ण उपलब्धि ! पूर्ण तो एक परमात्मा है। गुरुकृपा से परमात्मा के सत्यत्व को, परमात्मा के चेतनत्व को, परमात्मा के आनंदत्व को, परमात्मा के अमिट तत्त्व को जानकर अपनी देह के गर्व, अभिमान और अपनी देह की कृति तुच्छ मान के उसमें कर्तृत्वभाव को अलविदा कर देना, इसका नाम है 'साक्षात्कार'। भोग में है तो भोगी भोग से मिलता है। त्याग में है तो त्यागी त्याग करता है। तपस्वी भी लोकांतर में सुख से मिलता है लेकिन साक्षात्कार का अर्थ है कि ईश्वर से ईश्वर से मिले। देवो भूत्वा यजेद् देवम्।



निर्वासनिक हो तुम ईश्वर हो। निश्चिंत हो तो तुम ईश्वर हो। यदि देह की मैल तुम्हारे में नहीं है और तुम अपने को आत्मभाव से प्रकट कर सको तो तुममें और ईश्वर में फर्क नहीं है। यदि देह के साथ जुड़ गये तो तुम्हारे और ईश्वर में बड़ा फासला है। भोग के साथ जुड़ गये, स्वर्ग के साथ जुड़ गये, धन के साथ जुड़ गये, कुछ पाने का साथ जुड़ गये तो भिखारी हो और कुछ पाने की इच्छा नहीं है, अपने आपको, तुमने खो दिया तो समझो साक्षात्कार। साक्षात्कार का अर्थ है कि कहीं भी मस्त न होना –



देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया।



न छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।



खुद पर, अपने आत्मा पर जब चित्त मस्त हो जाय, अपने-आप में जब आप विश्रान्ति पाने लगो, आपके आगे स्वर्ग फीका हो जाये, आपके आगे वैकुंठ फीका हो जाये, आपके आगे प्रधानमंत्री का पद तो क्या होता है, इन्द्र-पद, ब्रह्माजी का पद भी फीका हो जाये तो समझो की साक्षात्कार हो गया।



भक्त लोग ब्रह्म, विष्णु, महेश के लोक में जाते हैं। तपस्वी तप करके स्वर्ग जाते हैं। साक्षात्कार का अर्थ है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश का जो पद है, वह भी तुच्छ भासने लग जाये। इससे बढ़कर साधना की पराकाष्ठा नहीं हो सकती, इससे बढ़कर कोई उपलब्धि नहीं हो सकती। आत्मसाक्षात्कार आखिरी उपलब्धि है।



स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 2,12 अंक 225

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