तरंगे सागर में लीन होने लगती है तो वे अपना तरंगपना छोड़कर जलरूप हो जाती है।
हमारी तमाम वृत्तियों का मूल उदगम्-स्थान.... अधिष्ठान परमात्मा है। 'हम यह शरीरधारी हैं.... हमारा यह नाम है.... हमारी वह जाति है..... हमारे ये सगे-सम्बन्धी हैं.... हम इस जगत में रहते हैं....' ये
तमाम प्रपंच हमारी वृत्तियों के खेल हैं। हमारी वृत्ति अपने मूल
उदगम्-स्थान आनन्दस्वरूप परमात्मा में डूब गई, लीन हो गई तो न यह शरीर है न
उसका कोई नाम है, न उसकी कोई जाति है, न उसके कोई सगे सम्बन्धी हैं और न
कोई जगत ही है। केवल आनंदस्वरूप परमात्मा ही परमात्मा है। वह परमात्मा मैं
हूँ। एक बार यह सत्य आत्मसात हो गया, भली प्रकार निजस्वरूप का बोध हो गया,
फिर चाहे
करोड़ों-करोड़ों वृत्तियाँ उठती रहें, करोड़ों-करोड़ों ब्रह्माण्ड बनते
रहें..... बिगड़ते रहें फिर भी उस बुद्ध पुरुष को कोई हानि नहीं। वह
परिपक्व अवस्था जब तक सिद्ध न हो तब तक आत्मध्यान का अभ्यास करते रहो।
Tuesday, April 9, 2013
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