If you put a gold coin and a candy in front of a child, then he will go after the candy, and not the gold coin. He appears ignorant to you, but in his own eyes he is not ignorant. Though not having knowledge, he is doing things with knowledge. In your eyes you see the gold coin as great, but for a child it does not appear so great.
According to his understanding, there is no taste in the gold coin, but the candy appears sweet; therefore what could he do with that gold coin? According to his knowledge and understanding, he is taking what he considers to be great. Being fully aware, he takes the candy, not out of ignorance. Similarly, you all are also after wealth, sense pleasures, and you consider these to be good, but from the perspective of a wise man, you are simply engaged in sins and moving towards hell, birth and death cycles and suffering. But even on saying so you do not listen. In whatever way possible, simply grab hold of the money and enjoy pleasures
The Self (spirit, consciousness, atma) has oneness with the Universal Consciousness (Paramatma)
Wednesday, June 30, 2010
अपनी शक्ति पर विश्वास
अपनी शक्ति पर विश्वास
अयें मे हस्तो भगवान् अयं मे भगवत्तरः।
जो लोग कठिनतम कार्यो को करने में भी अपने को योग्य मानते हैं व अपनी शक्ति पर विश्वास करते हैं, वे चारों ओर अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेते हैं। जो अपने को असमर्थ मानते हैं, 'मेरी परीक्षा है, मेरे को बड़ा टेंशन है। क्या होगा ? क्या होगा ? क्या होगा ?' तो उनको उनके माँ बाप भी बोलते हैं कि हाँ-हाँ, हमको भी तेरी परीक्षा का टेंशन है। ऐसा मत करो, वैसा मत करो.... इससे बच्चों का मानसिक तनाव और बढ़ जाता है। और फिर कई माँ-बाप तो ऐसे भोले भगत बेचारे कि बच्चों के साथ परीक्षा केन्द्र की जगह पर खुद भी जाकर बैठ जाते हैं। नहीं, परीक्षा हो तो बेटे को, बेटी को कहो कि 'कोई बात नहीं बेटी ! जब तक तेरे पेपर पूरे नहीं होंगे तब तक हम भी टी.वी. नहीं देखेंगे। हम तेरे लिए ऐसा भोजन बनायेंगे जिससे तेरी यादशक्ति बढ़िया हो। परीक्षा ही तो है, और क्या है ! घबराना नहीं। तू ईश्वर का अंश है, बापू का मंत्र तुझे मिला हुआ है। बेटी ! देखना, तू अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होगी। हम तेरे लिए शुभ संकल्प करते हैं। हरि ॐ.... हरि ॐ... ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ऐसा करके उसकी हिम्मत बढ़ायें।
कठिन कार्य करने में भी जो अपने को योग्य मानते हैं, वे जरूर अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करके अपने कार्य में सफल हो जाते है, फिर चाहे दुकान-धंधे-व्यापार का काम हो, विद्यार्थियों की परीक्षा हो, साधना हो, भक्ति हो सब में सफल हो जाते हैं।
अयें मे हस्तो भगवान् अयं मे भगवत्तरः।
जो लोग कठिनतम कार्यो को करने में भी अपने को योग्य मानते हैं व अपनी शक्ति पर विश्वास करते हैं, वे चारों ओर अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेते हैं। जो अपने को असमर्थ मानते हैं, 'मेरी परीक्षा है, मेरे को बड़ा टेंशन है। क्या होगा ? क्या होगा ? क्या होगा ?' तो उनको उनके माँ बाप भी बोलते हैं कि हाँ-हाँ, हमको भी तेरी परीक्षा का टेंशन है। ऐसा मत करो, वैसा मत करो.... इससे बच्चों का मानसिक तनाव और बढ़ जाता है। और फिर कई माँ-बाप तो ऐसे भोले भगत बेचारे कि बच्चों के साथ परीक्षा केन्द्र की जगह पर खुद भी जाकर बैठ जाते हैं। नहीं, परीक्षा हो तो बेटे को, बेटी को कहो कि 'कोई बात नहीं बेटी ! जब तक तेरे पेपर पूरे नहीं होंगे तब तक हम भी टी.वी. नहीं देखेंगे। हम तेरे लिए ऐसा भोजन बनायेंगे जिससे तेरी यादशक्ति बढ़िया हो। परीक्षा ही तो है, और क्या है ! घबराना नहीं। तू ईश्वर का अंश है, बापू का मंत्र तुझे मिला हुआ है। बेटी ! देखना, तू अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होगी। हम तेरे लिए शुभ संकल्प करते हैं। हरि ॐ.... हरि ॐ... ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ऐसा करके उसकी हिम्मत बढ़ायें।
कठिन कार्य करने में भी जो अपने को योग्य मानते हैं, वे जरूर अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करके अपने कार्य में सफल हो जाते है, फिर चाहे दुकान-धंधे-व्यापार का काम हो, विद्यार्थियों की परीक्षा हो, साधना हो, भक्ति हो सब में सफल हो जाते हैं।
प्रेमी के हृदय में जब प्रीति की वृद्धि होती है तो उसकी प्रत्येक प्रवृति में प्रीति आ जाती है।प्रीति कोई ऐसी चीज नहीं है कि आप सब काम-धन्धा छोड़ देंगे,तब प्रेम करेंगे।
हे नाथ! आप तो दीनबन्धु हैं! करुणासागर हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कठोर बन जायँगे?आप तो अकारण ही प्रेमकरनेवाले हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कारण खोजेंगे? हे नाथ! विशेष न तरसाईये! अपनी विरद की तरफ देखकर ही हमें प्रेम-प्रदान कीजिये।इस जीवन को रसमय बना दीजिये।इस हृदय में तो तनिक भी प्रेम नहीं है!
हे नाथ! आप तो दीनबन्धु हैं! करुणासागर हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कठोर बन जायँगे?आप तो अकारण ही प्रेमकरनेवाले हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कारण खोजेंगे? हे नाथ! विशेष न तरसाईये! अपनी विरद की तरफ देखकर ही हमें प्रेम-प्रदान कीजिये।इस जीवन को रसमय बना दीजिये।इस हृदय में तो तनिक भी प्रेम नहीं है!
सच्चे सदगुरु
सच्चे सदगुरु तो तुम्हारे स्वरचित सपनों की धज्जियाँ उड़ा देंगे। अपने मर्मभेदी शब्दों से तुम्हारे अंतःकरण को झकझोर देंगे। वज्र की तरह वे गिरेंगे तुम्हारे ऊपर। तुमको नया रूप देना है, नयी मूर्ति बनाना है, नया जन्म देना है न ! वे तरह-तरह की चोट पहुँचायेगे, तुम्हें तरह-तरह से काटेंगे तभी तो तुम पूजनीय मूर्ति बनोगे। अन्यथा तो निरे पत्थर रह जाओगे। तुम पत्थर न रह जाओ इसीलिए तो तुम्हारे अहंकार को तोड़ना है, भ्रांतियों के जाल को काटना है। तुम्हें नये जन्म के लिए नौ माह के गर्भवास और जन्म लेते समय होने वाली पीड़ा तो सहनी पड़ेगी न ! बीज से वृक्ष बनने के लिए बीज के पिछले रूप को तो सड़ना-गलना पड़ेगा न ! शिष्य के लिए सदगुरु की कृपापूर्ण क्रिया एक शल्यक्रिया के समान है। सदगुरु के चरणों में रहना है तो एक बात मत भूलना – चोट लगेगी, छाती फट जायेगी गुरु के शब्द-बाणों से। खून भी बहेगा। घाव भी होंगे। पीड़ा भी होगी। उस पीड़ा से लाखों जन्मों की पीड़ा मिटती है। पीड़ोद् भवा सिद्धयः। सिद्धियाँ पीड़ा से प्राप्त होती हैं। जो हमारे आत्मा के आत्मा हैं, जो सब कुछ हैं उन्हीं की प्राप्तिरूप सिद्धि मिलेगी।.... लेकिन भैया ! याद रखना, अपने बिना किसी स्वार्थ के अपनी शल्यक्रिया द्वारा कभी-कभी आते हैं इस धरा पर। उन्हीं के द्वारा लोगों का कल्याण होता है बड़ी भारी संख्या में। कई जन्मों के संचित पुण्यों का उदय होने पर भाग्य से अगर इतने करुणावान महापुरुष मिल जायें तो हे मित्र ! प्राण जायें तो जायें, पर भागना मत।
कबीरजी कहते हैं-
शीश दिए सदगुरु मिलें, तो भी सस्ता जान
कबीरजी कहते हैं-
शीश दिए सदगुरु मिलें, तो भी सस्ता जान
Tuesday, June 29, 2010
श्रीमद् भगवदगीता माहात्म्य
श्री गणेशाय नमः
श्रीमद् भगवदगीता माहात्म्य
धरोवाच
भगवन्परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी ।
प्रारब्धं भुज्यमानस्य कथं भवति हे प्रभो ।।1।।
श्री पृथ्वी देवी ने पूछाः
हे भगवन ! हे परमेश्वर ! हे प्रभो ! प्रारब्धकर्म को भोगते हुए मनुष्य को एकनिष्ठ भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है?(1)
श्रीविष्णुरुवाच
प्रारब्धं भुज्यमानो हि गीताभ्यासरतः सदा ।
स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते ।।2।।
श्री विष्णु भगवान बोलेः
प्रारब्ध को भोगता हुआ जो मनुष्य सदा श्रीगीता के अभ्यास में आसक्त हो वही इस लोक में मुक्त और सुखी होता है तथा कर्म में लेपायमान नहीं होता
(2)
महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति चेत् ।
क्वचित्स्पर्शं न कुर्वन्ति नलिनीदलमम्बुवत् ।।3।।
जिस प्रकार कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं करता उसी प्रकार जो मनुष्य श्रीगीता का ध्यान करता है उसे महापापादि पाप कभी स्पर्श नहीं करते
(3)
गीतायाः पुस्तकं यत्र पाठः प्रवर्तते।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र वै।।4।।
जहाँ श्रीगीता की पुस्तक होती है और जहाँ श्रीगीता का पाठ होता है वहाँ प्रयागादि सर्व तीर्थ निवास करते हैं
(4)
सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये।
गोपालबालकृष्णोsपि नारदध्रुवपार्षदैः ।।
सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता प्रवर्तते ।।5।।
जहाँ श्रीगीता प्रवर्तमान है वहाँ सभी देवों, ऋषियों, योगियों, नागों और गोपालबाल श्रीकृष्ण भी नारद, ध्रुव आदि सभी पार्षदों सहित जल्दी ही सहायक होते हैं
(5)
यत्रगीताविचारश्च पठनं पाठनं श्रुतम् ।
तत्राहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि सदैव हि ।।6।।
जहाँ श्री गीता का विचार, पठन, पाठन तथा श्रवण होता है वहाँ हे पृथ्वी ! मैं अवश्य निवास करता हूँ
(6)
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान्पालयाम्यहंम्।।7।।
मैं श्रीगीता के आश्रय में रहता हूँ, श्रीगीता मेरा उत्तम घर है और श्रीगीता के ज्ञान का आश्रय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ
(7)
गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः।
अर्धमात्राक्षरा नित्या स्वनिर्वाच्यपदात्मिका।।8।।
श्रीगीता अति अवर्णनीय पदोंवाली, अविनाशी, अर्धमात्रा तथा अक्षरस्वरूप, नित्य, ब्रह्मरूपिणी और परम श्रेष्ठ मेरी विद्या है इसमें सन्देह नहीं है
(8)
चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता स्वमुखतोऽर्जुनम्।
वेदत्रयी परानन्दा तत्त्वार्थज्ञानसंयुता।।9।।
वह श्रीगीता चिदानन्द श्रीकृष्ण ने अपने मुख से अर्जुन को कही हुई तथा तीनों वेदस्वरूप, परमानन्दस्वरूप तथा तत्त्वरूप पदार्थ के ज्ञान से युक्त है
(9)
योऽष्टादशजपो नित्यं नरो निश्चलमानसः।
ज्ञानसिद्धिं स लभते ततो याति परं पदम्।।10।।
जो मनुष्य स्थिर मन वाला होकर नित्य श्री गीता के 18 अध्यायों का जप-पाठ करता है वह ज्ञानस्थ सिद्धि को प्राप्त होता है और फिर परम पद को पाता है
(10)
ठेऽसमर्थः संपूर्णे ततोऽर्धं पाठमाचरेत्।
तदा गोदानजं पुण्यं लभते नात्र संशयः।।11।।
संपूर्ण पाठ करने में असमर्थ हो तो आधा पाठ करे, तो भी गाय के दान से होने वाले पुण्य को प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं
(11)
त्रिभागं पठमानस्तु गंगास्नानफलं लभेत्।
षडंशं जपमानस्तु सोमयागफलं लभेत्।।12।।
तीसरे भाग का पाठ करे तो गंगास्नान का फल प्राप्त करता है और छठवें भाग का पाठ करे तो सोमयाग का फल पाता है
(12)
एकाध्यायं तु यो नित्यं पठते भक्तिसंयुतः।
रूद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम।।13।।
जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर नित्य एक अध्याय का भी पाठ करता है, वह रुद्रलोक को प्राप्त होता है और वहाँ शिवजी का गण बनकर चिरकाल तक निवास करता है
(13)
अध्याये श्लोकपादं वा नित्यं यः पठते नरः।
स याति नरतां यावन्मन्वन्तरं वसुन्धरे।।14।।
हे पृथ्वी ! जो मनुष्य नित्य एक अध्याय एक श्लोक अथवा श्लोक के एक चरण का पाठ करता है वह मन्वंतर तक मनुष्यता को प्राप्त करता है
(14)
गीताया श्लोकदशकं सप्त पंच चतुष्टयम्।
द्वौ त्रीनेकं तदर्धं वा श्लोकानां यः पठेन्नरः।।15।।
चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं ध्रुवम्।
गीतापाठसमायुक्तो मृतो मानुषतां व्रजेत्।।16।।
जो मनुष्य गीता के दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे श्लोक का पाठ करता है वह अवश्य दस हजार वर्ष तक चन्द्रलोक को प्राप्त होता है
गीता के पाठ में लगे हुए मनुष्य की अगर मृत्यु होती है तो वह (पशु आदि की अधम योनियों में न जाकर) पुनः मनुष्य जन्म पाता है
(15,16)
गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम्।
गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमाणो गतिं लभेत्।।17।।
(और वहाँ) गीता का पुनः अभ्यास करके उत्तम मुक्ति को पाता है
'गीता' ऐसे उच्चार के साथ जो मरता है वह सदगति को पाता है
गीतार्थश्रवणासक्तो महापापयुतोऽपि वा।
वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णुना सह मोदते।।18।।
गीता का अर्थ तत्पर सुनने में तत्पर बना हुआ मनुष्य महापापी हो तो भी वह वैकुण्ठ को प्राप्त होता है और विष्णु के साथ आनन्द करता है
(18)
गीतार्थं ध्यायते नित्यं कृत्वा कर्माणि भूरिशः।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो देहांते परमं पदम्।।19।।
अनेक कर्म करके नित्य श्री गीता के अर्थ का जो विचार करता है उसे जीवन्मुक्त जानो
मृत्यु के बाद वह परम पद को पाता है
(19)
गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः।
निर्धूतकल्मषा लोके गीता याताः परं पदम्।।20।।
गीता का आश्रय करके जनक आदि कई राजा पाप रहित होकर लोक में यशस्वी बने हैं और परम पद को प्राप्त हुए हैं
(20)
गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत्।
वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव ह्युदाहृतः।।21।।
श्रीगीता का पाठ करके जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसका पाठ निष्फल होता है और ऐसे पाठ को श्रमरूप कहा है
(21)
एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीताभ्यासं करोति यः।
स तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां गतिमाप्नुयात्।।22।।
इस माहात्म्यसहित श्रीगीता का जो अभ्यास करता है वह उसका फल पाता है और दुर्लभ गति को प्राप्त होता है
(22)
सूत उवाच
माहात्म्यमेतद् गीताया मया प्रोक्तं सनातनम्।
गीतान्ते पठेद्यस्तु यदुक्तं तत्फलं लभेत्।।23।।
सूत जी बोलेः
गीता का यह सनातन माहात्म्य मैंने कहा
गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है वह उपर्युक्त फल प्राप्त करता है
(23)
इति श्रीवाराहपुराणे श्रीमद् गीतामाहात्म्यं संपूर्णम्।
इति श्रीवाराहपुराण में श्रीमद् गीता माहात्म्य संपूर्ण।।
श्रीमद् भगवदगीता माहात्म्य
धरोवाच
भगवन्परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी ।
प्रारब्धं भुज्यमानस्य कथं भवति हे प्रभो ।।1।।
श्री पृथ्वी देवी ने पूछाः
हे भगवन ! हे परमेश्वर ! हे प्रभो ! प्रारब्धकर्म को भोगते हुए मनुष्य को एकनिष्ठ भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है?(1)
श्रीविष्णुरुवाच
प्रारब्धं भुज्यमानो हि गीताभ्यासरतः सदा ।
स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते ।।2।।
श्री विष्णु भगवान बोलेः
प्रारब्ध को भोगता हुआ जो मनुष्य सदा श्रीगीता के अभ्यास में आसक्त हो वही इस लोक में मुक्त और सुखी होता है तथा कर्म में लेपायमान नहीं होता
(2)
महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति चेत् ।
क्वचित्स्पर्शं न कुर्वन्ति नलिनीदलमम्बुवत् ।।3।।
जिस प्रकार कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं करता उसी प्रकार जो मनुष्य श्रीगीता का ध्यान करता है उसे महापापादि पाप कभी स्पर्श नहीं करते
(3)
गीतायाः पुस्तकं यत्र पाठः प्रवर्तते।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र वै।।4।।
जहाँ श्रीगीता की पुस्तक होती है और जहाँ श्रीगीता का पाठ होता है वहाँ प्रयागादि सर्व तीर्थ निवास करते हैं
(4)
सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये।
गोपालबालकृष्णोsपि नारदध्रुवपार्षदैः ।।
सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता प्रवर्तते ।।5।।
जहाँ श्रीगीता प्रवर्तमान है वहाँ सभी देवों, ऋषियों, योगियों, नागों और गोपालबाल श्रीकृष्ण भी नारद, ध्रुव आदि सभी पार्षदों सहित जल्दी ही सहायक होते हैं
(5)
यत्रगीताविचारश्च पठनं पाठनं श्रुतम् ।
तत्राहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि सदैव हि ।।6।।
जहाँ श्री गीता का विचार, पठन, पाठन तथा श्रवण होता है वहाँ हे पृथ्वी ! मैं अवश्य निवास करता हूँ
(6)
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान्पालयाम्यहंम्।।7।।
मैं श्रीगीता के आश्रय में रहता हूँ, श्रीगीता मेरा उत्तम घर है और श्रीगीता के ज्ञान का आश्रय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ
(7)
गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः।
अर्धमात्राक्षरा नित्या स्वनिर्वाच्यपदात्मिका।।8।।
श्रीगीता अति अवर्णनीय पदोंवाली, अविनाशी, अर्धमात्रा तथा अक्षरस्वरूप, नित्य, ब्रह्मरूपिणी और परम श्रेष्ठ मेरी विद्या है इसमें सन्देह नहीं है
(8)
चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता स्वमुखतोऽर्जुनम्।
वेदत्रयी परानन्दा तत्त्वार्थज्ञानसंयुता।।9।।
वह श्रीगीता चिदानन्द श्रीकृष्ण ने अपने मुख से अर्जुन को कही हुई तथा तीनों वेदस्वरूप, परमानन्दस्वरूप तथा तत्त्वरूप पदार्थ के ज्ञान से युक्त है
(9)
योऽष्टादशजपो नित्यं नरो निश्चलमानसः।
ज्ञानसिद्धिं स लभते ततो याति परं पदम्।।10।।
जो मनुष्य स्थिर मन वाला होकर नित्य श्री गीता के 18 अध्यायों का जप-पाठ करता है वह ज्ञानस्थ सिद्धि को प्राप्त होता है और फिर परम पद को पाता है
(10)
ठेऽसमर्थः संपूर्णे ततोऽर्धं पाठमाचरेत्।
तदा गोदानजं पुण्यं लभते नात्र संशयः।।11।।
संपूर्ण पाठ करने में असमर्थ हो तो आधा पाठ करे, तो भी गाय के दान से होने वाले पुण्य को प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं
(11)
त्रिभागं पठमानस्तु गंगास्नानफलं लभेत्।
षडंशं जपमानस्तु सोमयागफलं लभेत्।।12।।
तीसरे भाग का पाठ करे तो गंगास्नान का फल प्राप्त करता है और छठवें भाग का पाठ करे तो सोमयाग का फल पाता है
(12)
एकाध्यायं तु यो नित्यं पठते भक्तिसंयुतः।
रूद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम।।13।।
जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर नित्य एक अध्याय का भी पाठ करता है, वह रुद्रलोक को प्राप्त होता है और वहाँ शिवजी का गण बनकर चिरकाल तक निवास करता है
(13)
अध्याये श्लोकपादं वा नित्यं यः पठते नरः।
स याति नरतां यावन्मन्वन्तरं वसुन्धरे।।14।।
हे पृथ्वी ! जो मनुष्य नित्य एक अध्याय एक श्लोक अथवा श्लोक के एक चरण का पाठ करता है वह मन्वंतर तक मनुष्यता को प्राप्त करता है
(14)
गीताया श्लोकदशकं सप्त पंच चतुष्टयम्।
द्वौ त्रीनेकं तदर्धं वा श्लोकानां यः पठेन्नरः।।15।।
चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं ध्रुवम्।
गीतापाठसमायुक्तो मृतो मानुषतां व्रजेत्।।16।।
जो मनुष्य गीता के दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे श्लोक का पाठ करता है वह अवश्य दस हजार वर्ष तक चन्द्रलोक को प्राप्त होता है
गीता के पाठ में लगे हुए मनुष्य की अगर मृत्यु होती है तो वह (पशु आदि की अधम योनियों में न जाकर) पुनः मनुष्य जन्म पाता है
(15,16)
गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम्।
गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमाणो गतिं लभेत्।।17।।
(और वहाँ) गीता का पुनः अभ्यास करके उत्तम मुक्ति को पाता है
'गीता' ऐसे उच्चार के साथ जो मरता है वह सदगति को पाता है
गीतार्थश्रवणासक्तो महापापयुतोऽपि वा।
वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णुना सह मोदते।।18।।
गीता का अर्थ तत्पर सुनने में तत्पर बना हुआ मनुष्य महापापी हो तो भी वह वैकुण्ठ को प्राप्त होता है और विष्णु के साथ आनन्द करता है
(18)
गीतार्थं ध्यायते नित्यं कृत्वा कर्माणि भूरिशः।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो देहांते परमं पदम्।।19।।
अनेक कर्म करके नित्य श्री गीता के अर्थ का जो विचार करता है उसे जीवन्मुक्त जानो
मृत्यु के बाद वह परम पद को पाता है
(19)
गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः।
निर्धूतकल्मषा लोके गीता याताः परं पदम्।।20।।
गीता का आश्रय करके जनक आदि कई राजा पाप रहित होकर लोक में यशस्वी बने हैं और परम पद को प्राप्त हुए हैं
(20)
गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत्।
वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव ह्युदाहृतः।।21।।
श्रीगीता का पाठ करके जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसका पाठ निष्फल होता है और ऐसे पाठ को श्रमरूप कहा है
(21)
एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीताभ्यासं करोति यः।
स तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां गतिमाप्नुयात्।।22।।
इस माहात्म्यसहित श्रीगीता का जो अभ्यास करता है वह उसका फल पाता है और दुर्लभ गति को प्राप्त होता है
(22)
सूत उवाच
माहात्म्यमेतद् गीताया मया प्रोक्तं सनातनम्।
गीतान्ते पठेद्यस्तु यदुक्तं तत्फलं लभेत्।।23।।
सूत जी बोलेः
गीता का यह सनातन माहात्म्य मैंने कहा
गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है वह उपर्युक्त फल प्राप्त करता है
(23)
इति श्रीवाराहपुराणे श्रीमद् गीतामाहात्म्यं संपूर्णम्।
इति श्रीवाराहपुराण में श्रीमद् गीता माहात्म्य संपूर्ण।।
we wish
What is having a need, a desire mean? Need is when , what we say must be accepted, whatever we wish must happen. If man gives up having a need, then he can become the crown jewel! He can become divine just like God! God fulfills every ones wishes, what is anyone going to fulfill God's wants? He has no wants at all. We all can be in that extra-ordinary state. We only need to give up our intentions, our resolves. By not giving up our intentions, our resolves will not be fulfilled. Those intentions that get fulfilled, will be fulfilled in spite of renouncing them. Things will take place according to that which is ordained by God. "Ram keenh chaahin soyi hoyi . Karai anyathaa as nahin koyi." (Manas 1/128/1)
Monday, June 28, 2010
The world is not your home, You are to live here for a few days only, Recollect about your own kingdom, Where you are the unchallenged master.’
मनुष्य जन्म दुर्लभ है, बार-बार नहीं मिलेगा। 'अबके बिछड़े कब मिलेंगे, जाय पड़ेंगे दूर।' बड़े में बड़ा दुःख है जन्म-मृत्यु का और बड़े में बड़ा सुख है मुक्ति का। ऐ प्यारे ! आज ही शुद्ध संकल्प करो कि इसी जन्म में हम मोक्ष प्राप्त करेंगे।
मनुष्य जन्म दुर्लभ है, बार-बार नहीं मिलेगा। 'अबके बिछड़े कब मिलेंगे, जाय पड़ेंगे दूर।' बड़े में बड़ा दुःख है जन्म-मृत्यु का और बड़े में बड़ा सुख है मुक्ति का। ऐ प्यारे ! आज ही शुद्ध संकल्प करो कि इसी जन्म में हम मोक्ष प्राप्त करेंगे।
आज तक आपने जगत का जो कुछ जाना है, जो कुछ प्राप्त किया है.... आज के बाद जो जानोगे और प्राप्त करोगे, प्यारे भैया ! वह सब मृत्यु के एक ही झटके में छूट जाएगा, जाना अनजाना हो जायेगा, प्राप्ति अप्राप्ति में बदल जायेगी। अतः सावधान हो जाओ। अन्तर्मुख होकर अपने अविचल आत्मा को, निजस्वरूप के अगाध आनन्द को, शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर लो। फिर तो आप ही अविनाशी आत्मा हो।
Sunday, June 13, 2010
हे विद्यार्थी ! सफलता के ये आठ स्वर्णिम सूत्र तुझे महान बना देंगे । --परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू
--१--
कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तु गोविंद: प्रभाते करदर्शनम् ॥
हर रोज प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठना, ईश्वर का ध्यान और 'कर दर्शन' करके बिस्तर छोड़ना तथा सूर्योदय से पूर्व स्नान करना ।
--२--
अपनी सुषुप्त शक्तियाँ जगाने एवं एकाग्रता के विकास के लिए नियमित रूप से गुरुमंत्र का जप , ईश्वर का ध्यान और त्राटक करना ।
--३--
बुद्धि शक्ति के विकास एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हर रोज प्रातः सूर्य को अर्घ्य देना , सूर्य नमस्कार एवं आसन करना ।
--४--
स्मरण शक्ति के विकास के लिए नियमित रूप से भ्रामरी प्राणायाम करना एवं तुलसी के ५-७ पत्ते खाकर एक गिलास पानी पीना ।
--५--
माता -पिता एवं गुरुजनों को प्रणाम करना । इससे जीवन में आयु, विद्या, यश, व बल की वृद्धि होती है ।
--६--
महान बनने का दृढ़ संकल्प करना तथा उसे हर रोज दोहराना, ख़राब संगति एवं व्यसनों का दृढ़तापूर्वक त्याग कर अच्छे मित्रों की संगति करना तथा चुस्तता से ब्रह्मचर्य का पालन करना ।
--७--
समय का सदुपयोग करना, एकाग्रता से विद्या-अध्ययन करना और मिले हुए ग्रहकार्य को हर रोज नियमित रूप से पूरा करना ।
--८--
हर रोज सोने से पूर्व पूरे दिन की परिचर्या का सिंहावलोकन करना और गलतियों को फिर न दोहराने का संकल्प करना, तत्पश्चात ईश्वर का ध्यान करते हुए सोना
--१--
कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तु गोविंद: प्रभाते करदर्शनम् ॥
हर रोज प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठना, ईश्वर का ध्यान और 'कर दर्शन' करके बिस्तर छोड़ना तथा सूर्योदय से पूर्व स्नान करना ।
--२--
अपनी सुषुप्त शक्तियाँ जगाने एवं एकाग्रता के विकास के लिए नियमित रूप से गुरुमंत्र का जप , ईश्वर का ध्यान और त्राटक करना ।
--३--
बुद्धि शक्ति के विकास एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हर रोज प्रातः सूर्य को अर्घ्य देना , सूर्य नमस्कार एवं आसन करना ।
--४--
स्मरण शक्ति के विकास के लिए नियमित रूप से भ्रामरी प्राणायाम करना एवं तुलसी के ५-७ पत्ते खाकर एक गिलास पानी पीना ।
--५--
माता -पिता एवं गुरुजनों को प्रणाम करना । इससे जीवन में आयु, विद्या, यश, व बल की वृद्धि होती है ।
--६--
महान बनने का दृढ़ संकल्प करना तथा उसे हर रोज दोहराना, ख़राब संगति एवं व्यसनों का दृढ़तापूर्वक त्याग कर अच्छे मित्रों की संगति करना तथा चुस्तता से ब्रह्मचर्य का पालन करना ।
--७--
समय का सदुपयोग करना, एकाग्रता से विद्या-अध्ययन करना और मिले हुए ग्रहकार्य को हर रोज नियमित रूप से पूरा करना ।
--८--
हर रोज सोने से पूर्व पूरे दिन की परिचर्या का सिंहावलोकन करना और गलतियों को फिर न दोहराने का संकल्प करना, तत्पश्चात ईश्वर का ध्यान करते हुए सोना
Saturday, June 12, 2010
जैसे स्नेहमयी जननीका वक्ष:स्थल शिशुके लिये सदा ही
खुला रहता है,वैसे ही भगवान् तुम्हें बड़े प्यारसे अपने हृदयसे चिपटानेको तैयार
मिलेंगे।इतनेपर भी जो जीव उनकी ओरसे मुख मोड़े रहनेमें ही अपना गौरव मानता है;उसके
समान अभागा और कोई नहीं है।सारे पाप-ताप सदा उसके सामने मुँह बाये खड़े रहते हैं और
वह अपने जीवनमें किसी भी स्थितिमें क...भी भी सच्ची स...ुख-शान्तिका साक्
भयंकर से भयंकर परिस्थिति आ जाय,तब भी कह दो-"आओ मेरे प्यारे!आओ,आओ,आओ।तुम कोई और नहीं हो।मैं तुम्हें जानता हूँ।तुमने मेरे लिये आवश्यक समझा होगा कि मैं दु:ख के वेश में आऊँ,इसलिये तुम दु:ख के वेश में आये हो।स्वागतम्!वैलकम्! आओ आओ चले आओ!" आप देखेंगे कि वह प्रतिकूलता आपके लिये इतनी उपयोगी सिद्ध होगी कि जिस पर अनेकों अनुकूलत...ायें निछावर की जा सकती है।
खुला रहता है,वैसे ही भगवान् तुम्हें बड़े प्यारसे अपने हृदयसे चिपटानेको तैयार
मिलेंगे।इतनेपर भी जो जीव उनकी ओरसे मुख मोड़े रहनेमें ही अपना गौरव मानता है;उसके
समान अभागा और कोई नहीं है।सारे पाप-ताप सदा उसके सामने मुँह बाये खड़े रहते हैं और
वह अपने जीवनमें किसी भी स्थितिमें क...भी भी सच्ची स...ुख-शान्तिका साक्
भयंकर से भयंकर परिस्थिति आ जाय,तब भी कह दो-"आओ मेरे प्यारे!आओ,आओ,आओ।तुम कोई और नहीं हो।मैं तुम्हें जानता हूँ।तुमने मेरे लिये आवश्यक समझा होगा कि मैं दु:ख के वेश में आऊँ,इसलिये तुम दु:ख के वेश में आये हो।स्वागतम्!वैलकम्! आओ आओ चले आओ!" आप देखेंगे कि वह प्रतिकूलता आपके लिये इतनी उपयोगी सिद्ध होगी कि जिस पर अनेकों अनुकूलत...ायें निछावर की जा सकती है।
Tuesday, June 1, 2010
जगत का सब ऐश्वर्य भोगने को मिल जाय परन्तु अपने आत्मा-परमात्मा का ज्ञान नहीं मिला तो अंत में इस जीवात्मा का सर्वस्व छिन जाता है। जिनके पास आत्मज्ञान नहीं है और दूसरा भले सब कुछ हो परन्तु वह सब नश्वर है । उसका शरीर भी नश्वर है ।वशिष्ठजी कहते हैः
किसी को स्वर्ग का ऐश्वर्य मिले और आत्मज्ञान न मिले तो वह आदमी अभागा है । बाहर का ऐश्वर्य मिले चाहे न मिले, अपितु ऐसी कोई कठिनाई हो कि चंडाल के घर की भिक्षा ठीकरे में खाकर जीना पड़े फिर भी जहाँ आत्मज्ञान मिलता हो उसी देश में रहना चाहिए, उसी वातावरण में अपने चित्त को परमात्मा में लगाना चाहिए । आत्मज्ञान में तत्पर मनुष्य ही अपने आपका मित्र है । जो अपना उद्धार
जो अपना उद्धार करने के रास्ते नहीं चलता वह मनुष्य शरीर में दो पैर वाला पशु माना गया है।"तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कहा हैःजिन्ह हरि कथा सुनी नहीं काना।श्रवण रंध्र अहि भवन समाना
किसी को स्वर्ग का ऐश्वर्य मिले और आत्मज्ञान न मिले तो वह आदमी अभागा है । बाहर का ऐश्वर्य मिले चाहे न मिले, अपितु ऐसी कोई कठिनाई हो कि चंडाल के घर की भिक्षा ठीकरे में खाकर जीना पड़े फिर भी जहाँ आत्मज्ञान मिलता हो उसी देश में रहना चाहिए, उसी वातावरण में अपने चित्त को परमात्मा में लगाना चाहिए । आत्मज्ञान में तत्पर मनुष्य ही अपने आपका मित्र है । जो अपना उद्धार
जो अपना उद्धार करने के रास्ते नहीं चलता वह मनुष्य शरीर में दो पैर वाला पशु माना गया है।"तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कहा हैःजिन्ह हरि कथा सुनी नहीं काना।श्रवण रंध्र अहि भवन समाना
Subscribe to:
Posts (Atom)