वर्तमान युग का एक बालक बचपन में देर रात तक अपने पिताश्री के चरण दबाता था। उसके पिता जी उसे बार-बार कहते - बेटा! अब सो जाओ। बहुत रात हो गयी है। फिर भी वह प्रेम पूर्वक आग्रह करते हुए सेवा में लगा रहता था। उसके पूज्य पिता अपने पुत्र की अथक सेवा से प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद देते -
पुत्र तुम्हारा जगत में, सदा रहेगा नाम। लोगों के तुमसे सदा, पूरण होंगे काम।
अपनी माताश्री की भी उसने उनके जीवन के आखिरी क्षण तक खूब सेवा की।
युवावस्था प्राप्त होने पर उस बालक भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण की भांति गुरू के श्रीचरणों में खूब आदर प्रेम रखते हुए सेवा तपोमय जीवन बिताया। गुरूद्वार पर सहे वे कसौटी-दुःख उसके लिए आखिर परम सुख के दाता साबित हुए। आज वही बालक महान संत के रूप में विश्ववंदनीय होकर करोड़ों-करोड़ों लोगों के द्वारा पूजित हो रहा है। ये महापुरूष अपने सत्संग में यदा-कदा अपने गुरूद्वार के जीवन प्रसंगों का जिक्र करके कबीरजी का यह दोहा दोहराते हैं -
गुरू के सम्मुख जाये के सहे कसौटी दुःख। कह कबीर ता दुःख पर कोटि वारूँ सुख।।
सदगुरू जैसा परम हितैषी संसार में दूसरा कोई नहीं है। आचार्यदेवो भव, यह शास्त्र-वचन मात्र वचन नहीं है। यह सभी महापुरूषों का अपना अनुभव है।
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। यह सूत्र इन महापुरूष के जीवन में मूर्तिमान बनकर प्रकाशित हो रहा है और इसी की फलसिद्धि है कि इनकी पूजनीया माताश्री व सदगुरूदेव - दोनों ने अंतिम क्षणों में अपना शीश अपने प्रिय पुत्र व शिष्य की गोद में रखना पसंद किया। खोजो तो उस बालक का नाम जिसने मातृ-पितृ-गुरू भक्ति की ऐसी पावन मिसाल कायम की।
पुत्र तुम्हारा जगत में, सदा रहेगा नाम। लोगों के तुमसे सदा, पूरण होंगे काम।
अपनी माताश्री की भी उसने उनके जीवन के आखिरी क्षण तक खूब सेवा की।
युवावस्था प्राप्त होने पर उस बालक भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण की भांति गुरू के श्रीचरणों में खूब आदर प्रेम रखते हुए सेवा तपोमय जीवन बिताया। गुरूद्वार पर सहे वे कसौटी-दुःख उसके लिए आखिर परम सुख के दाता साबित हुए। आज वही बालक महान संत के रूप में विश्ववंदनीय होकर करोड़ों-करोड़ों लोगों के द्वारा पूजित हो रहा है। ये महापुरूष अपने सत्संग में यदा-कदा अपने गुरूद्वार के जीवन प्रसंगों का जिक्र करके कबीरजी का यह दोहा दोहराते हैं -
गुरू के सम्मुख जाये के सहे कसौटी दुःख। कह कबीर ता दुःख पर कोटि वारूँ सुख।।
सदगुरू जैसा परम हितैषी संसार में दूसरा कोई नहीं है। आचार्यदेवो भव, यह शास्त्र-वचन मात्र वचन नहीं है। यह सभी महापुरूषों का अपना अनुभव है।
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। यह सूत्र इन महापुरूष के जीवन में मूर्तिमान बनकर प्रकाशित हो रहा है और इसी की फलसिद्धि है कि इनकी पूजनीया माताश्री व सदगुरूदेव - दोनों ने अंतिम क्षणों में अपना शीश अपने प्रिय पुत्र व शिष्य की गोद में रखना पसंद किया। खोजो तो उस बालक का नाम जिसने मातृ-पितृ-गुरू भक्ति की ऐसी पावन मिसाल कायम की।
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