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Monday, February 14, 2011

जया एकादशी

युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा : भगवन् ! कृपा करके यह बताइये कि माघ मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है, उसकी विधि क्या है तथा उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ?



भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजेन्द्र ! माघ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका नाम जयाहै वह सब पापों को हरनेवाली उत्तम तिथि है पवित्र होने के साथ ही पापों का नाश करनेवाली तथा मनुष्यों को भाग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है इतना ही नहीं , वह ब्रह्महत्या जैसे पाप तथा पिशाचत्व का भी विनाश करनेवाली है इसका व्रत करने पर मनुष्यों को कभी प्रेतयोनि में नहीं जाना पड़ता इसलिए राजन् ! प्रयत्नपूर्वक जयानाम की एकादशी का व्रत करना चाहिए



एक समय की बात है स्वर्गलोक में देवराज इन्द्र राज्य करते थे देवगण पारिजात वृक्षों से युक्त नंदनवन में अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे पचास करोड़ गन्धर्वों के नायक देवराज इन्द्र ने स्वेच्छानुसार वन में विहार करते हुए बड़े हर्ष के साथ नृत्य का आयोजन किया गन्धर्व उसमें गान कर रहे थे, जिनमें पुष्पदन्त, चित्रसेन तथा उसका पुत्र - ये तीन प्रधान थे चित्रसेन की स्त्री का नाम मालिनी था मालिनी से एक कन्या उत्पन्न हुई थी, जो पुष्पवन्ती के नाम से विख्यात थी पुष्पदन्त गन्धर्व का एक पुत्र था, जिसको लोग माल्यवान कहते थे माल्यवान पुष्पवन्ती के रुप पर अत्यन्त मोहित था ये दोनों भी इन्द्र के संतोषार्थ नृत्य करने के लिए आये थे इन दोनों का गान हो रहा था इनके साथ अप्सराएँ भी थीं परस्पर अनुराग के कारण ये दोनों मोह के वशीभूत हो गये चित्त में भ्रान्ति गयी इसलिए वे शुद्ध गान गा सके कभी ताल भंग हो जाता था तो कभी गीत बंद हो जाता था इन्द्र ने इस प्रमाद पर विचार किया और इसे अपना अपमान समझकर वे कुपित हो गये



अत: इन दोनों को शाप देते हुए बोले : मूर्खो ! तुम दोनों को धिक्कार है ! तुम लोग पतित और मेरी आज्ञाभंग करनेवाले हो, अत: पति पत्नी के रुप में रहते हुए पिशाच हो जाओ



इन्द्र के इस प्रकार शाप देने पर इन दोनों के मन में बड़ा दु: हुआ वे हिमालय पर्वत पर चले गये और पिशाचयोनि को पाकर भयंकर दु: भोगने लगे शारीरिक पातक से उत्पन्न ताप से पीड़ित होकर दोनों ही पर्वत की कन्दराओं में विचरते रहते थे एक दिन पिशाच ने अपनी पत्नी पिशाची से कहा : हमने कौन सा पाप किया है, जिससे यह पिशाचयोनि प्राप्त हुई है ? नरक का कष्ट अत्यन्त भयंकर है तथा पिशाचयोनि भी बहुत दु: देनेवाली है अत: पूर्ण प्रयत्न करके पाप से बचना चाहिए



इस प्रकार चिन्तामग्न होकर वे दोनों दु: के कारण सूखते जा रहे थे दैवयोग से उन्हें माघ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी की तिथि प्राप्त हो गयी जयानाम से विख्यात वह तिथि सब तिथियों में उत्तम है उस दिन उन दोनों ने सब प्रकार के आहार त्याग दिये, जल पान तक नहीं किया किसी जीव की हिंसा नहीं की, यहाँ तक कि खाने के लिए फल तक नहीं काटा निरन्तर दु: से युक्त होकर वे एक पीपल के समीप बैठे रहे सूर्यास्त हो गया उनके प्राण हर लेने वाली भयंकर रात्रि उपस्थित हुई उन्हें नींद नहीं आयी वे रति या और कोई सुख भी नहीं पा सके



सूर्यादय हुआ, द्वादशी का दिन आया इस प्रकार उस पिशाच दंपति के द्वारा जयाके उत्तम व्रत का पालन हो गया उन्होंने रात में जागरण भी किया था उस व्रत के प्रभाव से तथा भगवान विष्णु की शक्ति से उन दोनों का पिशाचत्व दूर हो गया पुष्पवन्ती और माल्यवान अपने पूर्वरुप में गये उनके हृदय में वही पुराना स्नेह उमड़ रहा था उनके शरीर पर पहले जैसे ही अलंकार शोभा पा रहे थे



वे दोनों मनोहर रुप धारण करके विमान पर बैठे और स्वर्गलोक में चले गये वहाँ देवराज इन्द्र के सामने जाकर दोनों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें प्रणाम किया



उन्हें इस रुप में उपस्थित देखकर इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ ! उन्होंने पूछा: बताओ, किस पुण्य के प्रभाव से तुम दोनों का पिशाचत्व दूर हुआ है? तुम मेरे शाप को प्राप्त हो चुके थे, फिर किस देवता ने तुम्हें उससे छुटकारा दिलाया है?’



माल्यवान बोला : स्वामिन् ! भगवान वासुदेव की कृपा तथा जयानामक एकादशी के व्रत से हमारा पिशाचत्व दूर हुआ है



इन्द्र ने कहा : तो अब तुम दोनों मेरे कहने से सुधापान करो जो लोग एकादशी के व्रत में तत्पर और भगवान श्रीकृष्ण के शरणागत होते हैं, वे हमारे भी पूजनीय होते हैं



भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! इस कारण एकादशी का व्रत करना चाहिए नृपश्रेष्ठ ! जयाब्रह्महत्या का पाप भी दूर करनेवाली है जिसने जयाका व्रत किया है, उसने सब प्रकार के दान दे दिये और सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया इस माहात्म्य के पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है

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