तरंगे सागर में लीन होने लगती है तो वे अपना तरंगपना छोड़कर जलरूप हो जाती है।
हमारी तमाम वृत्तियों का मूल उदगम्-स्थान.... अधिष्ठान परमात्मा है। 'हम यह शरीरधारी हैं.... हमारा यह नाम है.... हमारी वह जाति है..... हमारे ये सगे-सम्बन्धी हैं.... हम इस जगत में रहते हैं....' ये
तमाम प्रपंच हमारी वृत्तियों के खेल हैं। हमारी वृत्ति अपने मूल
उदगम्-स्थान आनन्दस्वरूप परमात्मा में डूब गई, लीन हो गई तो न यह शरीर है न
उसका कोई नाम है, न उसकी कोई जाति है, न उसके कोई सगे सम्बन्धी हैं और न
कोई जगत ही है। केवल आनंदस्वरूप परमात्मा ही परमात्मा है। वह परमात्मा मैं
हूँ। एक बार यह सत्य आत्मसात हो गया, भली प्रकार निजस्वरूप का बोध हो गया,
फिर चाहे
करोड़ों-करोड़ों वृत्तियाँ उठती रहें, करोड़ों-करोड़ों ब्रह्माण्ड बनते
रहें..... बिगड़ते रहें फिर भी उस बुद्ध पुरुष को कोई हानि नहीं। वह
परिपक्व अवस्था जब तक सिद्ध न हो तब तक आत्मध्यान का अभ्यास करते रहो।
Tuesday, April 9, 2013
संयम-व्यवहार
ʹʹजिन व्यक्तियों के जीवन में संयम-व्यवहार नहीं है, वे न तो स्वयं की ठीक
से उन्नति कर पाते हैं और न ही समाज में कोई महान कार्य कर पाते हैं।
भौतिकता की विलासिता और अहंकार उनको ले डूबता है। वे रावण और कंस की
परम्परा में जा डूबते हैं। ऐसे व्यक्तियों से बना हुआ समाज और देश भी सच्ची
सुख-शांति व आध्यात्मिक उन्नति में पिछड़ जाता है।
हे भारत के विद्यार्थियो ! तुम संयम-सदाचारयुक्त जीवन जीकर अपना जीवन तो समुन्नत करो ही, साथ ही देश की उन्नति के लिए भी प्रयत्नशील रहो। वही सफल होता है जो आत्म-उन्नति करना जानता है। अपनी संस्कृति पर कुठाराघात करने वाले कुचालों से सावधान रहो और अपनी संस्कृति की गरिमा बढ़ाओ। इसी में तुम्हारा व परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवता का हित निहित है।"
हे भारत के विद्यार्थियो ! तुम संयम-सदाचारयुक्त जीवन जीकर अपना जीवन तो समुन्नत करो ही, साथ ही देश की उन्नति के लिए भी प्रयत्नशील रहो। वही सफल होता है जो आत्म-उन्नति करना जानता है। अपनी संस्कृति पर कुठाराघात करने वाले कुचालों से सावधान रहो और अपनी संस्कृति की गरिमा बढ़ाओ। इसी में तुम्हारा व परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवता का हित निहित है।"
अगर दिल नहीं खुला
सच्चे और निष्कपट भाव से प्रभु की आराधना करना भक्ति है। उस समय प्रभु के प्रति प्रबल प्रेम का भाव आने लगता है। भक्ति का संबंध दिल से है।
योग साधना मन और बुद्धि को तेज व निर्मल बनाने और दिल को खोलने की
प्रक्रिया है। कर्मयोग हमारे शारीरिक और मानसिक कर्मों की सफाई के लिए है,
ज्ञानयोग से बुद्धि तेज होती है और भक्तियोग भाव को शुद्ध करने की
प्रक्रिया है।
अगर दिल नहीं खुला तो ज्ञानयोग भी केवल शब्द मात्र रह जाता है, जो कभी अहंकार को शुद्ध नहीं कर सकेगा। लेकिन जब ज्ञानयोग जीवन में उतरने लगता है, तब साधक भक्त कहलाता है। गुरु, शिष्य के दिल को ही खोलने की कोशिश करता है, जिससे शक्ति का प्रवाह ऊपर की तरफ होने लगे और साधक चेतना की उच्च अवस्था में पहुंच जाए।
श्रद्धा
जिसको आपने देखा नहीं उसमें विश्वास करना होता है। विश्वास हो तो बिल्कुल
अन्धा हो और विचार करो तो बिल्कुल निष्ठुर, तर्कयुक्त, तीक्षण, तलवार की
धार जैसा। उसमें फिर कोई पक्षपात नहीं।
श्रद्धा करो तो अन्धी करो । काम करो तो मशीन होकर करो, बिल्कुल व्यवस्थित, क्षति रहित। विश्वास करो तो बस.... धन्ना जाट की नाँईं। आत्मविचार करो तो बिल्कुल तटस्थ।
लोग श्रद्धा करने की जगह पर विचार करते हैं, तर्क लड़ाते हैं और आत्म विचार की जगह पर श्रद्धा करते हैं। अपनी 'मैं' के विषय में विचार चाहिए और भगवान को मानने में विश्वास चाहिए। वस्तु का उपयोग करने में तटस्थता चाहिए। ये तीन बाते आ जाय तो कल्याण हो जाय।
श्रद्धा करो तो अन्धी करो । काम करो तो मशीन होकर करो, बिल्कुल व्यवस्थित, क्षति रहित। विश्वास करो तो बस.... धन्ना जाट की नाँईं। आत्मविचार करो तो बिल्कुल तटस्थ।
लोग श्रद्धा करने की जगह पर विचार करते हैं, तर्क लड़ाते हैं और आत्म विचार की जगह पर श्रद्धा करते हैं। अपनी 'मैं' के विषय में विचार चाहिए और भगवान को मानने में विश्वास चाहिए। वस्तु का उपयोग करने में तटस्थता चाहिए। ये तीन बाते आ जाय तो कल्याण हो जाय।
भगवान से संबंध
हर जीव का वास्तविक घर तो भगवान का धाम ही है। यह धरातल तो रैन - बसेरा की तरह है जहां पर कुछ समय के लिये जीव ठहरता है। जो अपना नहीं , उसको हम अपना बताते हैं। यह घर , यह परिवार और यह धन इत्यादि सब यहीं रह जाना है। अगर यह हमारा होता तो हमारे साथ ही चले जाना चाहिए था। वास्तव में हम भ्रम में जी कर इनकी पालना कर रहे हैं , जबकि हमें
पालना करनी चाहिये अपने वास्तविक ध्येय की। क्या है वास्तविक ध्येय ? यह ध्येय है भगवान की भक्ति।
धन कमाना , परिवार बनाना और उसकी देखभाल करना अनुचित नहीं है , परंतु उसमें बहुत अधिक आसक्त हो जाना ठीक नहीं है। अपनी असली पहचान को समझें। अपने वास्तविक संबंधी यानि भगवान से अपने संबंध को मजबूत करें।
धन कमाना , परिवार बनाना और उसकी देखभाल करना अनुचित नहीं है , परंतु उसमें बहुत अधिक आसक्त हो जाना ठीक नहीं है। अपनी असली पहचान को समझें। अपने वास्तविक संबंधी यानि भगवान से अपने संबंध को मजबूत करें।
जिसकी मिट्टी है, अग्नि है, पानी है, जो हमारे दिल की धड़कनें चला रहा है, आँखों को देखने की, कानों को सुनने की, मन को सोचने की, बुद्धि को निर्णय करने की शक्ति दे रहा है,
निर्णय बदल जाते हैं फिर भी जो बदले हुए
निर्णय को जानने का ज्ञान दे रहा है, वह परमात्मा हमारा है। मरने के बाद भी वह
हमारे साथ रहता है, उसके लिए हमने क्या किया ? उसको हम कुछ नहीं दे सकते ? प्रीतिपूर्वक स्मरण करते करते प्रेममय नहीं हो सकते? बेवफा, गुणचोर होने के बदले शुक्रगुजारी और स्नेहपूर्वक स्मरण क्या अधिक कल्याणकारी
नहीं होगा ? हे बेवकूफ मानव ! हे गुणचोर मनवा !! सो क्यों बिसारा जिसने सब दिया ? जिसने गर्भ में रक्षा
की, सब कुछ दिया, सब कुछ किया, भर जा धन्यवाद से, अहोभाव से उसके प्रीतिपूर्वक स्मरण में !
एक मछली, अपनी साथी मछलियों
से पूछा करती थी, मैं हमेशा सागर का नाम सुनती हूं। यह सागर है क्या? और
कहां है? मैं उसे कहां तलाशूं? मछली सागर में ही रहती थी, वहीं खाती-पीती
और सोती थी। वहीं उसका जन्म हुआ था, और मृत्यु भी सागर में ही निश्चित थी।
पर सागर का उसे पता नहीं था, क्योंकि उसकी विशालता को न वो देख सकती थी और न
पहचान सकती थी। छोटी सी थी, तो दूर तक तैर कर भी उसके दायरे का अंदाजा
नहीं लगा सकती थी। कुछ उसी मछली जैसा हाल हमारा भी है... ऐसे ही विश्व रूप
ब्रह्म में हम हैं और वह हम में है, फिर भी उसे तलाशते रहते हैं।
मेरी हो सो जल जाय, तेरी हो
सो रह जाय। हमारी जो अहंता, ममता और वासना है वह जल जाए। गुरुजी! आपकी जो
करुणा और ज्ञानप्रसाद है वही रह जाए। तत्परता से सेवा करते हैं तो आदमी की
वासनाएं नियंत्रित हो जाती हैं और ईश्वरप्राप्ति की भूख लगती है। प्रमाणभूत
है कि जगत नष्ट हो रहा है। संसार का कितना भी कुछ मिल जाए लेकिन
परमात्म-पद को पाए बिना इस जीवात्मा का जन्म-मरण का दुःख जाएगा नहीं।
Monday, February 4, 2013
जिसकी मिट्टी है, अग्नि है, पानी है, जो हमारे
दिल की धड़कनें चला रहा है, आँखों को देखने की, कानों को सुनने की, मन को
सोचने की, बुद्धि को निर्णय करने की शक्ति दे रहा है, निर्णय बदल जाते हैं
फिर भी जो बदले हुए निर्णय को जानने का ज्ञान दे रहा है, वह परमात्मा हमारा
है। मरने के बाद भी वह हमारे साथ रहता है, उसके लिए हमने क्या किया ? उसको
हम कुछ नहीं दे सकते ? प्रीतिपूर्वक स्मरण करते करते
प्रेममय नहीं हो सकते? बेवफा, गुणचोर होने के बदले शुक्रगुजारी और स्नेहपूर्वक स्मरण क्या अधिक कल्याणकारी नहीं होगा ? हे बेवकूफ मानव ! हे गुणचोर मनवा !! सो क्यों बिसारा जिसने सब दिया ? जिसने गर्भ में रक्षा की, सब कुछ दिया, सब कुछ किया, भर जा धन्यवाद से, अहोभाव से उसके प्रीतिपूर्वक स्मरण में !
प्रेममय नहीं हो सकते? बेवफा, गुणचोर होने के बदले शुक्रगुजारी और स्नेहपूर्वक स्मरण क्या अधिक कल्याणकारी नहीं होगा ? हे बेवकूफ मानव ! हे गुणचोर मनवा !! सो क्यों बिसारा जिसने सब दिया ? जिसने गर्भ में रक्षा की, सब कुछ दिया, सब कुछ किया, भर जा धन्यवाद से, अहोभाव से उसके प्रीतिपूर्वक स्मरण में !
अपने कर्तव्य का तत्परतापूर्वक पालन और दूसरे के अधिकारों की प्रेमपूर्वक
रक्षा-यही पारिवारिक व सामाजिक जीवन में उन्नति का सूत्र है। और भी स्पष्ट
रूप से कहें तो ʹअपने लिए कुछ न चाहो और भगवद्भाव से दूसरों की सेवा करो।ʹ
यही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक उन्नति का महामंत्र है। क्या
आप इसका आदर कर इसे अपने जीवन में उतारेंगे ? यदि हाँ तो आपका जन्म-कर्म
दिव्य हो ही गया मानो।
रक्षा-यही पारिवारिक व सामाजिक जीवन में उन्नति का सूत्र है। और भी स्पष्ट
रूप से कहें तो ʹअपने लिए कुछ न चाहो और भगवद्भाव से दूसरों की सेवा करो।ʹ
यही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक उन्नति का महामंत्र है। क्या
आप इसका आदर कर इसे अपने जीवन में उतारेंगे ? यदि हाँ तो आपका जन्म-कर्म
दिव्य हो ही गया मानो।
हर जीव का वास्तविक घर तो भगवान का धाम ही है। यह धरातल तो
रैन - बसेरा की तरह है जहां पर कुछ समय के लिये जीव ठहरता है।
जो अपना नहीं , उसको हम अपना बताते हैं। यह घर , यह परिवार और
यह धन इत्यादि सब यहीं रह जाना है। अगर यह हमारा होता तो
हमारे साथ ही चले जाना चाहिए था। वास्तव में हम भ्रम में जी
कर इनकी पालना कर रहे हैं , जबकि हमें पालना करनी चाहिये अपने
वास्तविक ध्येय की। क्या है वास्तविक ध्येय ? यह ध्येय है भगवान की भक्ति।
धन कमाना , परिवार बनाना और उसकी देखभाल करना अनुचित नहीं है , परंतु उसमें बहुत अधिक आसक्त हो जाना ठीक नहीं है। अपनी असली पहचान को समझें। अपने वास्तविक संबंधी यानि भगवान से अपने संबंध को मजबूत करें।
वास्तविक ध्येय की। क्या है वास्तविक ध्येय ? यह ध्येय है भगवान की भक्ति।
धन कमाना , परिवार बनाना और उसकी देखभाल करना अनुचित नहीं है , परंतु उसमें बहुत अधिक आसक्त हो जाना ठीक नहीं है। अपनी असली पहचान को समझें। अपने वास्तविक संबंधी यानि भगवान से अपने संबंध को मजबूत करें।
Thursday, January 31, 2013
एक मछली, अपनी साथी मछलियों से पूछा करती थी,
मैं हमेशा सागर का नाम सुनती हूं। यह सागर है क्या? और कहां है? मैं उसे
कहां तलाशूं? मछली सागर में ही रहती थी, वहीं खाती-पीती और सोती थी। वहीं
उसका जन्म हुआ था, और मृत्यु भी सागर में ही निश्चित थी। पर सागर का उसे
पता नहीं था, क्योंकि उसकी विशालता को न वो देख सकती थी और न पहचान सकती
थी। छोटी सी थी, तो दूर तक तैर कर भी उसके दायरे का अंदाजा नहीं लगा सकती
थी। कुछ उसी मछली जैसा हाल हमारा भी है... ऐसे ही विश्व रूप ब्रह्म में हम
हैं और वह हम में है, फिर भी उसे तलाशते रहते हैं।
Wednesday, January 30, 2013
मेरी हो सो जल जाय, तेरी हो सो रह जाय। हमारी जो
अहंता, ममता और वासना है वह जल जाए। गुरुजी! आपकी जो करुणा और ज्ञानप्रसाद
है वही रह जाए। तत्परता से सेवा करते हैं तो आदमी की वासनाएं नियंत्रित हो
जाती हैं और ईश्वरप्राप्ति की भूख लगती है। प्रमाणभूत है कि जगत नष्ट हो
रहा है। संसार का कितना भी कुछ मिल जाए लेकिन परमात्म-पद को पाए बिना इस
जीवात्मा का जन्म-मरण का दुःख जाएगा नहीं।
Tuesday, January 29, 2013
परीक्षाएं
वो जीवन जीने योग्य नहीं, जिसमें परीक्षाएं न हों। जीवन एक निरंतर
चलनेवाली परीक्षा है। जिंदगी का हर लम्हा किसी न किसी तरह की परीक्षा है।
इसमें जो जितना तपा, वह उतना खरा कुंदन बना।
हर व्यक्तिहर परीक्षा में सफल होना चाहता है। इसलिए परीक्षा चाहे जैसी भी हो, उसके लिए उचित तैयारी करनी चाहिए। बिना तैयारी के परीक्षा देना ऐसा ही है, जैसे बिना तैरना सीखे गहरे पानी में उतरना। बिना सीखे कोई गहरे पानी में तो दूर, उथले पानी में भी नहीं उतरता।
तैराकी पानी में ही सीखी जा सकती है, पानी के बिना नहीं। लेकिन इसका प्रारंभ घनघोर गर्जन करते समुद्र अथवा विपुल जल राशि युक्त महानद में संभव नहीं। इसका प्रारंभ तो शांत उथले जल में ही संभव है। जीवन की परीक्षाओं के लिए भी ऐसा ही परिवेश चाहिए।
जिंदगी की वास्तविक परीक्षाएं विषम परिस्थितियों में ही होती हैं। जिस प्रकार परिश्रमी विद्यार्थी परीक्षा भवन से विजयी होकर लौटते हैं और अपने आत्म सम्मान में वृद्धि करते हैं, उसी प्रकार जो व्यक्ति समय-प्रबंधन और आत्म-प्रबंधन द्वारा जीवन में आने वाली विभिन्न परीक्षाओं की पहले से तैयारी रखते हैं, वे सफलता पाते हैं। इससे उनका आत्म विश्वास बढ़ता है। उनके भीतर आशावादी दृष्टि पैदा होती है। और वे हौसले से आगे बढ़ते हैं।
हर व्यक्तिहर परीक्षा में सफल होना चाहता है। इसलिए परीक्षा चाहे जैसी भी हो, उसके लिए उचित तैयारी करनी चाहिए। बिना तैयारी के परीक्षा देना ऐसा ही है, जैसे बिना तैरना सीखे गहरे पानी में उतरना। बिना सीखे कोई गहरे पानी में तो दूर, उथले पानी में भी नहीं उतरता।
तैराकी पानी में ही सीखी जा सकती है, पानी के बिना नहीं। लेकिन इसका प्रारंभ घनघोर गर्जन करते समुद्र अथवा विपुल जल राशि युक्त महानद में संभव नहीं। इसका प्रारंभ तो शांत उथले जल में ही संभव है। जीवन की परीक्षाओं के लिए भी ऐसा ही परिवेश चाहिए।
जिंदगी की वास्तविक परीक्षाएं विषम परिस्थितियों में ही होती हैं। जिस प्रकार परिश्रमी विद्यार्थी परीक्षा भवन से विजयी होकर लौटते हैं और अपने आत्म सम्मान में वृद्धि करते हैं, उसी प्रकार जो व्यक्ति समय-प्रबंधन और आत्म-प्रबंधन द्वारा जीवन में आने वाली विभिन्न परीक्षाओं की पहले से तैयारी रखते हैं, वे सफलता पाते हैं। इससे उनका आत्म विश्वास बढ़ता है। उनके भीतर आशावादी दृष्टि पैदा होती है। और वे हौसले से आगे बढ़ते हैं।
14 फेब को माता पिता पूजन दिन
माँ
अपने आँचल से ढँककर बच्चे को
दूध पिलाने वाली माँ ये जरूर भूल जाती होगी कि आज उसने खाना खाया है या
नहीं परंतु उसे ये जरूर याद रहता है कि मेरा बच्चा भूखा है। नौ माह तक गर्भ में संतान को पालने वाली माँ ना जाने कितनी शारीरिक तकलीफ सहती है परंतु
अपनी उम्र के उत्तरार्द्ध में जब उसी गर्भ पर बेटे की लात पड़ती है या आपकी बातें उसके दिल को दुखाती है तो वो खामोश रहकर यही कहती है 'मेरे बेटे ने
ये सब गुस्से में किया होगा। वो बहुत अच्छा है।'
पिता
समंदर के जैसा भी है पिता,
जिसकी सतह पर खेलती हैं असंख्य लहरें, तो जिसकी गहराई में है खामोशी ही
खामोशी। वह चखने में भले खारा लगे, लेकिन जब बारिश बन खेतों में आता है तो
हो जाता है मीठे से मीठा।
माँ की पिता की यह बाते कभी नहीं भूल सकते तो आवो मिलकर उन्हें सन्मानित करे उनके पूजन से 14 फेब को माता पिता पूजन दिन
अपने आँचल से ढँककर बच्चे को
दूध पिलाने वाली माँ ये जरूर भूल जाती होगी कि आज उसने खाना खाया है या
नहीं परंतु उसे ये जरूर याद रहता है कि मेरा बच्चा भूखा है। नौ माह तक गर्भ में संतान को पालने वाली माँ ना जाने कितनी शारीरिक तकलीफ सहती है परंतु
अपनी उम्र के उत्तरार्द्ध में जब उसी गर्भ पर बेटे की लात पड़ती है या आपकी बातें उसके दिल को दुखाती है तो वो खामोश रहकर यही कहती है 'मेरे बेटे ने
ये सब गुस्से में किया होगा। वो बहुत अच्छा है।'
पिता
समंदर के जैसा भी है पिता,
जिसकी सतह पर खेलती हैं असंख्य लहरें, तो जिसकी गहराई में है खामोशी ही
खामोशी। वह चखने में भले खारा लगे, लेकिन जब बारिश बन खेतों में आता है तो
हो जाता है मीठे से मीठा।
माँ की पिता की यह बाते कभी नहीं भूल सकते तो आवो मिलकर उन्हें सन्मानित करे उनके पूजन से 14 फेब को माता पिता पूजन दिन
तुम संयम-सदाचारयुक्त जीवन जीकर अपना जीवन तो समुन्नत करो ही, साथ ही देश
की उन्नति के लिए भी प्रयत्नशील रहो। वही सफल होता है जो आत्म-उन्नति करना
जानता है। अपनी संस्कृति पर कुठाराघात करने वाले विदेशियों की कुचालों से
सावधान रहो और अपनी संस्कृति की गरिमा बढ़ाओ। इसी में तुम्हारा व परिवार,
समाज, राष्ट्र और मानवता का हित निहित है।"
Sunday, January 27, 2013
ईश्वर से प्रेम
बहुत से ऐसे लोग मिलेंगे जो कहेंगे कि उन्हें किसी से प्यार हो गया है।
अपने प्रेम को पाने के लिए वह दुनिया छोड़ने की बात करेंगे। लेकिन वास्तव
में प्रेम को पाने के लिए दुनिया छोड़ने जरूरत ही नहीं है। प्रेम तो
दुनिया में रहकर ही किया जाता है। जो दुनिया छोड़ने की बात करते हैं वह तो
प्रेमी हो ही नहीं सकते है। दुनिया छोड़ने की बात करने वाले लोग वास्तव
में रूप के आकर्षण में बंधे हुए लोग होते हैं। वह प्रेम के वास्तविक
स्वरूप से अनजान होते हैं।
जिस प्रेम को पाने के लिए बचैन थे वह तो क्षण भंगुर है। यह प्रेम तो संसार से दूर ले जाता है। वास्तविक प्रेम तो ईश्वर से हो सकता है जो कण-कण में मौजूद है उसे पाने के लिए बेचैन होने की जरूरत नहीं है उसे तो हर क्षण अपने पास मौजूद किया जा सकता है।
जिस प्रेम को पाने के लिए बचैन थे वह तो क्षण भंगुर है। यह प्रेम तो संसार से दूर ले जाता है। वास्तविक प्रेम तो ईश्वर से हो सकता है जो कण-कण में मौजूद है उसे पाने के लिए बेचैन होने की जरूरत नहीं है उसे तो हर क्षण अपने पास मौजूद किया जा सकता है।
माता पिता पूजन दिन 14 फेब्रुअरी
माता पिता पूजन दिन 14 फेब्रुअरी
देर रात को भी बिना किसी शिकायत के मेरी मनपसंद सब्जी के साथ मेरी राह
देखती मां की सबसे ज्यादा कीमत मुझे अब समझ में आती है। वाकई कितना आसान था
उस समय उसे यह कह देना कि- मैं तो बाहर से खाकर आया हूं। आज नौकरी के चलते
घर से दूर आया हूं। यहां अपने कपड़े खुद धो रहा हूं और रोज बाहर का
कच्चा-पक्का खा रहा हूं, तब समझ में आ रहा है कि मां को वो इंतजार और उसके
बाद मिलने वाला मेरा जवाब कितना चुभता होगा पर उसने कभी शिकायत नहीं की।
माँ की यह बाते कभी नहीं भूल सकते तो आवो मिलकर उन्हें सन्मानित करे उनके पूजन से 14 फेब को माता पिता पूजन दिन 14 फेब्रुअरी
जैसे पैदा होना एक घटना
है, वैसे ही मृत्यु भी एक अवश्य घटने वाली घटना है, जो अपने समय पर सभी के
साथ घटती ही है। वह निश्चित है, जब उसका समय आएगा, वह घट जाएगी। पहले से ही
उसके बारे में क्यों सोचा जाए! हमें जीवन अपने आप मिला है, मौत भी अपने आप
हो जाएगी। हमारा तो बीच का समय है, जिसके हर पल को हमें पूरी जागरूकता व
प्रसन्नता के साथ जीना है।
Saturday, January 26, 2013
यह शरीर तो मल, मूत्र,
पसीना, खून से भरा हुआ मांस का लोथड़ा है। जब आप सुबह सोकर उठते हैं तो
देखिए शरीर के हर द्वार से गंदगी ही बाहर निकल रही है। इस गंदगी से भरे
शरीर के प्रति इतना लगाव क्यों? इसकी बजाय शरीर को धारण करने वाली सत्ता को
देखें, उससे प्रेम करें, जो आपके और सामने वाले में एक ही है। शरीर में
भेद है लेकिन शरीरों को चलाने वाली चेतना में भेद नहीं।
Friday, January 25, 2013
मन
मन के स्वभाव को
अगर हम समझ लें, तब मन हमें परेशान नहीं करेगा, क्योंकि मन कभी हमारा
मित्र होता है, कभी शत्रु। कभी यह हमें छोटा बना देता है, कभी बड़ा। कभी
करुणा से भर जाता है, कभी क्रोध से। कभी यह चींटी जैसा छोटा हो जाता है,
कभी हाथी जैसा बड़ा। कभी किसी के फेवर में आ जाता है, कभी उसका विरोधी बन
जाता है। कभी एक-एक रुपया बचाने की बात करता है, कभी सैकड़ों एकदम लुटा
देता है। कभी राग करता है, कभी द्वेष करने लगता है। कभी प्यार से भर जाता
है, कभी घृणा से।
कभी पाप कर्मों की ओर जाना चाहता है, कभी पुण्य कर्मों की ओर। इस तरह से मन कभी ऊंचाइयों की ओर ले जाता है, कभी नीचे गिरा देता है।
अगर जिंदगी में सब कुछ अनुकूल है तो भी मन दुख को तलाशता रहता है। मन कभी खाली नहीं रहता। या तो हम मन को कहीं लगाएं वरना मन खुद ही भूत या भविष्यकाल में दौड़ जाता है। पहले कुछ खराब घटा हो, उसके बारे में सोचकर दुखी होने लगता है कि ऐसा न होता तो ऐसा हो जाता, ऐसा न बोलता, तो अपने पराए न होते
अपनों के साथ-साथ सबके लिए मन में अच्छी भावना रखनी जरूरी है। जो भी आपके सामने आए, उसके लिए भी प्रेम और जिसका ख्याल आए, उसके लिए भी प्रेम। भले आप किसी के लिए सीधे तौर पर कुछ मदद न कर पाएं, लेकिन अपने भीतर उसके लिए अच्छा भाव तो रख ही सकते हैं।
हमारी कोशिश इस मन को ट्रेंड करने की होनी चाहिए क्योंकि मन बिना सिखाए कुछ नहीं सीखता। इसके लिए अभ्यास की जरूरत होती है और अभ्यास है मन को वर्तमान में रखना, हमेशा मुस्कुराते रहना, सबके प्रति शुक्रिया का भाव रखना। इससे मन धीरे-धीरे सधने लगता है और अंदर आत्मविश्वास, सकारात्मकता व उमंग पैदा होने लगती है। फिर जीवन सुखमय हो जाता है।
कभी पाप कर्मों की ओर जाना चाहता है, कभी पुण्य कर्मों की ओर। इस तरह से मन कभी ऊंचाइयों की ओर ले जाता है, कभी नीचे गिरा देता है।
अगर जिंदगी में सब कुछ अनुकूल है तो भी मन दुख को तलाशता रहता है। मन कभी खाली नहीं रहता। या तो हम मन को कहीं लगाएं वरना मन खुद ही भूत या भविष्यकाल में दौड़ जाता है। पहले कुछ खराब घटा हो, उसके बारे में सोचकर दुखी होने लगता है कि ऐसा न होता तो ऐसा हो जाता, ऐसा न बोलता, तो अपने पराए न होते
अपनों के साथ-साथ सबके लिए मन में अच्छी भावना रखनी जरूरी है। जो भी आपके सामने आए, उसके लिए भी प्रेम और जिसका ख्याल आए, उसके लिए भी प्रेम। भले आप किसी के लिए सीधे तौर पर कुछ मदद न कर पाएं, लेकिन अपने भीतर उसके लिए अच्छा भाव तो रख ही सकते हैं।
हमारी कोशिश इस मन को ट्रेंड करने की होनी चाहिए क्योंकि मन बिना सिखाए कुछ नहीं सीखता। इसके लिए अभ्यास की जरूरत होती है और अभ्यास है मन को वर्तमान में रखना, हमेशा मुस्कुराते रहना, सबके प्रति शुक्रिया का भाव रखना। इससे मन धीरे-धीरे सधने लगता है और अंदर आत्मविश्वास, सकारात्मकता व उमंग पैदा होने लगती है। फिर जीवन सुखमय हो जाता है।
Thursday, January 24, 2013
तुम्हारी भक्ति केवल पूजा तक सीमित नहीं है
बल्कि तुम्हारे कर्म, प्रवृत्ति और व्यवहार में अभिव्यक्त होती है। वह केवल
एक भावना नहीं है, वह चेतना का एक उत्कृष्ट और सार्वभौमिक गुण है। ईश्वर
को प्रेम करने वाले, उसके प्रति निष्ठा रखने वाले इस संपूर्ण विश्व को भी
प्रेम करते हैं, क्योंकि यह जगत ईश्वर से ही व्याप्त है। जीवात्मा,
विश्वात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। यही अद्वैत ज्ञान है।
Wednesday, January 23, 2013
जीवन की सार्थकता
हमारे जीवन में प्रयास, पुरुषार्थ, अवरोध एवं संघर्ष का लगातार एक क्रम चलता रहता है। और ऐसे में सफलताएं भी मिलती हैं और विफलताएं भी। इन सब के बीच व्यक्ति की जीवन यात्रा उत्थान की दिशा में बढ़ रही है या पतन की दिशा में, इसमें उस व्यक्ति के दृष्टिकोण की भूमिका सबसे बड़ी होती है।
यदि हम छोटी-छोटी असफलताओं और रुकावटों से हिम्मत हार बैठते हैं और नकारात्मक भावों को जीवन में हावी होने देते हैं, तो यात्रा का हर कदम दूभर एवं कष्टप्रद बन जाता है। जीवन एक दुखद घटना एवं दुर्भाग्यपूर्ण मजाक लगने लगता है। हमारी ऊर्जा कुंठित होने लगती है।
हम में से अधिकांश लोग ऐसी स्थिति में अपने दुख-दर्द एवं दुर्भाग्य के लिए भाग्य को कोसते हैं या फिर दूसरों को दोषी मानते हैं। और नहीं तो भगवान पर ही गुस्सा निकालने लगते हैं।। जैसे ही हमारा जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलने लगता है, तो स्थिति पलटने लगती है। आशा मनुष्य की सबसे बड़ी संपदा है।
प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है, आशा उत्साह की जननी है। उसमें तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालन शक्ति है। यदि व्यक्ति आशा खो बैठता है तो जीवन नैया डूबने लगती है। आशा घोर अभाव और संकट के बीच भी निर्माण के तत्वों की खोज करती है। वह आभासित अभिशाप को भी वरदान में बदल देती है। ठीक इसके उलट , निराशावादी दृष्टिकोण के कारण हम अनुकूल अवसरों में भी प्रतिकूलता देखने लगते हैं। एडीसन आशावादी था , उसने अनुकूल अवसर खोजकर अपने जीवन को नए सिरे से शुरू कर लिया।
इसलिए यदि घटनाएं हमारे अनुरूप नहीं घटतीं और हमें विफलता एवं निराशा का संदेश देती हैं , तो भी हिम्मत हारने एवं हताश होने की आवश्यकता नहीं। चाहे संघर्ष पथ पर हम गिर जाएं , पिट भी जाएं , तो भी यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी असफलता अंतिम नहीं होती। यदि लक्ष्य के प्रति मन में लगन हो , तो विफलता भी गिर कर फिर से उठकर खड़े होने और दुगुने उत्साह के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
आशावादी व्यक्ति व्यावहारिक रुख अपनाते हुए अपने जीवन की छोटी - छोटी सफलताओं से क्रमश : आगे बढ़ता है। अपनी कार्यकुशलता और इच्छाशक्ति को क्रमश : विकसित करता जाता है। यह पद्धति रचनात्मकता का स्रोत बनकर उसे लगातार आगे बढ़ाती रहती है। निराशावादी व्यक्ति जहां एक दरवाजा बंद देखते ही अपना प्रयास छोड़ देता है , वहीं आशावादी व्यक्ति दूसरे खुले दरवाजों की तलाश में जुट जाता है। निराशावादी जहां सतत हारता है , वहीं आशावादी अपनी तात्कालिक विफलताओं के बावजूद एक विजेता बन कर उभरता है।
वास्तव में जब तक हम अपने जीवन के अर्थ एवं सुख की खोज के लिए बाहरी वस्तुओं , व्यक्तियों एवं परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं , तब तक निराशा का भाव भी बार - बार आता है। और जब दृष्टि अपने अंदर के मूल स्रोत की ओर मुड़ने लगती है , तो निराशा का कुहासा भी घटने लगता है।
यहीं पर हमें परमात्मा की कृपा एवं वरदान की भाव भरी अनुभूति होती है। अपने ईमानदार प्रयास के साथ प्रभु प्रेम एवं उसके अचूक न्याय विधान के प्रति आस्था को धारण कर हम अनायास ही आस्तिकता एवं धार्मिकता के पथ पर बढ़ जाते हैं। वही हमें जीवन की सार्थकता के बोध की ओर ले चलती है
2013 का स्वागत
2013 का स्वागत एक वास्तविक मुस्कुराहट के साथ करें, एक ऐसी मुस्कुराहट जो भीतर से हो। कलैंडर के पन्ने पलटने के साथ साथ हम अपने मन के पन्नों को भी पलटते जाएं । प्रायः हमारी डायरी स्मृतियों से भरी हुई होती है। ध्यान दें कि आपकी आने वाली तारीखें बीती हुई घटनाओं से न भर जाएं। बीते हुए समय से कुछ सीखें, कुछ भूलें और आगे बढ़ें।
वर्तमान जीवन के अनुभव को आपका भूतकाल नष्ट न करने पाएं। भूतकाल को क्षमा कर दें। यदि आप अपने बीते हुए समय को क्षमा नहीं कर पाएंगे तो आप का भविष्य दुःखपूर्ण हो जाएगा। भूत को छोड़ कर नया जीवन शुरू करने का संकल्प करें।
इस बार नववर्ष के आगमन पर हम इस पृथ्वी के लिए शांति तथा संपन्नता के संकल्प के साथ सभी को शुभकामनाएं दें। समाज के लिए कुछ अच्छा करने का संकल्प लें, जो पीड़ित हैं उन्हें धीरज दें।
जब भी आप लोगों के लिए उपयोगी हुए तो उसका पुण्य भी आपको मिला- वह लुप्त नहीं होता। आपके द्वारा किए गए अच्छे कर्म हमेशा पलट कर आपके पास वापस आएंगे।
सच्चा आध्यात्मिक पहलू जाति, धर्म, तथा राष्ट्रीयता की संकुचित सीमाओं को तोड़ देता है तथा सभी में व्याप्त जीवन ऊर्जा से अवगत कराता है।
अपनी आंखों को खोलें और देखें की आपको कितना कुछ मिला हुआ है। इस नव वर्ष पर यह ध्यान दें कि आपको क्या मिला है, इस पर नहीं कि आपको क्या नहीं मिला। य
जब आप नि:स्वार्थ सेवा करते हैं तो आपको कितना अधिक संतोष मिलता है। इससे आपको यह भी पता चलेगा कि आपकी अपनी समस्या बहुत छोटी हैं। बार-बार मन में कहना कि 'मुझे क्या मिलेगा?'मानसिक अवसाद का सबसे बड़ा कारण है। 'मुझे क्या मिलेगा?' समृद्धि की कमी का लक्षण है।
इस वर्ष पंछी की तरह मुक्त हो जाएं। अपने पंखों को खोलें और उड़ना सीखें। आप अपनी स्वतंत्रता को कब महसूस करेंगे? मरने के बाद? अभी इसी क्षण मुक्त हो जायें। बैठ कर तृप्त हो जाएं। कुछ समय ध्यान और सत्संग में बैठें। यह आपके मन को शांत तो करता ही है और साथ ही संसार की चुनौतियों का सामना करने के लिए आपकी चेतना को आंतरिक बल देता है।
जब मन विश्राम करता है तब बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है। जब मन आकांक्षा, ज्वर या इच्छा जैसी छोटी-छोटी चीज़ों से भरा हो तब बुद्धि क्षीण हो जाती है। केन्द्रित रहने से हमेशा खुशी पास रहती है। इसी शांति से प्रतिभाएं उभरती हैं। सहज ज्ञान मिल जाता है, सुंदरता आ जाती है, शांति आती है, प्रेम प्रकट होता है। समृद्धि आती है।
प्रेम
सारी सृष्टि का आधार है सर्वव्यापक परमेश्वर और उसकी बनायी इस सृष्टि का नियामक, शासक बल है स्नेह, विशुद्ध प्रेम। निःस्वार्थ स्नेह यह सत्य, धर्म, कर्म सभी का श्रृंगार है अर्थात् ये सब तभी शोभा पाते हैं जब स्नेहयुक्त हों।
जीवन का कोई भी रिश्ता-नाता स्नेह के सात्त्विक रंग से वंचित न हो। भाई-बहन का नाता, पिता-पुत्र का, माँ-बेटी का, सास-बहू का, पति-पत्नी का, चाहे कोई भी नाता क्यों न हो, स्नेह की मधुर मिठास से सिंचित होने पर वह और भी सुंदर, आनंददायी एवं हितकारी हो जाता है।
आज हमारा दृष्टिकरण बदल रहा है। टी.वी. के कारण हम लोगों पर आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। रहन-सहन, खानपान की शैली कुछ और ही हो गयी है। स्वार्थ की भावना, इन्द्रियलोलुपता, विषय-विकार और संसारी आकर्षण की भावना बढ़ रही है। जो नाश हो रहा है उसी की वासना बढ़ रही है। बड़ों के प्रति आदर और आस्था का अभाव हो रहा है। व्यक्ति कर्तव्य-कर्म से विमुख होते जा रहे हैं। सुख-सुविधा, भोग-संग्रह, मान-बड़ाई में मारे-मारे फिर रहे हैं। ऐसों की मान-बड़ाई टिकती नहीं और श्री रामकृष्ण, रमण महर्षि जैसों का मान-बड़ाई मिटती नहीं। परमार्थ-पथ का पता ही नहीं है, अतः एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी हुई है। ईर्ष्या, भेद-भावना बढ़ गयी है।
मोह बांधने वाला होता है, जबकि प्रेम खिलाने वाला। जो प्रेम नहीं करता, उसका व्यक्तित्व हमेशा सिमटा रहता है। वह डरा और बुझा-सा रहता है। प्रेम तो झरने की तरह है, जो हर वक्त बहता रहता है। उस बहाव को हम खुद रोककर सीमाओं में बांधते हैं, जबकि प्रेम हमारी चेतना का स्वरूप है। जैसे नदी लगातार बिना रुके बहती रहती है, वैसे ही प्रेम नदी के समान हमारे भीतर से बहता रहता है। हम उसके बहाव में अपने विकारों की रुकावट डाल देते हैं। अगर विकारों की रुकावट हटाई जाए तो प्रेम अपनी सुगंध फैलाना शुरू कर देगा।
हमारा काम है रास्ते की रुकावटों को दूर करना। फिर देखना, प्रेमभाव का फव्वारा भीतर फूट पडे़गा। ऐसा हो ही नहीं सकता कि भीतर प्रेमभाव न आए। दिन भर किसी अपने पर, अनजाने पर, किसी चीज पर, प्रकृति पर, पशु-पक्षी या जानवर पर प्रेम भाव तो आता ही है, लेकिन हम उसे रोकते रहते हैं बार-बार रोकते रहने से वह कम हो जाता है, जिससे लगने लगता है कि हम सूखे हैं, अंदर प्रेम है ही नहीं।
प्रेम को हम समझ ही नहीं पाते, क्योंकि प्रेम को हम अपनों तक सीमित रखते हैं। सीमा में होने के कारण प्रेम दूषित होकर मोह बन जाता है। मोह बांधने वाला होता है, जबकि प्रेम खिलाने वाला।
जीवन का कोई भी रिश्ता-नाता स्नेह के सात्त्विक रंग से वंचित न हो। भाई-बहन का नाता, पिता-पुत्र का, माँ-बेटी का, सास-बहू का, पति-पत्नी का, चाहे कोई भी नाता क्यों न हो, स्नेह की मधुर मिठास से सिंचित होने पर वह और भी सुंदर, आनंददायी एवं हितकारी हो जाता है।
आज हमारा दृष्टिकरण बदल रहा है। टी.वी. के कारण हम लोगों पर आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। रहन-सहन, खानपान की शैली कुछ और ही हो गयी है। स्वार्थ की भावना, इन्द्रियलोलुपता, विषय-विकार और संसारी आकर्षण की भावना बढ़ रही है। जो नाश हो रहा है उसी की वासना बढ़ रही है। बड़ों के प्रति आदर और आस्था का अभाव हो रहा है। व्यक्ति कर्तव्य-कर्म से विमुख होते जा रहे हैं। सुख-सुविधा, भोग-संग्रह, मान-बड़ाई में मारे-मारे फिर रहे हैं। ऐसों की मान-बड़ाई टिकती नहीं और श्री रामकृष्ण, रमण महर्षि जैसों का मान-बड़ाई मिटती नहीं। परमार्थ-पथ का पता ही नहीं है, अतः एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी हुई है। ईर्ष्या, भेद-भावना बढ़ गयी है।
मोह बांधने वाला होता है, जबकि प्रेम खिलाने वाला। जो प्रेम नहीं करता, उसका व्यक्तित्व हमेशा सिमटा रहता है। वह डरा और बुझा-सा रहता है। प्रेम तो झरने की तरह है, जो हर वक्त बहता रहता है। उस बहाव को हम खुद रोककर सीमाओं में बांधते हैं, जबकि प्रेम हमारी चेतना का स्वरूप है। जैसे नदी लगातार बिना रुके बहती रहती है, वैसे ही प्रेम नदी के समान हमारे भीतर से बहता रहता है। हम उसके बहाव में अपने विकारों की रुकावट डाल देते हैं। अगर विकारों की रुकावट हटाई जाए तो प्रेम अपनी सुगंध फैलाना शुरू कर देगा।
हमारा काम है रास्ते की रुकावटों को दूर करना। फिर देखना, प्रेमभाव का फव्वारा भीतर फूट पडे़गा। ऐसा हो ही नहीं सकता कि भीतर प्रेमभाव न आए। दिन भर किसी अपने पर, अनजाने पर, किसी चीज पर, प्रकृति पर, पशु-पक्षी या जानवर पर प्रेम भाव तो आता ही है, लेकिन हम उसे रोकते रहते हैं बार-बार रोकते रहने से वह कम हो जाता है, जिससे लगने लगता है कि हम सूखे हैं, अंदर प्रेम है ही नहीं।
प्रेम को हम समझ ही नहीं पाते, क्योंकि प्रेम को हम अपनों तक सीमित रखते हैं। सीमा में होने के कारण प्रेम दूषित होकर मोह बन जाता है। मोह बांधने वाला होता है, जबकि प्रेम खिलाने वाला।
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