http://i93.photobucket.com/albums/l80/bigrollerdave/flash/sign.swf" quality="high" wmode="transparent"

Wednesday, January 23, 2013

प्रेम

सारी सृष्टि का आधार है सर्वव्यापक परमेश्वर और उसकी बनायी इस सृष्टि का नियामक, शासक बल है स्नेह, विशुद्ध प्रेम। निःस्वार्थ स्नेह यह सत्य, धर्म, कर्म सभी का श्रृंगार है अर्थात् ये सब तभी शोभा पाते हैं जब स्नेहयुक्त हों।

जीवन का कोई भी रिश्ता-नाता स्नेह के सात्त्विक रंग से वंचित न हो। भाई-बहन का नाता, पिता-पुत्र का, माँ-बेटी का, सास-बहू का, पति-पत्नी का, चाहे कोई भी नाता क्यों न हो, स्नेह की मधुर मिठास से सिंचित होने पर वह और भी सुंदर, आनंददायी एवं हितकारी हो जाता है।


आज हमारा दृष्टिकरण बदल रहा है। टी.वी. के कारण हम लोगों पर आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। रहन-सहन, खानपान की शैली कुछ और ही हो गयी है। स्वार्थ की भावना, इन्द्रियलोलुपता, विषय-विकार और संसारी आकर्षण की भावना बढ़ रही है। जो नाश हो रहा है उसी की वासना बढ़ रही है। बड़ों के प्रति आदर और आस्था का अभाव हो रहा है। व्यक्ति कर्तव्य-कर्म से विमुख होते जा रहे हैं। सुख-सुविधा, भोग-संग्रह, मान-बड़ाई में मारे-मारे फिर रहे हैं। ऐसों की मान-बड़ाई टिकती नहीं और श्री रामकृष्ण, रमण महर्षि जैसों का मान-बड़ाई मिटती नहीं। परमार्थ-पथ का पता ही नहीं है, अतः एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी हुई है। ईर्ष्या, भेद-भावना बढ़ गयी है।

मोह बांधने वाला होता है, जबकि प्रेम खिलाने वाला। जो प्रेम नहीं करता, उसका व्यक्तित्व हमेशा सिमटा रहता है। वह डरा और बुझा-सा रहता है। प्रेम तो झरने की तरह है, जो हर वक्त बहता रहता है। उस बहाव को हम खुद रोककर सीमाओं में बांधते हैं, जबकि प्रेम हमारी चेतना का स्वरूप है। जैसे नदी लगातार बिना रुके बहती रहती है, वैसे ही प्रेम नदी के समान हमारे भीतर से बहता रहता है। हम उसके बहाव में अपने विकारों की रुकावट डाल देते हैं। अगर विकारों की रुकावट हटाई जाए तो प्रेम अपनी सुगंध फैलाना शुरू कर देगा।

हमारा काम है रास्ते की रुकावटों को दूर करना। फिर देखना, प्रेमभाव का फव्वारा भीतर फूट पडे़गा। ऐसा हो ही नहीं सकता कि भीतर प्रेमभाव न आए। दिन भर किसी अपने पर, अनजाने पर, किसी चीज पर, प्रकृति पर, पशु-पक्षी या जानवर पर प्रेम भाव तो आता ही है, लेकिन हम उसे रोकते रहते हैं बार-बार रोकते रहने से वह कम हो जाता है, जिससे लगने लगता है कि हम सूखे हैं, अंदर प्रेम है ही नहीं।




प्रेम को हम समझ ही नहीं पाते, क्योंकि प्रेम को हम अपनों तक सीमित रखते हैं। सीमा में होने के कारण प्रेम दूषित होकर मोह बन जाता है। मोह बांधने वाला होता है, जबकि प्रेम खिलाने वाला।

No comments: