हमारे जीवन में प्रयास, पुरुषार्थ, अवरोध एवं संघर्ष का लगातार एक क्रम चलता रहता है। और ऐसे में सफलताएं भी मिलती हैं और विफलताएं भी। इन सब के बीच व्यक्ति की जीवन यात्रा उत्थान की दिशा में बढ़ रही है या पतन की दिशा में, इसमें उस व्यक्ति के दृष्टिकोण की भूमिका सबसे बड़ी होती है।
यदि हम छोटी-छोटी असफलताओं और रुकावटों से हिम्मत हार बैठते हैं और नकारात्मक भावों को जीवन में हावी होने देते हैं, तो यात्रा का हर कदम दूभर एवं कष्टप्रद बन जाता है। जीवन एक दुखद घटना एवं दुर्भाग्यपूर्ण मजाक लगने लगता है। हमारी ऊर्जा कुंठित होने लगती है।
हम में से अधिकांश लोग ऐसी स्थिति में अपने दुख-दर्द एवं दुर्भाग्य के लिए भाग्य को कोसते हैं या फिर दूसरों को दोषी मानते हैं। और नहीं तो भगवान पर ही गुस्सा निकालने लगते हैं।। जैसे ही हमारा जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलने लगता है, तो स्थिति पलटने लगती है। आशा मनुष्य की सबसे बड़ी संपदा है।
प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है, आशा उत्साह की जननी है। उसमें तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालन शक्ति है। यदि व्यक्ति आशा खो बैठता है तो जीवन नैया डूबने लगती है। आशा घोर अभाव और संकट के बीच भी निर्माण के तत्वों की खोज करती है। वह आभासित अभिशाप को भी वरदान में बदल देती है। ठीक इसके उलट , निराशावादी दृष्टिकोण के कारण हम अनुकूल अवसरों में भी प्रतिकूलता देखने लगते हैं। एडीसन आशावादी था , उसने अनुकूल अवसर खोजकर अपने जीवन को नए सिरे से शुरू कर लिया।
इसलिए यदि घटनाएं हमारे अनुरूप नहीं घटतीं और हमें विफलता एवं निराशा का संदेश देती हैं , तो भी हिम्मत हारने एवं हताश होने की आवश्यकता नहीं। चाहे संघर्ष पथ पर हम गिर जाएं , पिट भी जाएं , तो भी यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी असफलता अंतिम नहीं होती। यदि लक्ष्य के प्रति मन में लगन हो , तो विफलता भी गिर कर फिर से उठकर खड़े होने और दुगुने उत्साह के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
आशावादी व्यक्ति व्यावहारिक रुख अपनाते हुए अपने जीवन की छोटी - छोटी सफलताओं से क्रमश : आगे बढ़ता है। अपनी कार्यकुशलता और इच्छाशक्ति को क्रमश : विकसित करता जाता है। यह पद्धति रचनात्मकता का स्रोत बनकर उसे लगातार आगे बढ़ाती रहती है। निराशावादी व्यक्ति जहां एक दरवाजा बंद देखते ही अपना प्रयास छोड़ देता है , वहीं आशावादी व्यक्ति दूसरे खुले दरवाजों की तलाश में जुट जाता है। निराशावादी जहां सतत हारता है , वहीं आशावादी अपनी तात्कालिक विफलताओं के बावजूद एक विजेता बन कर उभरता है।
वास्तव में जब तक हम अपने जीवन के अर्थ एवं सुख की खोज के लिए बाहरी वस्तुओं , व्यक्तियों एवं परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं , तब तक निराशा का भाव भी बार - बार आता है। और जब दृष्टि अपने अंदर के मूल स्रोत की ओर मुड़ने लगती है , तो निराशा का कुहासा भी घटने लगता है।
यहीं पर हमें परमात्मा की कृपा एवं वरदान की भाव भरी अनुभूति होती है। अपने ईमानदार प्रयास के साथ प्रभु प्रेम एवं उसके अचूक न्याय विधान के प्रति आस्था को धारण कर हम अनायास ही आस्तिकता एवं धार्मिकता के पथ पर बढ़ जाते हैं। वही हमें जीवन की सार्थकता के बोध की ओर ले चलती है
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