एक दिव्य विभूति
जन्म एवं बाल्यकाल
हमारी वैदिक हिन्दू संस्कृति का विकास सिंधु नदी के तट से ही प्रारंभ हुआ है। अनेकों ऋषि-मुनियों ने उसके तट पर तपस्यारत होकर आध्यात्मिकता के शिखरों को सर किया है एवं पूरे विश्व क अपने ज्ञान-प्रकाश से प्रकाशित किया है।
उसी पुण्यसलिला सिंधु नदी के तट पर स्थित सिंध प्रदेश के हैदराबाद जिले के महराब चांडाई नामक गाँव में ब्रह्मक्षत्रिय कुल में परहित चिंतक, धर्मप्रिय एवं पुण्यात्मा टोपणदास गंगाराम का जन्म हुआ था। वे गाँव के सरपंच थे। सरपंच होने के बावजूद उनमें जरा-सा भी अभिमान नहीं था। वे स्वभाव से खूब सरल एवं धार्मिक थे। गाँव के सरपंच होने के नाते वे गाँव के लोगों के हित का हमेशा ध्यान रखते थे। भूल से भी लाँच-रिश्वत का एवं हराम का पैसा गर में न आ जाये इस बात का वे खूब ख्याल रखते थे एवं भूल से भी अपने सरपंच पद का दुरुपयोग नहीं करते थे। गाँव के लोगों के कल्याण के लिए ही वे अपनी समय-शक्ति का उपयोग करते थे। अपनी सत्यनिष्ठा एवं दयालुता तथा प्रेमपूर्ण स्वभाव से उन्होंने लोगों के दिल जीत लिए थे। साधु-संतों के लिए तो पहले से ही उनके हृदय में सम्मान था। इन्हीं सब बातों के >फलस्वरूप आगे चलकर उनके घर में दिव्यात्मा का अवतरण हुआ।
वैसे तो उनका कुटुंब सभी प्रकार से सुखी था, दो पुत्रियाँ भी थीं, किन्तु एक पुत्र की कमी उन्हें सदैव खटकती रहती थी। उनके भाई के यहाँ भी एक भी पुत्र-समान नहीं थी।
एक बार पुत्रेच्छा से प्रेरित होकर टोपणदास अपने कुलगुरु श्री रतन भगत के दर्शन के लिए पास के गाँव तलहार में गये। उन्होंने खूब विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर एवं मस्तक नवाकर कुलगुरु को अपनी पुत्रेच्छा बतायी। साधु-संतों के पास सच्चे दिल से प्रार्थना करने वाले को उनके अंतर के आशीर्वाद मिल ही जाते हैं। कुलगुरु ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हुए कहाः
"तुम्हें 12 महीने के भीतर पुत्र होगा जो केवल तुम्हारे कुल का ही नहीं परंतु पूरे ब्रह्मक्षत्रिय समाज का नाम रोशन करेगा। जब बालक समझने योग्य हो जाये तब मुझे सौंप देना।"
संत के आशीरवाद फले। रंग-बिरंगे फूलों का सौरभ बिखेरती हुई वसंत ऋतु का आगमन हुआ। सिंधी पंचाग के अनुसार संवत् 1937 के 23 फाल्गुन के शुभ दिवस पर टोपणदास के घर उनकी धर्मपत्नी हेमीबाई के कोख से एक सुपुत्र का जन्म हुआ।
कुल पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च येन।
'जिस कुल में महापुरुष अवतरित होते हैं वह कुल पवित्र हो जाता है। जिस माता के गर्भ से उनका जन्म होता है वह माता कृतार्थ हो जाती है एवं जिस जगह पर वे जन्म लेते हैं वह वसुन्धरा भी पुण्यशालिनी हो जाती है।'
पूरेकुटुंब एवं गाँव में आनन्द की लहर छा गयी। जन्मकुंडली के अनुसार बालक का नाम लीलाराम रखा गया। आगे जाकर यही बालक लीलाराम प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज ने केवल सिंध देश के ही गाँवों में ज्ञान की ज्योति जगाई हो – ऐसी बात नहीं थी, वरन् पूरे भारत में एवं विदेशों में भी सत्शास्त्रों एवं ऋषि-मुनियों द्वारा दिये गये आत्मा की अमरता के दिव्य संदेश को पहुँचाया था। उन्होंने पूरे विश्व को अपना मानकर उसकी सेवा में ही अपना पूरा जीवन लगा दिया था। वे सच्चे देशभक्त एवं सच्चे कर्मयोगी तो थे ही, महान् ज्ञानी भी थे। भगवान सदैव अपने प्यारे भक्तों को अपनी ओर भोजन के लिए विघ्न-बाधाएँ देकर संसार की असारता का भान करवा देते हैं। यही बात श्री लीलारामजी के साथ भी हुई। पाँच वर्ष की अबोध अवस्था में ही सिर पर से माता का साया चला गया तब चाचा एवं चाची समझबाई ने प्रेमपूर्वक उनके लालन-पालन की सारी जवाबदारी अपने ऊपर ले ली। पाँच वर्ष की उम्र में ही उनके पिता टोपणदास कुलगुरु को दिये गये वचन को पूर्ण करने के लिए उन्हें तलहार में कुलगुरु श्री रतन भगत के पास ले गये एवं प्रार्थना की।
"आपके आशीर्वाद से मिले हुए पुत्र को, आपके दिये गये वचन के अनुसार आपके पास लाया हूँ। अब कृपा करके दक्षिणा लेकर बालक मुझे लौटा दें।"
संत का स्वभाव तो दयालु ही होता है। संत रतन भगत भी टोपणदास का दिल नहीं दुखाना चाहते थे। उन्होंने कहाः
"बालक को आज खुशी से भले ही ले जाओ लेकिन वह तुम्हारे घर में हमेशा नहीं रहेगा। योग्य समय आने पर हमारे पास वापस आ ही जायेगा।"
इस प्रकार आशीर्वाद देकर संत ने बालक को पुनः उसके पिता को सौंप दिया। श्री टोपणदास कुलगुरु को प्रणाम करके खुश होते हुए बालक के साथ घर लौटे।
श्री लीलारामजी का बाल्यकाल सिंधु नदी के तट पर ही खिला था। वे मित्रों के साथ कई बार सिंधु नदी में नहाने जाते। नन्हीं उम्र से ही उन्होंने अपनी निडरता एवं दृढ़ मनोबल का परिचय देना शुरु कर दिया था. जब वे नदी में नहाने जाते तब अपने साथ पके हुए आम ले जाते एवं स्नान के बाद सभी मिलकर आम खाने के लिए बैठ जाते।
उस समय श्री लीलारामजी की अदभुत प्रतिभा के दर्शन होते थे। बच्चे एक-दूसरे के साथ शर्त लगाते कि 'पानी में लंबे समय तक डुबकी कौन मार सकता है?' साथ में आये हुए सभी बच्चे हारकर पानी से बाहर निकल आते किन्तु श्री लीलारामजी पानी में ही रहकर अपने मजबूत फेफड़ों एवं हिम्मत का प्रमाण देते।
श्री लीलारामजी जब काफी देर तक पानी से बाहर न आते तब उनके साथी घबरा जाते लेकिन श्री लीलारामजी तो एकाग्रता एवं मस्ती के साथ पानी में डुबकी लगाये हुए बैठे रहते।
श्री लीलारामजी जब पानी से बाहर आते तब उनके साथी पूछतेः "लीलाराम ! तुम्हें क्या हुआ?"
श्री लीलारामजी सहजता से उत्तर देते हुए कहतेः
"मुझे कुछ भी नहीं हुआ। तुम लोगों को घर जाना हो तो जाओ। मैं तो यही बैठता हूँ।"
श्री लीलारामजी पद्मासन लगाकर स्थिर हो जाते। बाल्यकाल से श्री लीलारामजी ने चंचल मन को वश में रखने की कला को हस्तगत कर लिया था। उनके लिए एकाग्रता का अभ्यास सरल था एवं इन्द्रिय-संयम स्वाभाविक। निर्भयता एवं अंतर्मुखता के दैवी गुण उनमें बचपन से ही दृष्टिगोचर होते थे।
जब श्री लीलारामजी दस वर्ष के हुए तब उनके पिता का देहावसान हो गया। अब तो चाचा-चाची ही माता-पिता की तरह उनका ख्याल रखने लगे। टोपणदास के देहत्याग के बाद गाँव के पंचों ने इस नन्हीं सी उम्र में ही श्री लीलारामजी को सरपंच की पदवी देनी चाही किंतु श्री लीलारामजी को भला इन नश्वर पदों का आकर्षण कहाँ से होता? उन्हें तो पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण संतसमागम एवं प्रभुनाम-स्मरण में ही ज्यादा रूचि थी।
उस समय सिंध के सब गाँवों में पढ़ने के लिए पाठशालाओं की व्यवस्था न थी एवं लोगों में भी पढ़ने-बढ़ने की जिज्ञासा नहीं थी। अतः श्री लीलारामजी भी पाठशाला की शिक्षा के लाभ से वंचित रह गये।
जब वे 12 वर्ष के हुए तब उन्हें उनकी बुआ के पुत्र लखुमल की दुकान पर काम करने के लिए जाना पड़ा ताकि वे जगत के व्यवहार एवं दुनियादारी को समझ सकें। किन्तु इस नश्वर जगत के व्यवहार में श्री लीलारामजी का मन जरा भी नहीं लगता था। उन्हें तो संतसेवा एवं गरीबों की मदद में ही मजा आता था। बहुजनहिताय..... की कुछ घटनाओं के चमत्कार ने नानकजी की तरह श्री लीलारामजी के जीवन में भी एक क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया।
सिक्ख धर्म के आदि गुरु नानकदेव के जीवन में भी एक बार ऐसी ही चमत्कारिक घटना घटी थी।
नानकजी जब छोटे थे तब उनके पिता ने उन्हें सुलतानपुर के नवाब दौलतखान की अनाज की दुकान पर अपने बहनोई के साथ काम करने के लिए कहा।
संसारी लोग तो भजन के समय भी भजन नहीं कर पाते। भजन के समय भी उनका मन संसार में ही भटकता है। किन्तु नानकजी जैसे भगवान के प्यारे तो व्यवहार को भी भक्ति बना देते हैं।
नानक जी दुकान में काम करते वक्त कई बार गरीब ग्राहकों को मुफ्त में वस्तुएँ दे देते। यह बात नवाब के कानों तक जाने लगी। गाँव के लोग जाकर नवाब के कान भरतेः "इस प्रकार दुकान कब तक चलेगी? यह लड़का तो आपकी दुकान बरबाद कर देगा।"
एक बार एक ऐसी घटना भी घटी जिससे नवाब को लोगों की बात की सच्चाई को जानना आवश्यक लगने लगा।
उस दिन नानकजी दुकान पर अनाज तौल-तौलकर एक ग्राहक के थैले में डाल रहे थे। '1... 2....3....4....' इस प्रकार संख्या की गिनती करते जब संख्या 13 पर पहुँची तो फिर आगे 14 तक न बढ़ सकी क्योंकि नानकजी के मुख से 'तेरा' (तेरह) शब्द निकलते ही वे सब भूल गये कि 'मैं किसी दुकान पर अनाज तौलने का काम कर रहा हूँ।' 'तेरा... तेरा....' करते-करते वे तो परमात्मा की ही याद में तल्लीन हो गये कि 'हे प्रभु ! मैं तेरा हूँ और यह सब भी तेरा ही है।'
फिर तो 'तेरा-तेरा...' की धुन में नानकजी ने कई बार अनाज तौलकर ग्राहक को दे दिया।
लोगों की नज़र में तो नानकजी यंत्रवत् अनाज तौल रहे थे, किन्तु नानकजी उस समय अपने प्रभु की याद में खो गये थे। इस बात की शिकायत भी नवाब तक पहुँची। फिर नवाब ने दुकान पर सामान एवं पैसों की जाँच करवायी तो घाटे की जगह पर कुछ पैसे ज्यादा ही मिले ! यह चमत्कार देखकर नवाब ने भी नानकजी से माफी माँगी।
जो भक्त अपनी चिंता को भूलकर भगवान के ध्यान में लग जाता है उसकी चिंता परमात्मा स्वयं करते हैं। श्रीमद भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा हैः
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
'जो अनन्य भाव से मेरे में स्थित हुए भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य एकीभाव से मेरे में स्थितिवाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ।'
(गीताः 9.22)
ऐसी ही चमत्कारिक घटना श्री लीलारामजी के जीवन में भी घटी। श्री लीलारामजी का जन्म जिस गाँव में हुआ था, वह महराब चांडाई नामक गाँव बहुत छोटा था। उस जमाने में दुकान में बेचने के लिए सामान टंगेबाग से लाना पड़ता था। भाई लखुमल वस्तुओं की सूची एवं पैसे देकर श्री लीलारामजी को खरीदी करने के लिए भेजते थे।
एक समय की बात हैः उस वर्ष मारवाड़ एवं थर में बड़ा अकाल पड़ा था। लखुमल ने पैसे देकर श्री लीलारामजी को दुकान के लिए खरीदी करने को भेजा। श्री लीलारामजी खरीदी करके, माल-सामान की दो बैलगाड़ियाँ भरकर अपने गाँव लौट रहे थे। गाड़ियों में आटा, दाल, चावल, गुड़, घी आदि था। रास्ते में एक जगह पर गरीब, पीड़ित, अनाथ एवं भूखे लोगों ने श्री लीलाराम जी को घेर लिया। दुर्बल एवं भूख से व्याकुल लोग जब अनाज के लिए गिड़गिड़ाने लगे तब श्री लीलारामजी का हृदय पिघल उठा। वे सोचने लगे। 'इस माल को मैं भाई की दुकान पर ले जाऊँगा। वहाँ से खरीदकर भी मनुष्य ही खायेंगे न....! ये सब भी तो मनुष्य ही हैं। बाकी बची पैसे के लेन-देन की बात... तो प्रभु के नाम पर भले ये लोग ही खा लें।'
श्री लीलारामजी ने बैलगाड़ियाँ खड़ी करवायीं और उन क्षुधापीड़ित लोगों से कहाः
"यह रहा सब सामान। तुम लोग इसमें से भोजन बना कर खा लो।"
भूख से कुलबुलाते लोगों ने तो दोनों बैलगाड़ियों को तुरंत ही खाली कर दिया। श्री लीलारामजी भय से काँपते, थरथराते गाँव में पहुँचे। खाली बोरों को गोदाम में रख दिया। कुँजियाँ लखुमल को दे दीं। लखुमल ने पूछाः
"माल लाया?"
"हाँ।"
"कहाँ है?"
"गोदाम में।"
"अच्छा बेटा ! जा, तू थक गया होगा। सामान का हिसाब कल देख लेंगे।"
दूसरे दिन श्री लीलारामजी दुकान पर गये ही नहीं। उन्हें तो पता था कि गोदाम में क्या माल रखा है। वे घबराये, काँपने लगे। उनको काँपते हुए देखकर लखुमल ने कहाः "अरे ! तुझे बुखार आ गया? आज घर पर आराम ही कर।"
एक दिन.... दो दिन.... तीन दिन..... श्री लीलारामजी बुखार के बहाने दिन बिता रहे हैं और भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं-
"हे भगवान ! अब तो तू ही जान। मैं कुछ नहीं जानता। हे करन-करावनहार स्वामी ! तू ही सब कराता है। तूने ही भूखे लोगों को खिलाने की प्रेरणा दी। अब सब तेरे ही हाथ में है, प्रभु ! तू मेरी लाज रखना। मैं कुछ नहीं, तू ही सब कुछ है...."
एक दिन शाम को लखुमल अचानक श्री लीलारामजी के पास आये और बोलेः
''लीला.... लीला ! तू कितना अच्छा माल लेकर आया है !"
श्री लीलारामजी घबराये। काँप उठे कि 'अच्छा माल.... अच्छा माल कहकर अभी लखुमल मेरे कान पकड़कर मारेंगे। वे हाथ जोड़कर बोलेः
"मेरे से गल्ती हो गयी।"
"नहीं बेटा ! गलती नहीं हुई। मुझे लगता था कि व्यापारी तुझे कहीं ठग न लें। ज्यादा कीमत पर घटिया माल न पकड़ा दें। किन्तु सभी चीजें बढ़िया हैं। पैसे तो नहीं खूटे न?"
"नहीं, पैसे तो पूरे हो गये और माल भी पूरा हो गया।"
"माल किस तरह पूरा हो गया?"
श्री लीलाराम जी जवाब देने में घबराने लगे तो लखुमल ने कहाः "नहीं बेटा ! सब ठीक है। चल, तुझे बताऊँ।"
ऐसा कहकर लखुमल श्री लीलारामजी का हाथ पकड़कर गोदाम में ले गये। श्री लीलारामजी ने वहाँ जाकर देखा तो सभी खाली बोरे माल-सामान से भरे हुए मिले ! उनका हृदय भावविभोर हो उठा और गदगद होते हुए उन्होंने परमात्मा को धन्यवाद दियाः
'प्रभु ! तू कितना दयालु है.... कितना कृपालु है !'
श्रीलीलाराम जी ने तुरंत ही निश्चय कियाः 'जिस परमात्मा ने मेरी लाज रखी है.... गोदाम में बाहर से ताला होने पर भी भीतर के खाली बोरों को भर देने की जिसमें शक्ति है, अब मैं उसी परमात्मा को खोजूँगा..... उसके अस्तित्व को जानूँगा.... उसी प्यारे को अब अपने हृदय में प्रगट करूँगा।'
अब श्री लीलारामजी का मन धीरे-धीरे ईश्वराभिमुख होने लगा। हर पल उनका बढ़ता जाता ईश्वरीय अनुराग, उन्हें आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर करने लगा। तन से तो वे दुकान सँभालते किंतु मन सदैव परमात्म-प्राप्ति के लिए व्याकुल रहते।
एक बार श्री लीलारामजी बैलगाड़ी के ऊपर सामान लादकर जंगी नामक गाँव में बेचने जा रहे थे तब जीवाई नामक एक महिला ने श्री लीलाराम जी के पास से थोड़ा सामान खरीदा। उसमें से तौलते वक्त एक चीज का वजन उस महिला को कम लगा। उसने तुरंत ही बालक श्री लीलारामजी को एक थप्पड़ मारते हुए कहाः
"तू सामान कम देकर हमें लूटता है? यह तुझे आधा सेर लगता है?"
तब श्री लीलारामजी ने शांतिपूर्वक कहाः
"माँ ! सामान तो बराबर तौलकर दिया है फिर भी तुम्हें शंका हो तो फिर से तौल दूँ?"
श्रीलीलारामजी ने सामान तौला तो उसका वजन आधे सेर की जगह पौना सेर निकला। जीवाई शरमा गयी एवं श्री लीलारामजी के पैरों पड़ी। सरल हृदय के श्री लीलारामजी को जरा भी क्रोध न आया। उलटे वे ही उस महिला से माफी माँगने लगे।
उसी दौरान् एक ऐसी ही दूसरी घटना घटी जिसे लेकर श्री लीलारामजी की जिज्ञासा ज्यादा तीव्र हो गयी।
उस गाँव में जीवा नामक एक शिकारी रहता था। अकाल का समय था। बाल-बच्चों वाला जीवा अपने बच्चों की भूख को न मिटा सका। अनाज की गाड़ी लेकर जब श्री लीलारामजी जा रहे थे तब रास्ते में थका हारा जीवा श्री लीलारामजी के पास आया और याचना करने लगाः "मेरे बच्चे भूख से कुलबुला रहे हैं। थोड़ा सा अनाज दे दें तो बच्चों को जीवनदान मिल सके।"
श्री लीलारामजी ने जीवा की लाचारी को समझा। भूख से अंदर धँसी हुई आँखें उसकी दयाजनक स्थिति का संकेत दे रही थीं। श्री लीलारामजी परिस्थिति पा गये।
वैष्णवजन तो तेने रे कहिए, जे पीड़ पराई जाणे रे.....
जीवा के परिवार की ऐसी करूण स्थिति ने उन्हें हिलाकर रख दिया। क्षण का भी विचार किये बिना आधे मन अनाज से उसका थैला भर दिया।
उस जमाने में पैसे का लेन-देन बहुत कम था। छोटे-छोटे गाँवों में सामान की अदला-बदली ही ज्यादा होती थी। जीवा शिकारी चल पड़ा लखुमल की दुकान की ओर। वहाँ थोड़ा-सा अनाज देकर मिर्च-मसाले ले लिये। जब लखुमल ने जीवा से पूछाः "तुझे अनाज कहाँ से मिला?"
तब जीवा ने बतायाः "यह अनाज लीलाराम के पास से दान में मिला है।"
ऐसा कहकर लखुमल के आगे श्री लीलारामजी की खूब प्रशंसा करते हुए आशीर्वाद बरसाने लगा।
लखुमल विचार में पड़ गये। उन्हें हुआ कि इस बार लीलाराम का हिसाब ठीक से जाँच लेना पड़ेगा। जब श्री लीलारामजी ने हिसाब दिया तो पैसे ज्यादा आये ! लखुमल ज्यादा उलझ गये। उन्होंने श्री लीलारामजी से पूछाः "पहले के किसी के पैसे लेने-देने के तो इस हिसाब में नहीं हैं न?"
जब श्री लीलारामजी ने खूब सरलता से बताया कि 'किसी का भी आगे पीछे का कोई भी हिसाब बाकी नहीं है।' तब लखुमल की उलझन और बढ़ गयी।
अब तो उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने निश्चय किया कि जैसे भी हो खुद जाँच किये बिना इस उलझन को नहीं सुलझाया जा सकता। दूसरी बार जब उन्होंने श्री लीलारामजी को सामान खरीदने के लिए भेजा तब वह स्वयं भी छिपकर श्री लीलारामजी की लीला को देखने लगे।
जब श्री लीलारामजी अच्छी तरह खरीदी करके वापस लौटने लगे तब रास्ते में गरीब-गुरबों, भूखे-प्यासों को अनाज बाँटने लगे। लखुमल ने श्री लीलारामजी की इस दयालुता एवं दानवृत्ति को देखा, गरीबों की तरफ उनका निष्काम भाव देखा। वह सब लखुमल छिपकर ही देखते रहे। जब श्री लीलारामजी घर पहुँचे तब लखुमल ने मानो, कुछ न हुआ हो इस प्रकार सारा हिसाब लिया तो आश्चर्य ! हिसाब बराबर ! सामान भी बराबर !! कहीं कोई घाटा नहीं !!!
श्री लीलारामजी अपनी उदारता एवं सरलता से खूब लोकप्रिय हो गये इसलिए दूसरे दुकानदारों को श्री लीलारामजी से ईर्ष्या होने लगी। मौका मिलते ही वे लखुमल के कान भरतेः "तुम्हारे मामा का लड़का अपनी दानवृत्ति से तुम्हें पूरा दिवालिया बना देगा। उससे सँभलना।"
तब लखुमल ने स्पष्ट करते हुए कहाः "मैं रोज सूची के अनुसार सामान एवं पैसों की जाँच कर लेता हूँ। मुझे तो कभी भी, कहीं भी गड़बड़ नहीं दिखी। उलटे मेरा व्यापार एवं नफा दोनों बढ़ने लगा है। मैं किस प्रकार उस पर शंका कर सकता हूँ?"
श्री लीलारामजी की सहृदयता एवं परोपकार की वृत्ति को देखकर लखुमल के हृदय में श्री लीलारामजी के लिए आदर एवं भक्तिभाव उदित होने लगा। खुद के द्वारा की गयी जाँच से भी लखुमल का यह विश्वास दृढ़ ह गया कि लीलाराम कोई साधारण बालक नहीं है। उसमें कई दिव्य शक्तियों का भण्डार है, बालक अलौकिक है।
श्री लीलारामजी को भी गाँव के व्यापारियों द्वारा की जाने वाली शिकायतों का अंदाज लग गया था। लखुमल कुछ न कहते और श्री लीलारामजी भी विरक्तभाव से सब घटनाओं को देखते रहते। फिर भी गहराई में एक ही चिंतन चलता रहता कि 'इस दान की कमी को पूरा करने वाला कौन?'
इस कमी को पूरा करने वाले के प्रति उनका आकर्षण बढ़ता गया। जिज्ञासा की तीव्रता बढ़ने लगी। श्री लीलारामजी को दृढ़ विश्वास हो गया कि 'इस ब्रह्माण्ड में कोई सबसे बड़ा दानी है जिसकी दानवृत्ति स ही सारे ब्रह्माण्ड का व्यवहार चलता है। मुझे उसी दाता प्रभु को जानना है।' मैंनें कुछ दान किया है या अच्छा काम किया है – इस बात का उन्हें जरा भी अहं न था। दूसरों के हित को ध्यान में रखकर, निष्काम भाव से कर्म करने वाले की सेवा में तो प्रकृति भी दासी बनकर हाजिर रहती है।
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको देत है, क्या लागत है मोर।।
उपरोक्त चमत्कारिक घटनाओं ने श्री लीलारामजी को अधिक सजग कर दिया। उनके अंतरतम में वैराग्य की अग्नि अधिकाधिक प्रज्वलित होने लगी। अब वे अपना अधिकाधिक समय ईश्वर की आराधना में बिताने लगे।
अनुक्रम
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Thursday, March 11, 2010
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