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Monday, March 22, 2010

ईश्वर दयालु हैं,प्रेमी है।उन्की दया और प्रेम सब जगह परिपूण हो रहे है।अणु-अणु में उन्की दया और प्रेम को देखकर मुग्ध होना चहिये।हर समय प्रसन्न रहना चहिए।इसको साधन बना लेना चहिये।


सर्वांश में निर्दोश होने की रुचि जाग्रत होते ही प्राणि बङी ही सुगमतापूर्वक क्षमायाचना कर सक्ता है और दोष को न दुहराने का व्रत लेकर अपने में निर्दोषता की स्थापना कर सकता है,जिसके करते हि चित सुध हो जाता है

 कर्ता जैसा अपने को मान लेता है,उसके अनुरुप ही कर्म होता है।किन्तु उस कर्म का संस्कार कर्ता की रुचि के अनुसार न होकर कर्म के अनुसार अंकित होता है,इस कारण दोषयुक्त प्रवति से दोषी-भाव की स्थापना स्वत: हो जाती है।

 प्रभुका यह कायदा है कि जिस भक्त को अपने में कुछ भी विशेषता नही दीखती,अपने में किसी बातका अभिमान नहीं होता,उस भक्त में भगवान की विलक्षणता उतर आती है।

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