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Wednesday, April 14, 2010

वासुदेव: सर्वम्।’

जैसे, समुद्रमें तरंगें उठती हैं, बुदबुद पैदा होते हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर यह सब-का-सब जल ही है । इस जलसे भाप निकलती है । वह भाप बादल बन जाती है । बादलोंसे फिर वर्षा होती है । कभी ओले बरसते हैं । वर्षाका जल बह करके सरोवर, नदी-नालेमें चला जाता है । नदी समुद्रमें मिल जाती है । इस प्रकार एक ही जल कभी समुद्र रूपसे, कभी भाप रूपसे, कभी बूँद रूपसे, कभी ओला रूपसे, कभी नदी रूपसे और कभी आकाशमें परमाणु रूपसे हो जाता है । समुद्र, भाप, बादल, वर्षा, बर्फ, नदी आदिमें तो फर्क दीखता है, पर जल तत्त्वमें कोई फर्क नहीं है । केवल जल-तत्त्वको ही देखें तो उसमें न समुद्र है, न भाप है, न बूँदें हैं, न ओले हैं, न नदी है, न तालाब है । ये सब जलकी अलग-अलग उपाधियाँ हैं । तत्त्वसे एक जलके सिवाय कुछ भी नहीं है । इसी तरह सोनेके अनेक गहने होते हैं । उनका अलग-अलग उपयोग, माप-तौल, मूल्य, आकार आदि होते हैं । परन्तु तत्त्वसे देखें तो सब सोना-ही-सोना है । पहले भी सोना था, अन्तमें भी सोना रहेगा और बीचमें अनेक रूपसे दीखने पर भी सोना ही है। मिट्टीसे घड़ा, हाँडी, ढक्कन, सकोरा आदि कोई चीजें बनती हैं । उन चीजोंका अलग-अलग नाम, रूप, उपयोग आदि होता है । परन्तु तत्त्वसे देखें तो उनमें एक मिट्टीके सिवाय कुछ भी नहीं है । पहले भी मिट्टी थी, अन्तमें भी मिट्टी रहेगी और बीचमें भी अनेक रूपसे दीखने पर भी मिट्टी ही है । इसी प्रकार पहले भी परमात्मा थे, बादमें भी परमात्मा रहेंगे और बीचमें संसार रूपसे अनेक दीखने पर भी तत्त्व से परमात्मा ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्।’

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