Tuesday, July 13, 2010
अपने को न जान सके तो संसार को जान कर भी तो अज्ञानी ही रहोगे। अपने सम्बन्ध में जब अज्ञान बना है तो दूसरे का ज्ञान होकर ही क्या होगा। अपने घर में कूड़ा - करकट भरा रहे और दूसरे के मकानों में झाड़ू देते फिरो, यह तो कोई बुद्धिमानी नहीं है। जिस दिन अपने को जान लोगे उसी दिन मन की सारी गरीबी निकल जायगी और सुख - शान्ति का अनुभव होने लगेगा।
Monday, July 12, 2010
Nale Alakh je bedo tar muhijo
Tu thambo ,Tu thuni , To bina na koi adhar
Jiwan ki sham hone se pahele use pa le , Satkaryo ka shingar kar de , He Gurukripa tu hamare sath rahena , Duniya Bhale dhikkare , Tu na dhikkar je , Bigadi muhuji tu banayenge , Rahamat jo tu dhani aahi , Muhiji bedi par lagayagi , He data tu nirakar , nirlep , Nirvar aahi muhija bazara sai muhiji Bedi par lagayagi , Om shanti , om Anand , Om Madhurya , Om Mere moula , Tere bina , na koi sahara no koi sathi , na koi rahbar , na koi Taranhar mere data mere moula , Apni kripa barasate rahaena , apni nigaho me hame hamesha rakahate rahena , Bara bar Garbho ki juniyo me nahi bhatakana mere data , Bas kisise nibhaye ya nibhaye bas tere se nibhaye , Kuch paye na paye bas tuje pa le , Teri kripa ko pa le tujme samake tum ho jaye mere data , Bookmark
Tu thambo ,Tu thuni , To bina na koi adhar
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मनुष्य और पशु में अगर अन्तर देखना हो तो बल में मनुष्य से कई पशु आगे हैं जैसे सिंह, बाघ आदि। मानुषी बल से इनका बल अधिक होता है। हाथी का तो कहना ही क्या ? फिर भी मनुष्य महावत, छः सौ रूपये की नौकरी वाला, चपरासी की योग्यतावाला मनुष्य हाथी, सिंह और भालू को नचाता है, क्योंकि पशुओं के शारीरिक बल की अपेक्षा मनुष्य में मानसिक सूक्ष्मता अधिक है।
मनुष्य के बच्चों में और पशुओं के बच्चों में भी यह अन्तर है कि पशु के बच्चे की अपेक्षा मनुष्य का बच्चा अधिक एकाग्र है। पशुओं के बच्चों को जो बात सिखाने में छः मास लगते हैं, फिर भी सैंकड़ों बेंत लगाने पड़ते हैं वह बात मनुष्य के बेटे को कुछ ही मिनटों में सिखाई जा सकती है। क्योंकि पशुओं की अपेक्षा मनुष्य के मन, बुद्धि कुछ अंशों में ज्यादा एकाग्र एवं विकसित है।
इसलिए मनुष्य उन पर राज्य करता है।
मनुष्य के बच्चों में और पशुओं के बच्चों में भी यह अन्तर है कि पशु के बच्चे की अपेक्षा मनुष्य का बच्चा अधिक एकाग्र है। पशुओं के बच्चों को जो बात सिखाने में छः मास लगते हैं, फिर भी सैंकड़ों बेंत लगाने पड़ते हैं वह बात मनुष्य के बेटे को कुछ ही मिनटों में सिखाई जा सकती है। क्योंकि पशुओं की अपेक्षा मनुष्य के मन, बुद्धि कुछ अंशों में ज्यादा एकाग्र एवं विकसित है।
इसलिए मनुष्य उन पर राज्य करता है।
कभी व्यर्थ की निन्दा होने लगेगी। इससे भयभीत न हुए तो बेमाप प्रशंसा मिलेगी। उसमें भी न उलझे तब प्रियतम परमात्मा की पूर्णता का साक्षात्कार हो जाएगा।
दर्द दिल में छुपाकर मुस्कुराना सीख ले।
गम के पर्दे में खुशी के गीत गाना सीख ले।।
तू अगर चाहे तो तेरा गम खुशी हो जाएगा।
मुस्कुराकर गम के काँटों को जलाना सीख ले।।
दर्द दिल में छुपाकर मुस्कुराना सीख ले।
गम के पर्दे में खुशी के गीत गाना सीख ले।।
तू अगर चाहे तो तेरा गम खुशी हो जाएगा।
मुस्कुराकर गम के काँटों को जलाना सीख ले।।
Saturday, July 10, 2010
'मैं हूँ' यह तो सबका अनुभव है लेकिन 'मैं कौन हूँ' यह ठीक से पता नहीं है। संसार में प्रायः सभी लोग अपने को शरीर व उसके नाम को लेकर मानते हैं कि 'मैं अमुक हूँ... मैं गोविन्दभाई हूँ।' नहीं.... यह हमारी वास्तविक पहचान नहीं है। अब हम इस साधना के जरिये हम वास्तव में कौन हैं.... हमारा असली स्वरूप क्या है.... इसकी खोज करेंगे। अनन्त की यह खोज आनन्दमय यात्रा बन जायेगी।
सुख और दुःख हमारे जीवन के विकास के लिए नितान्त आवश्यक है। चलने के लिए दायाँ और बायाँ पैर जरूरी है, काम करने के लिए दायाँ और बायाँ हाथ जरूरी है, चबाने के लिए ऊपर का और नीचे का जबड़ा जरूरी है वैसे ही जीवन की उड़ान के लिए सुख व दुःखरूपी दो पंख जरूरी हैं। सुख-दुःख का उपयोग हम नहीं कर पाते, सुख-दुःख से प्रभावित हो जाते हैं तो जीवन पर आत्मविमुख होकर स्थूल-सूक्ष्म-कार
सुख-दुःख का उपयोग हम नहीं कर पाते, सुख-दुःख से प्रभावित हो जाते हैं तो जीवन पर आत्मविमुख होकर स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर से बँधे ही रह जाते हैं। अपने मुक्त स्वभाव का पता नहीं चलता।
सुख और दुःख हमारे जीवन के विकास के लिए नितान्त आवश्यक है। चलने के लिए दायाँ और बायाँ पैर जरूरी है, काम करने के लिए दायाँ और बायाँ हाथ जरूरी है, चबाने के लिए ऊपर का और नीचे का जबड़ा जरूरी है वैसे ही जीवन की उड़ान के लिए सुख व दुःखरूपी दो पंख जरूरी हैं। सुख-दुःख का उपयोग हम नहीं कर पाते, सुख-दुःख से प्रभावित हो जाते हैं तो जीवन पर आत्मविमुख होकर स्थूल-सूक्ष्म-कार
सुख-दुःख का उपयोग हम नहीं कर पाते, सुख-दुःख से प्रभावित हो जाते हैं तो जीवन पर आत्मविमुख होकर स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर से बँधे ही रह जाते हैं। अपने मुक्त स्वभाव का पता नहीं चलता।
Friday, July 9, 2010
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..
जो सुख पाऊँ राम भजन में
सो सुख नाहिं अमीरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..
जैसे प्रकाश के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना कोई सिद्धि नहीं होती।
जब तुम अपनी सहायता करते हो तो ईश्वर भी तुम्हारी सहायता करता ही है। फिर दैव (भाग्य) तुम्हारी सेवा करने को बाध्य हो जाता है।
आखिर यह तन छार मिलेगा
कहाँ फिरत मग़रूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..
प्रेम नगर में रहनी हमारी
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..
कहत कबीर सुनो भयी साधो
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..
जब तक 'तू' और 'तेरा' जिन्दे रहेंगे तब तक परमात्मा तेरे लिये मरा हुआ है। 'तू' और 'तेरा' जब मरेंगे तब परमात्मा तेरे जीवन में सम्पूर्ण कलाओं के साथ जन्म लेंगे। यही आखिरी मंजिल है। विश्व भर में भटकने के बाद विश्रांति के लिए अपने घर ही लौटना पड़ता है। उसी प्रकार जीवन की सब भटकान के बाद इसी सत्य में जागना पड़ेगा, तभी निर्मल, शाश्वत सुख उपलब्ध होगा।
आत्मशान्ति की प्राप्ति के लिए समय अल्प है, मार्ग अटपटा है। खुद को समझदार माननेवाले बड़े बड़े तीसमारखाँ भी इस मार्ग की भूलभूलैया से बाहर नहीं निकल पाये। वे जिज्ञासु धन्य हैं जिन्होंने सच्चे तत्त्ववेत्ताओं की छत्रछाया में पहुँच कर साहसपूर्वक आत्मशांति को पाने के लिए कमर कसी है।
दुःख से आत्यान्तिक मुक्ति पानी हो तो संत का सान्निध्य प्राप्त कर आत्मदेव
दुःख से आत्यान्तिक मुक्ति पानी हो तो संत का सान्निध्य प्राप्त कर आत्मदेव को जानो।
तुम्हारे भीतर वह निर्भयस्वरूप आत्मदेव बैठा हुआ है, फिर भी तुम भयभीत होते हो ? अपने निर्भय स्वरूप को जानो और सब निर्बलताओं से मुक्त हो जाओ। उखाड़ फेंको अपनी सब गुलामियों को, कमजोरियों को। दीन-हीन-भयभीत जीवन को घसीटते हुए जीना भी कोई जीवन जीना है ?
Hey Prabhu,kab aayenghe woh pal jab hum gurudev jho hum dena chate hai usmein range de apne ko.Gurudev abh is sansaari khilono se dil nahi behlana hai apni us noorani masti mein mast hona hai.Apne us alakh ki masti mein khona hai,jah na mein rahu,na janm ho ,na mrtyu ho,na desh,na kal,apne ko uss noorani masti mein khota chal....Hey sadhak.
साधना के राह पर हजार विघ्न होंगे, लाख-लाख काँटे होंगे। उन सब पर निर्भयतापूर्वक पैर रखोगे तो वे काँटे फूल बन जायेंगे।
नाथ! आप तो दीनबन्धु हैं! करुणासागर हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कठोर बन जायँगे?आप तो अकारण ही प्रेमकरनेवाले हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कारण खोजेंगे? हे नाथ! विशेष न तरसाईये! अपनी विरद की तरफ देखकर ही हमें प्रेम-प्रदान कीजिये।इस जीवन को रसमय बना दीजिये।इस हृदय में तो तनिक भी प्रेम नहीं है!
यह तन(शरीर) विष की बेलरी,गुरु अमृत की खान,शीश दिए सतगुरु मिले,तो भी सस्ता जान.......
जो सुख पाऊँ राम भजन में
सो सुख नाहिं अमीरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..
जैसे प्रकाश के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना कोई सिद्धि नहीं होती।
जब तुम अपनी सहायता करते हो तो ईश्वर भी तुम्हारी सहायता करता ही है। फिर दैव (भाग्य) तुम्हारी सेवा करने को बाध्य हो जाता है।
आखिर यह तन छार मिलेगा
कहाँ फिरत मग़रूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..
प्रेम नगर में रहनी हमारी
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..
कहत कबीर सुनो भयी साधो
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..
जब तक 'तू' और 'तेरा' जिन्दे रहेंगे तब तक परमात्मा तेरे लिये मरा हुआ है। 'तू' और 'तेरा' जब मरेंगे तब परमात्मा तेरे जीवन में सम्पूर्ण कलाओं के साथ जन्म लेंगे। यही आखिरी मंजिल है। विश्व भर में भटकने के बाद विश्रांति के लिए अपने घर ही लौटना पड़ता है। उसी प्रकार जीवन की सब भटकान के बाद इसी सत्य में जागना पड़ेगा, तभी निर्मल, शाश्वत सुख उपलब्ध होगा।
आत्मशान्ति की प्राप्ति के लिए समय अल्प है, मार्ग अटपटा है। खुद को समझदार माननेवाले बड़े बड़े तीसमारखाँ भी इस मार्ग की भूलभूलैया से बाहर नहीं निकल पाये। वे जिज्ञासु धन्य हैं जिन्होंने सच्चे तत्त्ववेत्ताओं की छत्रछाया में पहुँच कर साहसपूर्वक आत्मशांति को पाने के लिए कमर कसी है।
दुःख से आत्यान्तिक मुक्ति पानी हो तो संत का सान्निध्य प्राप्त कर आत्मदेव
दुःख से आत्यान्तिक मुक्ति पानी हो तो संत का सान्निध्य प्राप्त कर आत्मदेव को जानो।
तुम्हारे भीतर वह निर्भयस्वरूप आत्मदेव बैठा हुआ है, फिर भी तुम भयभीत होते हो ? अपने निर्भय स्वरूप को जानो और सब निर्बलताओं से मुक्त हो जाओ। उखाड़ फेंको अपनी सब गुलामियों को, कमजोरियों को। दीन-हीन-भयभीत जीवन को घसीटते हुए जीना भी कोई जीवन जीना है ?
Hey Prabhu,kab aayenghe woh pal jab hum gurudev jho hum dena chate hai usmein range de apne ko.Gurudev abh is sansaari khilono se dil nahi behlana hai apni us noorani masti mein mast hona hai.Apne us alakh ki masti mein khona hai,jah na mein rahu,na janm ho ,na mrtyu ho,na desh,na kal,apne ko uss noorani masti mein khota chal....Hey sadhak.
साधना के राह पर हजार विघ्न होंगे, लाख-लाख काँटे होंगे। उन सब पर निर्भयतापूर्वक पैर रखोगे तो वे काँटे फूल बन जायेंगे।
नाथ! आप तो दीनबन्धु हैं! करुणासागर हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कठोर बन जायँगे?आप तो अकारण ही प्रेमकरनेवाले हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कारण खोजेंगे? हे नाथ! विशेष न तरसाईये! अपनी विरद की तरफ देखकर ही हमें प्रेम-प्रदान कीजिये।इस जीवन को रसमय बना दीजिये।इस हृदय में तो तनिक भी प्रेम नहीं है!
यह तन(शरीर) विष की बेलरी,गुरु अमृत की खान,शीश दिए सतगुरु मिले,तो भी सस्ता जान.......
Thursday, July 8, 2010
भगवान् हमारे हैं और हम भगवान् के हैं—यह सच्ची बात है । इसलिये भजन-ध्यान करते हुए इस बातको विशेषतासे याद रखें कि भगवान् अभी हैं, यहाँ हैं, मेरेमें हैं और मेरे हैं । अब निराशाकी जगह ही कहाँ है ?
God is ours and I am God’s – this is the truth. Therefore during worship, reverence and meditating on God, especially remember this point, that God is present right now, right here, in me and He is mine. Now where is there any place for feeling of hopelessness?
God is ours and I am God’s – this is the truth. Therefore during worship, reverence and meditating on God, especially remember this point, that God is present right now, right here, in me and He is mine. Now where is there any place for feeling of hopelessness?
प्रतीति संसार की होती है, प्राप्ति परमात्मा की होती है।"
माया दुस्तर है लेकिन मायापति की शरण जाने से माया तरना सुगम हो जाता है।"
जितने जन्म-मरण हो रहे हैं वे प्रज्ञा के अपराध से हो रहे हैं। अतः प्रज्ञा को दैवी सम्पदा करके यहीं मुक्ति का अनुभव करो।"
कर्म का बदला जन्म-जन्मान्तर लेकर भी चुकाना पड़ता है। अतः कर्म करने में सावधान.... और कर्म का फल भोगने में प्रसन्न....।"
मनुष्य जैसा सोचता है वैसा हो जाता है। मन कल्पतरू है। अतः सुषुप्त दिव्यता को, दिव्य साधना से जगाओ। अपने में दिव्य विचार भरो।"
जैसे बचपन में ये लोलीपॉप चाटने की या चाकलेट खाने की कला तुम बड़ी कला समझते थे ऐसे ही दुनिया भर की सारी कलाएँ चाकलेट खाने जैसी ही कलाएँ हैं, कोई बड़ी कला नहीं है। सब प्रतीति मात्र है, पेट भरने की कलाएँ हैं। धोखा है धोखा। कितना भी कमा लिया, कितना भी खा लिया, पी लिया, सुन लिया, देख लिया लेकिन जिस शरीर को खिलाया-पिलाया, सुनाया-दिखाया उस शरीर को तो जला देना है।
कर सत्संग अभी से प्यारे
नहीं तो फिर पछताना है।
खिला-पिलाकर देह बढ़ाई
वह भी अग्नि में जलाना है।।
माया दुस्तर है लेकिन मायापति की शरण जाने से माया तरना सुगम हो जाता है।"
जितने जन्म-मरण हो रहे हैं वे प्रज्ञा के अपराध से हो रहे हैं। अतः प्रज्ञा को दैवी सम्पदा करके यहीं मुक्ति का अनुभव करो।"
कर्म का बदला जन्म-जन्मान्तर लेकर भी चुकाना पड़ता है। अतः कर्म करने में सावधान.... और कर्म का फल भोगने में प्रसन्न....।"
मनुष्य जैसा सोचता है वैसा हो जाता है। मन कल्पतरू है। अतः सुषुप्त दिव्यता को, दिव्य साधना से जगाओ। अपने में दिव्य विचार भरो।"
जैसे बचपन में ये लोलीपॉप चाटने की या चाकलेट खाने की कला तुम बड़ी कला समझते थे ऐसे ही दुनिया भर की सारी कलाएँ चाकलेट खाने जैसी ही कलाएँ हैं, कोई बड़ी कला नहीं है। सब प्रतीति मात्र है, पेट भरने की कलाएँ हैं। धोखा है धोखा। कितना भी कमा लिया, कितना भी खा लिया, पी लिया, सुन लिया, देख लिया लेकिन जिस शरीर को खिलाया-पिलाया, सुनाया-दिखाया उस शरीर को तो जला देना है।
कर सत्संग अभी से प्यारे
नहीं तो फिर पछताना है।
खिला-पिलाकर देह बढ़ाई
वह भी अग्नि में जलाना है।।
Wednesday, July 7, 2010
Guru poonam ke anmol moti
*संसार में तू जाय तो सँभल-सँभलकर कदम रखना। संसार में उत्साह से कर्तव्यपालन
करना। संसार का कार्य उत्साह से, शास्त्रीय ढंग से करना। यदि परिणाम चाहे भी तो
शाश्वत चाहना और शाश्वत परिणाम साक्षात्कार ही है। तू अहंकार, वासना या काम की
कठपुतली होकर कार्य नहीं करना। तभी तू राम में विश्रांति पायेगा। जितना तू राम
में विश्रांति पायेगा उतना ही मेरा चित्त प्रसन्न होगा। जब-जब विकारों का सामना
हो, तब-तब सावधान रहना। तू फिसल जाय यह दुःख की बात है पर निराशा की बात नहीं
है। तू फिर-फिर से खड़ा होना। मैं फिर से तेरा हाथ पकडूँगा। तू डरना मत। मेरा
विशाल प्यार तेरे साथ है। तू मुझे इतना प्यार करता है तो मैं कँजूस क्यों
बनूँगा** **!** **तू अपने** **'मैं'** **को मिटाता है तो हे वत्स!** **मैं
अपने-आपको दे डालने का इंतजाम करता हूँ।***
*मैं तुझे समता के सिंहासन पर बिठाना चाहता हूँ। तेरे चित्त की दशा सुख-दुःख
में, मान-अपमान में, शीत-उष्ण में सम रहे यही मेरी आकांक्षा है।***
*गुरु के अनुभव में शिष्य टिक जाय और शिष्य, शिष्य न रहे गुरु बन जाय..... वत्स
** **!** **तू ऐसी ही तमन्ना करना। गुरुतत्त्व, गुरुस्वरूप, महानस्वरूप
परमात्मा में टिकना ही गुरु बनना है। बाहर से चाहे कोई गुरु माने-न-मानें। गुरु
स्वभाव परमात्मा का है, लघु स्वभाव देह का है। शरीर में,** **"मैं-मेरा"** **यह
लघु स्वभाव है। फिर कोई तुम्हें गुरु माने-न-माने, जाने-न-जाने इसका कोई
महत्त्व नहीं है।***
*तू अपने को कभी अकेला मत समझना, कभी अनाथ नहीं समझना। दीक्षा के दिन से
तेरा-मेरा मिलन हुआ है, तबसे तू अकेला नहीं है। मैं सदा तेरे साथ हूँ। देह की
दूरी चाहे दिखे पर आत्मराज्य में दूरी की कोई गुंजाइश नहीं। आत्मराज्य में
देश-काल की कोई विघ्न-बाधाएँ आ नहीं
करना। संसार का कार्य उत्साह से, शास्त्रीय ढंग से करना। यदि परिणाम चाहे भी तो
शाश्वत चाहना और शाश्वत परिणाम साक्षात्कार ही है। तू अहंकार, वासना या काम की
कठपुतली होकर कार्य नहीं करना। तभी तू राम में विश्रांति पायेगा। जितना तू राम
में विश्रांति पायेगा उतना ही मेरा चित्त प्रसन्न होगा। जब-जब विकारों का सामना
हो, तब-तब सावधान रहना। तू फिसल जाय यह दुःख की बात है पर निराशा की बात नहीं
है। तू फिर-फिर से खड़ा होना। मैं फिर से तेरा हाथ पकडूँगा। तू डरना मत। मेरा
विशाल प्यार तेरे साथ है। तू मुझे इतना प्यार करता है तो मैं कँजूस क्यों
बनूँगा** **!** **तू अपने** **'मैं'** **को मिटाता है तो हे वत्स!** **मैं
अपने-आपको दे डालने का इंतजाम करता हूँ।***
*मैं तुझे समता के सिंहासन पर बिठाना चाहता हूँ। तेरे चित्त की दशा सुख-दुःख
में, मान-अपमान में, शीत-उष्ण में सम रहे यही मेरी आकांक्षा है।***
*गुरु के अनुभव में शिष्य टिक जाय और शिष्य, शिष्य न रहे गुरु बन जाय..... वत्स
** **!** **तू ऐसी ही तमन्ना करना। गुरुतत्त्व, गुरुस्वरूप, महानस्वरूप
परमात्मा में टिकना ही गुरु बनना है। बाहर से चाहे कोई गुरु माने-न-मानें। गुरु
स्वभाव परमात्मा का है, लघु स्वभाव देह का है। शरीर में,** **"मैं-मेरा"** **यह
लघु स्वभाव है। फिर कोई तुम्हें गुरु माने-न-माने, जाने-न-जाने इसका कोई
महत्त्व नहीं है।***
*तू अपने को कभी अकेला मत समझना, कभी अनाथ नहीं समझना। दीक्षा के दिन से
तेरा-मेरा मिलन हुआ है, तबसे तू अकेला नहीं है। मैं सदा तेरे साथ हूँ। देह की
दूरी चाहे दिखे पर आत्मराज्य में दूरी की कोई गुंजाइश नहीं। आत्मराज्य में
देश-काल की कोई विघ्न-बाधाएँ आ नहीं
GURU POONAM DIYAN
साधक आत्मा में विश्रांति पाता है तो गुरु की प्रेमपूर्ण कृपा उस पर बरसती है।
गुरू बताते हैं-** **"हे वत्स** **!** **जो मैं देहरूप होकर दिख रहा हूँ, वह
मैं नहीं हूँ। यह एक देह, नात-जात या मत-पंथ मेरा नहीं है। जो दिख रहा हूँ,
वैसा मैं नहीं हूँ। किसी देश में या प्रांत में अथवा किसी काल में या किसी रूप
में जैसा दिखता हूँ, वैसा मैं नहीं हूँ।***
*ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ से तू मुझसे बाहर निकल सके। ऐसा कोई समय नहीं जब मैं
नहीं हूँ। ऐसा कोई कर्म नहीं जो तू मुझसे छिपा सके। तत्त्व से तू मेरा अनुभव
करे तो तू मुझमें ही रहता है, मुझमें ही बोलता है। मैं तुझे यह गोपनीय बात बता
रहा हूँ। देह की आकृति से मैं लेता देता, कहता सुनता दिखता हूँ, इतना मैं नहीं
हूँ। तू देह में बँधा है, इसलिए देह में रहकर तुझे जगाना होता है।"***
*श्रीमद् राजचन्द्र ने ठीक कहा हैः***
*देहं छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत।***
*ते ज्ञानीना चरणमां हो वंदन अगणीत।।***
*"हे वत्स** **!** **तू देह को** **'मैं'** **मत मानना। यह देह तो प्रतीतिमात्र
है। तू प्रतीति में मत जाना, निज प्राप्ति में आना। तू अपने स्वरूप की प्राप्ति
करने आया है। जब तक तू लक्ष्य को नहीं पायेगा, मैं तेरा पीछा नहीं छोड़ूँगा।
मेरे दिल में तेरे कल्याण के सिवाय और कुछ नहीं है। हे साधक** **!** **कई बार
तू गलती करता है, फिर प्रायश्चित करता है, रोता है, पुकारता है। कई बार मेरे से
दूर होकर विकारों में जाता है लेकिन मैं तेरे से दूर नहीं हो सकता हूँ। मैं
तेरी कमजोरियाँ जानता हूँ, तेरी मनमानियाँ भी जानता हूँ। संसार में तू
सँभल-सँभलकर कदम रखना। तेरी श्रद्धा का धागा टूटे नहीं, इसका ख्याल रखना। तू
मनमुखता की आँधी में कहीं उलझ न जाय वत्स** **!** **बार-बार स्मरण, सत्संग और
सान्निध्य तुझे इन खतरों से बचाता रहेगा। तू कहीं भी रहे लेकिन मुझमें रहना।
जैसे श्रीकृष्ण और उद्धव का मिलन हुआ था वैसे ही तेरा और मेरा मिलन हो जाय,
साक्षात्कार हो जाय यही उद्देश्य बनाय रखना। हे साधक** **!** **तेरा और मेरा
बाहर का मिलन हो, ऐसा मिलन नहीं। तू अपने को देह मानता है। देह तो आती जाती है
और तू मुझे भी आता-जाता मानता है।***
*बाहर के ये संबंध तो मिटने वाले हैं लेकिन हे वत्स** **!** **तेरा और मेरा
संबंध अमिट है। आत्मा संबंध तथा गुरु और शिष्य का संबंध सत्य है, अमिट है।
जितना तू सत्य में ठहरता जायेगा, उतना ही तू मुझसे एक होता जायगा।***
*वत्स** **!** **जब तक तू पूज्य पद में नहीं ठहरा, तब तक मेरा प्रयत्न बंद नहीं
होगा। अपनी श्रद्धा-भक्ति बढ़ाते रहना। साधना छोड़ना मत। साधना छोड़ेगा तो
विकार और अहंकार तुझे धोखा देंगे। तू गुरू के दैवी कार्यों में लगे रहना, ताकि
विकारी कार्य तुझे बर्बाद न करें। तू मेरे प्रेम दरवाजे पर खड़े रहना, ताकि काम
का दरवाजा तेरे लिए आकर्षक न बने। तू राम के दरवाजे पर ही डटे रहना क्योंकि-***
*जहाँ राम तहँ नहीं काम,***
*जहाँ काम तहँ नहीं राम।***
*जब-जब तुझे काम सताये तब-तब तू अपने राम को पुकारना। उस स्थान को तुरंत छोड़
देना। वत्स** **!** **मैं तेरी कमजोरियाँ जानता हूँ। तेरी सम्भावना भी जानता
हूँ।***
गुरू बताते हैं-** **"हे वत्स** **!** **जो मैं देहरूप होकर दिख रहा हूँ, वह
मैं नहीं हूँ। यह एक देह, नात-जात या मत-पंथ मेरा नहीं है। जो दिख रहा हूँ,
वैसा मैं नहीं हूँ। किसी देश में या प्रांत में अथवा किसी काल में या किसी रूप
में जैसा दिखता हूँ, वैसा मैं नहीं हूँ।***
*ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ से तू मुझसे बाहर निकल सके। ऐसा कोई समय नहीं जब मैं
नहीं हूँ। ऐसा कोई कर्म नहीं जो तू मुझसे छिपा सके। तत्त्व से तू मेरा अनुभव
करे तो तू मुझमें ही रहता है, मुझमें ही बोलता है। मैं तुझे यह गोपनीय बात बता
रहा हूँ। देह की आकृति से मैं लेता देता, कहता सुनता दिखता हूँ, इतना मैं नहीं
हूँ। तू देह में बँधा है, इसलिए देह में रहकर तुझे जगाना होता है।"***
*श्रीमद् राजचन्द्र ने ठीक कहा हैः***
*देहं छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत।***
*ते ज्ञानीना चरणमां हो वंदन अगणीत।।***
*"हे वत्स** **!** **तू देह को** **'मैं'** **मत मानना। यह देह तो प्रतीतिमात्र
है। तू प्रतीति में मत जाना, निज प्राप्ति में आना। तू अपने स्वरूप की प्राप्ति
करने आया है। जब तक तू लक्ष्य को नहीं पायेगा, मैं तेरा पीछा नहीं छोड़ूँगा।
मेरे दिल में तेरे कल्याण के सिवाय और कुछ नहीं है। हे साधक** **!** **कई बार
तू गलती करता है, फिर प्रायश्चित करता है, रोता है, पुकारता है। कई बार मेरे से
दूर होकर विकारों में जाता है लेकिन मैं तेरे से दूर नहीं हो सकता हूँ। मैं
तेरी कमजोरियाँ जानता हूँ, तेरी मनमानियाँ भी जानता हूँ। संसार में तू
सँभल-सँभलकर कदम रखना। तेरी श्रद्धा का धागा टूटे नहीं, इसका ख्याल रखना। तू
मनमुखता की आँधी में कहीं उलझ न जाय वत्स** **!** **बार-बार स्मरण, सत्संग और
सान्निध्य तुझे इन खतरों से बचाता रहेगा। तू कहीं भी रहे लेकिन मुझमें रहना।
जैसे श्रीकृष्ण और उद्धव का मिलन हुआ था वैसे ही तेरा और मेरा मिलन हो जाय,
साक्षात्कार हो जाय यही उद्देश्य बनाय रखना। हे साधक** **!** **तेरा और मेरा
बाहर का मिलन हो, ऐसा मिलन नहीं। तू अपने को देह मानता है। देह तो आती जाती है
और तू मुझे भी आता-जाता मानता है।***
*बाहर के ये संबंध तो मिटने वाले हैं लेकिन हे वत्स** **!** **तेरा और मेरा
संबंध अमिट है। आत्मा संबंध तथा गुरु और शिष्य का संबंध सत्य है, अमिट है।
जितना तू सत्य में ठहरता जायेगा, उतना ही तू मुझसे एक होता जायगा।***
*वत्स** **!** **जब तक तू पूज्य पद में नहीं ठहरा, तब तक मेरा प्रयत्न बंद नहीं
होगा। अपनी श्रद्धा-भक्ति बढ़ाते रहना। साधना छोड़ना मत। साधना छोड़ेगा तो
विकार और अहंकार तुझे धोखा देंगे। तू गुरू के दैवी कार्यों में लगे रहना, ताकि
विकारी कार्य तुझे बर्बाद न करें। तू मेरे प्रेम दरवाजे पर खड़े रहना, ताकि काम
का दरवाजा तेरे लिए आकर्षक न बने। तू राम के दरवाजे पर ही डटे रहना क्योंकि-***
*जहाँ राम तहँ नहीं काम,***
*जहाँ काम तहँ नहीं राम।***
*जब-जब तुझे काम सताये तब-तब तू अपने राम को पुकारना। उस स्थान को तुरंत छोड़
देना। वत्स** **!** **मैं तेरी कमजोरियाँ जानता हूँ। तेरी सम्भावना भी जानता
हूँ।***
योगिनी एकादशी 08th july 2010 ekadashi ke din chawal nahi khane chahiye jo vart nahi rakhate vo bhi
युधिष्ठिर ने पूछा : वासुदेव ! आषाढ़ के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? कृपया उसका वर्णन कीजिये ।
भगवान श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ ! आषाढ़ (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ ) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘योगिनी’ है। यह बड़े बडे पातकों का नाश करनेवाली है। संसारसागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है ।
अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं । उनका ‘हेममाली’ नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था । हेममाली की पत्नी का नाम ‘विशालाक्षी’ था । वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था । एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन में न जा सका । इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे । उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की । जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : ‘यक्षों ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है ?’
यक्षों ने कहा: राजन् ! वह तो पत्नी की कामना में आसक्त हो घर में ही रमण कर रहा है । यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलवाया । वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया । उसे देखकर कुबेर बोले : ‘ओ पापी ! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने भगवान की अवहेलना की है, अत: कोढ़ से युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा ।’
कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया । कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं हुई । तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरि के शिखर पर गया । वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन हुआ । पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनिवर मार्कण्डेय ने उसे भय से काँपते देख कहा : ‘तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया ?’
यक्ष बोला : मुने ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ । मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव पूजा के समय कुबेर को दिया करता था । एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया । मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता है, यह जानकर मुझ अपराधी को कर्त्तव्य का उपदेश दीजिये ।
मार्कण्डेयजी ने कहा: तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ । तुम आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करो । इस व्रत के पुण्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायेगा ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: राजन् ! मार्कण्डेयजी के उपदेश से उसने ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत किया, जिससे उसके शरीर को कोढ़ दूर हो गया । उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया ।
नृपश्रेष्ठ ! यह ‘योगिनी’ का व्रत ऐसा पुण्यशाली है कि अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है, वही फल ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है । ‘योगिनी’ महान पापों को शान्त करनेवाली और महान पुण्य फल देनेवाली है । इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।
भगवान श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ ! आषाढ़ (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ ) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘योगिनी’ है। यह बड़े बडे पातकों का नाश करनेवाली है। संसारसागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है ।
अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं । उनका ‘हेममाली’ नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था । हेममाली की पत्नी का नाम ‘विशालाक्षी’ था । वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था । एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन में न जा सका । इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे । उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की । जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : ‘यक्षों ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है ?’
यक्षों ने कहा: राजन् ! वह तो पत्नी की कामना में आसक्त हो घर में ही रमण कर रहा है । यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलवाया । वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया । उसे देखकर कुबेर बोले : ‘ओ पापी ! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने भगवान की अवहेलना की है, अत: कोढ़ से युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा ।’
कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया । कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं हुई । तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरि के शिखर पर गया । वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन हुआ । पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनिवर मार्कण्डेय ने उसे भय से काँपते देख कहा : ‘तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया ?’
यक्ष बोला : मुने ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ । मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव पूजा के समय कुबेर को दिया करता था । एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया । मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता है, यह जानकर मुझ अपराधी को कर्त्तव्य का उपदेश दीजिये ।
मार्कण्डेयजी ने कहा: तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ । तुम आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करो । इस व्रत के पुण्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायेगा ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: राजन् ! मार्कण्डेयजी के उपदेश से उसने ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत किया, जिससे उसके शरीर को कोढ़ दूर हो गया । उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया ।
नृपश्रेष्ठ ! यह ‘योगिनी’ का व्रत ऐसा पुण्यशाली है कि अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है, वही फल ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है । ‘योगिनी’ महान पापों को शान्त करनेवाली और महान पुण्य फल देनेवाली है । इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।
महापुरुष का आश्रय प्राप्त करने वाला मनुष्य सचमुच परम सदभागी है। सदगुरु की गोद में पूर्ण श्रद्धा से अपना अहं रूपी मस्तक रखकर निश्चिंत होकर विश्राम पाने वाले सत्शिष्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक मार्ग तेजोमय हो जाता है। सदगुरु में परमात्मा का अनन्त सामर्थ्य होता है। उनके परम पावन देह को छूकर आने वाली वायु भी जीव के अनन्त जन्मों के पापों का निवारण करके क्षण
निवारण करके क्षण मात्र में उसको आह्लादित कर सकती है तो उनके श्री चरणों में श्रद्धा-भक्ति से समर्पित होने वाले सत्शिष्य के कल्याण में क्या कमी रहेगी ?
निवारण करके क्षण मात्र में उसको आह्लादित कर सकती है तो उनके श्री चरणों में श्रद्धा-भक्ति से समर्पित होने वाले सत्शिष्य के कल्याण में क्या कमी रहेगी ?
महापुरुष का आश्रय प्राप्त करने वाला मनुष्य सचमुच परम सदभागी है। सदगुरु की गोद में पूर्ण श्रद्धा से अपना अहं रूपी मस्तक रखकर निश्चिंत होकर विश्राम पाने वाले सत्शिष्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक मार्ग तेजोमय हो जाता है। सदगुरु में परमात्मा का अनन्त सामर्थ्य होता है। उनके परम पावन देह को छूकर आने वाली वायु भी जीव के अनन्त जन्मों के पापों का निवारण करके क्षण मात्र में उसको आह्लादित कर सकती है तो उनके श्री चरणों में श्रद्धा-भक्ति से समर्पित होने वाले सत्शिष्य के कल्याण में क्या कमी रहेगी ?
जबतक सासे चलती है, गुरुवर की महिमा गावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू, जब माया-मोह मै उल्जा, मन नै मुजको भटकाया, गुरुदेव ने हाथ पकड़कर, मुझे सत्य का पंथ दिखाया, गुरुके चरणों को सजकर, अब और कहा मै जावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू, जबतक सासे चलती है, गुरुवर की महिमा गावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू,
मेरे मनका रूप देखाये, मुझे गुरुचरणों का दर्पण, गुरुदेव की छायाहो को, टूटे पपोका बंधन, गुरुदेवकी महिमा समजू, और दुनियाको समजावू, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू, जबतक सासे चलती है, गुरुवर की महिमा गावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू,
संसारके तुफानोमै, गुरुदेवका मिला सहारा, जब डूबा भवसागर मै, गुरुदेवने मुजको उबारा, तुम गावो राम की महिमा, मै आसाराम को ध्यावु, सपने मै उनको देखू, जागुतो उनको पावू, जबतक सासे चलती है, गुरुवर की महिमा गावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू
मेरे मनका रूप देखाये, मुझे गुरुचरणों का दर्पण, गुरुदेव की छायाहो को, टूटे पपोका बंधन, गुरुदेवकी महिमा समजू, और दुनियाको समजावू, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू, जबतक सासे चलती है, गुरुवर की महिमा गावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू,
संसारके तुफानोमै, गुरुदेवका मिला सहारा, जब डूबा भवसागर मै, गुरुदेवने मुजको उबारा, तुम गावो राम की महिमा, मै आसाराम को ध्यावु, सपने मै उनको देखू, जागुतो उनको पावू, जबतक सासे चलती है, गुरुवर की महिमा गावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू
Tuesday, July 6, 2010
चातक मीन पतंग जब पिया बिन नहीं रह पाय।
साध्य को पाये बिना साधक क्यों रह जाय।।
जैसे, पानी के एक बुलबुले में से आकाश निकल जाए तो बुलबुले का पेट फट जाएगा। जीवत्व का, कर्त्ता का, बँधनों का, बुलबुले का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। घड़े का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। बूँद सिंधु हो जाएगी। ऐसे ही अहं का पेट फट जाएगा। तब अहं हटते ही जीवात्मा परमात्मा से एक हो जाएगा।
जैसे, पानी के एक बुलबुले में से आकाश निकल जाए तो बुलबुले का पेट फट जाएगा। जीवत्व का, कर्त्ता का, बँधनों का, बुलबुले का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। घड़े का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। बूँद सिंधु हो जाएगी। ऐसे ही अहं का पेट फट जाएगा। तब अहं हटते ही जीवात्मा परमात्मा से एक हो जाएगा।
मुक्ति का अनुभव करने में कोई अड़चन आती है तो वह है यह जगत सच्चा लगना तथा विषय, विकार व वासना के प्रति आसक्ति होना। यदि सांसारिक वस्तुओं से अनासक्त होकर 'मैं कौन हूँ ?' इसे खोजें तो मुक्ति जल्दी मिलेगी। निर्वासनिक चित्त में से भोग की लिप्सा चली जाएगी और खायेगा, पियेगा तो औषधवत्.... परंतु उससे जुड़ेगा नहीं।
सुख बाँटने की चीज है तथा दुःख को पैरों तले कुचलने की चीज है। दुःख को पैरों तले कुचलना सीखो, न ही दुःख में घबराहट।
हे मानव ! तू सनातन है, मेरा अंश है। जैसे मैं नित्य हूँ वैसे ही तू भी नित्य है। जैसे मैं शाश्वत हूँ वैसे ही तू भी शाश्वत है। परन्तु भैया ! भूल सिर्फ इतनी हो रही है कि नश्वर शरीर को तू मान बैठा है। नश्वर वस्तुओं को तू अपनी मान बैठा है। लेकिन तेरे शाश्वत स्वरूप और मेरे शाश्वत सम्बन्ध की ओर तेरी दृष्टि नहीं है इस कारण तू दुःखी होता है।
तू अजर, अमर आत्मा-परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करके यहीं पर मुक्ति का अनुभव कर ले भैया !
दो बातन को भूल मत, जो चाहत कल्याण।
नारायण एक मोत को, दूजो श्री भगवान।।
मृत्यु और ईश्वर को जो नहीं भूलता है उसकी चेतना शीघ्र जाग्रत होती है। अतः ईश्वर और मृत्यु को मत भूलो। मृत्यु को याद करने से वैराग्य आयेगा और ईश्वर को याद करने से अभ्यास होगा।
ज्ञानके द्वारा जिनकी चित्-जड-ग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगन भी भगवान् की निष्काम भक्ति किया करते हैं, क्योंकि भगवान् के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियोंको अपनी और खींच लेते हैं ।
परमात्मा तब मिलता है जब परमात्मा की प्रीति और परमात्म-प्राप्त, भगवत्प्राप्त महापुरुषों का सत्संग, सान्निध्य मिलता है। उससे शाश्वत परमात्मा की प्राप्ति होती है और बाकी सब प्रतीति है। चाहे कितनी भी प्रतीति हो जाये आखिर कुछ नहीं। ऊँचे ऊँचे पदों पर पहुँच गये, विश्व का राज्य मिल गया लेकिन आँख बन्द हुई तो सब समाप्त।
साध्य को पाये बिना साधक क्यों रह जाय।।
जैसे, पानी के एक बुलबुले में से आकाश निकल जाए तो बुलबुले का पेट फट जाएगा। जीवत्व का, कर्त्ता का, बँधनों का, बुलबुले का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। घड़े का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। बूँद सिंधु हो जाएगी। ऐसे ही अहं का पेट फट जाएगा। तब अहं हटते ही जीवात्मा परमात्मा से एक हो जाएगा।
जैसे, पानी के एक बुलबुले में से आकाश निकल जाए तो बुलबुले का पेट फट जाएगा। जीवत्व का, कर्त्ता का, बँधनों का, बुलबुले का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। घड़े का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। बूँद सिंधु हो जाएगी। ऐसे ही अहं का पेट फट जाएगा। तब अहं हटते ही जीवात्मा परमात्मा से एक हो जाएगा।
मुक्ति का अनुभव करने में कोई अड़चन आती है तो वह है यह जगत सच्चा लगना तथा विषय, विकार व वासना के प्रति आसक्ति होना। यदि सांसारिक वस्तुओं से अनासक्त होकर 'मैं कौन हूँ ?' इसे खोजें तो मुक्ति जल्दी मिलेगी। निर्वासनिक चित्त में से भोग की लिप्सा चली जाएगी और खायेगा, पियेगा तो औषधवत्.... परंतु उससे जुड़ेगा नहीं।
सुख बाँटने की चीज है तथा दुःख को पैरों तले कुचलने की चीज है। दुःख को पैरों तले कुचलना सीखो, न ही दुःख में घबराहट।
हे मानव ! तू सनातन है, मेरा अंश है। जैसे मैं नित्य हूँ वैसे ही तू भी नित्य है। जैसे मैं शाश्वत हूँ वैसे ही तू भी शाश्वत है। परन्तु भैया ! भूल सिर्फ इतनी हो रही है कि नश्वर शरीर को तू मान बैठा है। नश्वर वस्तुओं को तू अपनी मान बैठा है। लेकिन तेरे शाश्वत स्वरूप और मेरे शाश्वत सम्बन्ध की ओर तेरी दृष्टि नहीं है इस कारण तू दुःखी होता है।
तू अजर, अमर आत्मा-परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करके यहीं पर मुक्ति का अनुभव कर ले भैया !
दो बातन को भूल मत, जो चाहत कल्याण।
नारायण एक मोत को, दूजो श्री भगवान।।
मृत्यु और ईश्वर को जो नहीं भूलता है उसकी चेतना शीघ्र जाग्रत होती है। अतः ईश्वर और मृत्यु को मत भूलो। मृत्यु को याद करने से वैराग्य आयेगा और ईश्वर को याद करने से अभ्यास होगा।
ज्ञानके द्वारा जिनकी चित्-जड-ग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगन भी भगवान् की निष्काम भक्ति किया करते हैं, क्योंकि भगवान् के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियोंको अपनी और खींच लेते हैं ।
परमात्मा तब मिलता है जब परमात्मा की प्रीति और परमात्म-प्राप्त, भगवत्प्राप्त महापुरुषों का सत्संग, सान्निध्य मिलता है। उससे शाश्वत परमात्मा की प्राप्ति होती है और बाकी सब प्रतीति है। चाहे कितनी भी प्रतीति हो जाये आखिर कुछ नहीं। ऊँचे ऊँचे पदों पर पहुँच गये, विश्व का राज्य मिल गया लेकिन आँख बन्द हुई तो सब समाप्त।
मुक्ति का अनुभव करने में कोई अड़चन आती है तो वह है यह जगत सच्चा लगना तथा विषय, विकार व वासना के प्रति आसक्ति होना। यदि सांसारिक वस्तुओं से अनासक्त होकर 'मैं कौन हूँ ?' इसे खोजें तो मुक्ति जल्दी मिलेगी। निर्वासनिक चित्त में से भोग की लिप्सा चली जाएगी और खायेगा, पियेगा तो औषधवत्.... परंतु उससे जुड़ेगा नहीं।
Sunday, July 4, 2010
क्या फूल और क्या बेफूल
कौन अपना कौन पराया ? क्या फूल और क्या बेफूल ? ‘फूल’ जो था वह तो अलविदा हो गया । अब हड्डियों को फूल कहकर भी क्या खुशी मनाओगे? फूलों का फूल तो तुम्हारा चैतन्य था । उस चैतन्य से सम्बन्ध कर लेते तो तुम फूल ही फूल थे ।
दुनियाँ के लोग तुम्हें बुलायेंगे कुछ लेने के लिए । तुम्हारे पास अब देने के लिए बचा भी क्या है ? वे लोग दोस्ती करेंगे कुछ लेने के लिए । सदगुरु तुम्हें प्यार करेंगे … प्रभु देने के लिए । दुनियाँ के लोग तुम्हें नश्वर देकर अपनी सुविधा खड़ी करेंगे, लेकिन सदगुरू तुम्हें शाश्वत् देकर अपनी सुविधा की परवाह नहीं करेंगे । ॐ… ॐ … ॐ …
ज्ञान की ज्योति जगने दो । इस शरीर की ममता को टूटने दो । शरीर की ममता टूटेगी तो अन्य नाते रिश्ते सब भीतर से ढीले हो जायेंगे । अहंता ममता टूटने पर तुम्हारा व्यवहार प्रभु का व्यवहार हो जाएगा । तुम्हारा बोलना प्रभु का बोलना हो जाएगा । तुम्हारा देखना प्रभु का देखना हो जाएगा । तुम्हारा जीना प्रभु का जीना हो जाएगा ।
ज्ञान की ज्योति जगने दो । इस शरीर की ममता को टूटने दो
दुनियाँ के लोग तुम्हें बुलायेंगे कुछ लेने के लिए । तुम्हारे पास अब देने के लिए बचा भी क्या है ? वे लोग दोस्ती करेंगे कुछ लेने के लिए । सदगुरु तुम्हें प्यार करेंगे … प्रभु देने के लिए । दुनियाँ के लोग तुम्हें नश्वर देकर अपनी सुविधा खड़ी करेंगे, लेकिन सदगुरू तुम्हें शाश्वत् देकर अपनी सुविधा की परवाह नहीं करेंगे । ॐ… ॐ … ॐ …
ज्ञान की ज्योति जगने दो । इस शरीर की ममता को टूटने दो । शरीर की ममता टूटेगी तो अन्य नाते रिश्ते सब भीतर से ढीले हो जायेंगे । अहंता ममता टूटने पर तुम्हारा व्यवहार प्रभु का व्यवहार हो जाएगा । तुम्हारा बोलना प्रभु का बोलना हो जाएगा । तुम्हारा देखना प्रभु का देखना हो जाएगा । तुम्हारा जीना प्रभु का जीना हो जाएगा ।
ज्ञान की ज्योति जगने दो । इस शरीर की ममता को टूटने दो
मरना
जब मरना इतना अवश्यं भावि है तो मरने से डरना क्यों ? डरने से मौत नहीं मिटती। दूसरी बार मौत न हो इसका यत्न करना चाहिए।
अनेक बार मौत क्यों होती है ? वासना से मौत होती है। वासना क्यों होती है ? वासना सुख के लिए होती है। अगर आत्मा-परमात्मा का सुख मिल गया तो वासना आत्मा-परमात्मा में लीन हो जायेगी। परमात्मा अमर है। वासना अगर परमात्म-सुख से तृप्त नहीं हुई तो देखने की वासना खाने की वासना, सूँघने की वासना, सुनने की वासना और स्पर्श की वासना बनी रहेगी। पाँच ही तो विषय हैं और जिनको पाँच विषय का सुख दिलाते हो उनको तो जला देना है।
योगी इस बात को जानते हैं इसलिए वे अंतर आराम, अंतर सुख, अंतर ज्योत की ओर जाते हैं। भोगी इस बात को नहीं जानता, नहीं मानता इसलिए बाहर भटकता है। भगवान कहते हैं-
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।
'जो योगी निरंतर संतुष्ट हैं, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए हैं और मुझ में दृढ़ निश्चयवाला है, वह मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है, वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।'
अनेक बार मौत क्यों होती है ? वासना से मौत होती है। वासना क्यों होती है ? वासना सुख के लिए होती है। अगर आत्मा-परमात्मा का सुख मिल गया तो वासना आत्मा-परमात्मा में लीन हो जायेगी। परमात्मा अमर है। वासना अगर परमात्म-सुख से तृप्त नहीं हुई तो देखने की वासना खाने की वासना, सूँघने की वासना, सुनने की वासना और स्पर्श की वासना बनी रहेगी। पाँच ही तो विषय हैं और जिनको पाँच विषय का सुख दिलाते हो उनको तो जला देना है।
योगी इस बात को जानते हैं इसलिए वे अंतर आराम, अंतर सुख, अंतर ज्योत की ओर जाते हैं। भोगी इस बात को नहीं जानता, नहीं मानता इसलिए बाहर भटकता है। भगवान कहते हैं-
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।
'जो योगी निरंतर संतुष्ट हैं, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए हैं और मुझ में दृढ़ निश्चयवाला है, वह मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है, वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।'
प्रार्थना....
हे मेरे प्रभु … !
तुम दया करना । मेरा मन … मेरा चित्त तुममें ही लगा रहे ।
अब … मैं कब तक संसारी बोझों को ढोता फिरुँगा … ? मेरा मन अब तुम्हारी यात्रा के लिए ऊर्ध्वगामी हो जाये … ऐसा सुअवसर प्राप्त करा दो मेरे स्वामी … !
हे मेरे अंतर्यामी ! अब मेरी ओर जरा कृपादृष्टि करो … । बरसती हुई आपकी अमृतवर्षा में मैं भी पूरा भीग जाऊँ …। मेरा मन मयूर अब एक आत्मदेव के सिवाय किसीके प्रति टहुँकार न करे ।
हे प्रभु ! हमें विकारों से, मोह ममता से, साथियों से बचाओ …अपने आपमें जगाओ ।
हे मेरे मालिक ! अब … कब तक … मैं भटकता रहूँगा ? मेरी सारी उमरिया बिती जा रही है … कुछ तो रहमत करो कि अब … आपके चरणों का अनुरागी होकर मैं आत्मानन्द के महासागर में गोता लगाऊँ ।
ॐ शांति ! ॐ आनंद !!
सोऽहम् सोऽहम् सोऽहम्
आखिर यह सब कब तक … ? मेरा जीवन परमात्मा की प्राप्ति के लिए है, यह क्यों भूल जाता हूँ ?
मुझे … अब … आपके लिए ही प्यास रहे प्रभु … !
अब प्रभु कृपा करौं एहि भाँति ।
सब तजि भजन करौं दिन राती
तुम दया करना । मेरा मन … मेरा चित्त तुममें ही लगा रहे ।
अब … मैं कब तक संसारी बोझों को ढोता फिरुँगा … ? मेरा मन अब तुम्हारी यात्रा के लिए ऊर्ध्वगामी हो जाये … ऐसा सुअवसर प्राप्त करा दो मेरे स्वामी … !
हे मेरे अंतर्यामी ! अब मेरी ओर जरा कृपादृष्टि करो … । बरसती हुई आपकी अमृतवर्षा में मैं भी पूरा भीग जाऊँ …। मेरा मन मयूर अब एक आत्मदेव के सिवाय किसीके प्रति टहुँकार न करे ।
हे प्रभु ! हमें विकारों से, मोह ममता से, साथियों से बचाओ …अपने आपमें जगाओ ।
हे मेरे मालिक ! अब … कब तक … मैं भटकता रहूँगा ? मेरी सारी उमरिया बिती जा रही है … कुछ तो रहमत करो कि अब … आपके चरणों का अनुरागी होकर मैं आत्मानन्द के महासागर में गोता लगाऊँ ।
ॐ शांति ! ॐ आनंद !!
सोऽहम् सोऽहम् सोऽहम्
आखिर यह सब कब तक … ? मेरा जीवन परमात्मा की प्राप्ति के लिए है, यह क्यों भूल जाता हूँ ?
मुझे … अब … आपके लिए ही प्यास रहे प्रभु … !
अब प्रभु कृपा करौं एहि भाँति ।
सब तजि भजन करौं दिन राती
Saturday, July 3, 2010
ओ पालनहारे, निर्गुण और न्यारे
तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं....
हमरी उलझन सुलझाओ भगवन
तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं....
तुम्ही हमका हो संभाले
तुम्ही हमरे रखवाले
तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं...
चन्दा मैं तुम ही तो भरे हो चांदनी
सूरज मैं उजाला तुम ही से
यह गगन हैं मगन, तुम ही तो दिए इसे तारे
भगवन, यह जीवन तुम ही न सवारोगे
तो क्या कोई सवारे
ओ पालनहारे ......
तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं....
हमरी उलझन सुलझाओ भगवन
तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं....
तुम्ही हमका हो संभाले
तुम्ही हमरे रखवाले
तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं...
चन्दा मैं तुम ही तो भरे हो चांदनी
सूरज मैं उजाला तुम ही से
यह गगन हैं मगन, तुम ही तो दिए इसे तारे
भगवन, यह जीवन तुम ही न सवारोगे
तो क्या कोई सवारे
ओ पालनहारे ......
Friday, July 2, 2010
आत्मबल का आवाहन
क्या आप अपने-आपको दुर्बल मानते हो ? लघुताग्रंथी में उलझ कर परिस्तिथियों से पिस रहे हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठे हो ?
…तो अपने भीतर सुषुप्त आत्मबल को जगाओ
शरीर चाहे स्त्री का हो, चाहे पुरुष का, प्रकृति के साम्राज्य में जो जीते हैं वे सब स्त्री हैं और प्रकृति के बन्धन से पार अपने स्वरूप की पहचान जिन्होंने कर ली है, अपने मन की गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर जिन्होंने फेंक दी हैं, वे पुरुष हैं
स्त्री या पुरुष शरीर एवं मान्यताएँ होती हैं
तुम तो तन-मन से पार निर्मल आत्मा हो
जागो…उठो…अपने भीतर सोये हुये निश्चयबल को जगाओ
सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को विकसित करो
आत्मा में अथाह सामर्थ्य है
अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके
अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके
आप शरीर नहीं हो बल्कि अनेक शरीर, देश, सागर, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र एवं पूरे ब्रह्माण्ड़ के दृष्टा हो, साक्षी हो
इस साक्षी भाव में जाग जाओ
क्या आप अपने-आपको दुर्बल मानते हो ? लघुताग्रंथी में उलझ कर परिस्तिथियों से पिस रहे हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठे हो ?
…तो अपने भीतर सुषुप्त आत्मबल को जगाओ
शरीर चाहे स्त्री का हो, चाहे पुरुष का, प्रकृति के साम्राज्य में जो जीते हैं वे सब स्त्री हैं और प्रकृति के बन्धन से पार अपने स्वरूप की पहचान जिन्होंने कर ली है, अपने मन की गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर जिन्होंने फेंक दी हैं, वे पुरुष हैं
स्त्री या पुरुष शरीर एवं मान्यताएँ होती हैं
तुम तो तन-मन से पार निर्मल आत्मा हो
जागो…उठो…अपने भीतर सोये हुये निश्चयबल को जगाओ
सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को विकसित करो
आत्मा में अथाह सामर्थ्य है
अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके
अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके
आप शरीर नहीं हो बल्कि अनेक शरीर, देश, सागर, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र एवं पूरे ब्रह्माण्ड़ के दृष्टा हो, साक्षी हो
इस साक्षी भाव में जाग जाओ
Thursday, July 1, 2010
तुम्हे जो पाना है मुझे...
सुबह सुबह का प्यारा सा ख्वाब था
हलकिसे नींद में आँखों पर
अबतक तेरा नुरानी चेहरा
...धुंदलासा नजर आ रहा था ...
जागने की कोशिश में सोच रहा था
कही तुम ओज़ल ना हो जाओ ...
मै तो बस देखता ही रह गया
आँखे ऐसे ही बंद रख ली
जिसे वे इश्क करते है, उसी को आजमाते हैं।
खजाने रहमतों के इसी बहाने लुटवाते हैं।।
जैसे मिल गयी हो मुझे मेरी मंजिल ...
क्या बताऊ मै...
हे मेरे प्रभु
तबसे लेकर आजतक
तुम्हे तलाशता फिर रहा हुं ..
आँखे खोलकर ...
हर दिशा , हर डगर , हर नगर
सिर्फ और सिर्फ होता है दीदार तुम्हारा
हर रोज ...
सुबह सुबह के ख्वाब में ..
दुनिया के हंगामों में आँख हमारी लग जाय।
तो हे मालिक ! मेरे ख्वाबों में आना प्यार भरा पैगाम लिये।
अब सोच लिया है मैंने
अब नही खुलेगी ये आँखे
मेरे आखरी सांस तक
तुम्हे जो पाना है मुझे..
हलकिसे नींद में आँखों पर
अबतक तेरा नुरानी चेहरा
...धुंदलासा नजर आ रहा था ...
जागने की कोशिश में सोच रहा था
कही तुम ओज़ल ना हो जाओ ...
मै तो बस देखता ही रह गया
आँखे ऐसे ही बंद रख ली
जिसे वे इश्क करते है, उसी को आजमाते हैं।
खजाने रहमतों के इसी बहाने लुटवाते हैं।।
जैसे मिल गयी हो मुझे मेरी मंजिल ...
क्या बताऊ मै...
हे मेरे प्रभु
तबसे लेकर आजतक
तुम्हे तलाशता फिर रहा हुं ..
आँखे खोलकर ...
हर दिशा , हर डगर , हर नगर
सिर्फ और सिर्फ होता है दीदार तुम्हारा
हर रोज ...
सुबह सुबह के ख्वाब में ..
दुनिया के हंगामों में आँख हमारी लग जाय।
तो हे मालिक ! मेरे ख्वाबों में आना प्यार भरा पैगाम लिये।
अब सोच लिया है मैंने
अब नही खुलेगी ये आँखे
मेरे आखरी सांस तक
तुम्हे जो पाना है मुझे..
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