*संसार में तू जाय तो सँभल-सँभलकर कदम रखना। संसार में उत्साह से कर्तव्यपालन
करना। संसार का कार्य उत्साह से, शास्त्रीय ढंग से करना। यदि परिणाम चाहे भी तो
शाश्वत चाहना और शाश्वत परिणाम साक्षात्कार ही है। तू अहंकार, वासना या काम की
कठपुतली होकर कार्य नहीं करना। तभी तू राम में विश्रांति पायेगा। जितना तू राम
में विश्रांति पायेगा उतना ही मेरा चित्त प्रसन्न होगा। जब-जब विकारों का सामना
हो, तब-तब सावधान रहना। तू फिसल जाय यह दुःख की बात है पर निराशा की बात नहीं
है। तू फिर-फिर से खड़ा होना। मैं फिर से तेरा हाथ पकडूँगा। तू डरना मत। मेरा
विशाल प्यार तेरे साथ है। तू मुझे इतना प्यार करता है तो मैं कँजूस क्यों
बनूँगा** **!** **तू अपने** **'मैं'** **को मिटाता है तो हे वत्स!** **मैं
अपने-आपको दे डालने का इंतजाम करता हूँ।***
*मैं तुझे समता के सिंहासन पर बिठाना चाहता हूँ। तेरे चित्त की दशा सुख-दुःख
में, मान-अपमान में, शीत-उष्ण में सम रहे यही मेरी आकांक्षा है।***
*गुरु के अनुभव में शिष्य टिक जाय और शिष्य, शिष्य न रहे गुरु बन जाय..... वत्स
** **!** **तू ऐसी ही तमन्ना करना। गुरुतत्त्व, गुरुस्वरूप, महानस्वरूप
परमात्मा में टिकना ही गुरु बनना है। बाहर से चाहे कोई गुरु माने-न-मानें। गुरु
स्वभाव परमात्मा का है, लघु स्वभाव देह का है। शरीर में,** **"मैं-मेरा"** **यह
लघु स्वभाव है। फिर कोई तुम्हें गुरु माने-न-माने, जाने-न-जाने इसका कोई
महत्त्व नहीं है।***
*तू अपने को कभी अकेला मत समझना, कभी अनाथ नहीं समझना। दीक्षा के दिन से
तेरा-मेरा मिलन हुआ है, तबसे तू अकेला नहीं है। मैं सदा तेरे साथ हूँ। देह की
दूरी चाहे दिखे पर आत्मराज्य में दूरी की कोई गुंजाइश नहीं। आत्मराज्य में
देश-काल की कोई विघ्न-बाधाएँ आ नहीं
Wednesday, July 7, 2010
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