'मैं हूँ' यह तो सबका अनुभव है लेकिन 'मैं कौन हूँ' यह ठीक से पता नहीं है। संसार में प्रायः सभी लोग अपने को शरीर व उसके नाम को लेकर मानते हैं कि 'मैं अमुक हूँ... मैं गोविन्दभाई हूँ।' नहीं.... यह हमारी वास्तविक पहचान नहीं है। अब हम इस साधना के जरिये हम वास्तव में कौन हैं.... हमारा असली स्वरूप क्या है.... इसकी खोज करेंगे। अनन्त की यह खोज आनन्दमय यात्रा बन जायेगी।
सुख और दुःख हमारे जीवन के विकास के लिए नितान्त आवश्यक है। चलने के लिए दायाँ और बायाँ पैर जरूरी है, काम करने के लिए दायाँ और बायाँ हाथ जरूरी है, चबाने के लिए ऊपर का और नीचे का जबड़ा जरूरी है वैसे ही जीवन की उड़ान के लिए सुख व दुःखरूपी दो पंख जरूरी हैं। सुख-दुःख का उपयोग हम नहीं कर पाते, सुख-दुःख से प्रभावित हो जाते हैं तो जीवन पर आत्मविमुख होकर स्थूल-सूक्ष्म-कार
सुख-दुःख का उपयोग हम नहीं कर पाते, सुख-दुःख से प्रभावित हो जाते हैं तो जीवन पर आत्मविमुख होकर स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर से बँधे ही रह जाते हैं। अपने मुक्त स्वभाव का पता नहीं चलता।
Saturday, July 10, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment