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Thursday, July 8, 2010

 प्रतीति संसार की होती है, प्राप्ति परमात्मा की होती है।"

 माया दुस्तर है लेकिन मायापति की शरण जाने से माया तरना सुगम हो जाता है।"

जितने जन्म-मरण हो रहे हैं वे प्रज्ञा के अपराध से हो रहे हैं। अतः प्रज्ञा को दैवी सम्पदा करके यहीं मुक्ति का अनुभव करो।"

कर्म का बदला जन्म-जन्मान्तर लेकर भी चुकाना पड़ता है। अतः कर्म करने में सावधान.... और कर्म का फल भोगने में प्रसन्न....।"

मनुष्य जैसा सोचता है वैसा हो जाता है। मन कल्पतरू है। अतः सुषुप्त दिव्यता को, दिव्य साधना से जगाओ। अपने में दिव्य विचार भरो।"


 जैसे बचपन में ये लोलीपॉप चाटने की या चाकलेट खाने की कला तुम बड़ी कला समझते थे ऐसे ही दुनिया भर की सारी कलाएँ चाकलेट खाने जैसी ही कलाएँ हैं, कोई बड़ी कला नहीं है। सब प्रतीति मात्र है, पेट भरने की कलाएँ हैं। धोखा है धोखा। कितना भी कमा लिया, कितना भी खा लिया, पी लिया, सुन लिया, देख लिया लेकिन जिस शरीर को खिलाया-पिलाया, सुनाया-दिखाया उस शरीर को तो जला देना है।


कर सत्संग अभी से प्यारे

नहीं तो फिर पछताना है।

खिला-पिलाकर देह बढ़ाई

वह भी अग्नि में जलाना है।।

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