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Wednesday, November 3, 2010

धनतेरस की कहानी..

पुराने जमाने में एक राजा हिम हुए। उनके यहां पुत्र हुआ, तो उसकी जन्म-कुंडली बनाई गई। ज्योतिषियों ने कहा कि राजकुमार अपनी शादी के चौथे दिन सांप के काटने से मर जाएगा। इस पर राजा चिंतित रहने लगे। राजकुमार की उम्र 16 साल की हुई, तो उसकी शादी एक सुंदर, सुशील और समझदार राजकुमारी से कर दी गई। राजकुमारी मां लक्ष्मी की बड़ी भक्त थीं। राजकुमारी को भी अपने पति पर आने वाली विपत्ति के विषय में पता चल गया।


राजकुमारी काफी दृढ़ इच्छाशक्ति वाली थीं। उसने चौथे दिन का इंतजार पूरी तैयारी के साथ किया। जिस रास्ते से सांप के आने की आशंका थी, वहां सोने-चांदी के सिक्के और हीरे-जवाहरात आदि बिछा दिए गए। पूरे घर को रोशनी से जगमगा दिया गया। कोई भी कोना खाली नहीं छोड़ा गया यानी सांप के आने के लिए कमरे में कोई रास्ता अंधेरा नहीं छोड़ा गया। इतना ही नहीं, राजकुमारी ने अपने पति को जगाए रखने के लिए उसे पहले कहानी सुनाई और फिर गीत गाने लगी।

इसी दौरान जब मृत्यु के देवता यमराज ने सांप का रूप धारण करके कमरे में प्रवेश करने की कोशिश की, तो रोशनी की वजह से उनकी आंखें चुंधिया गईं। इस कारण सांप दूसरा रास्ता खोजने लगा और रेंगते हुए उस जगह पहुंच गया, जहां सोने तथा चांदी के सिक्के रखे हुए थे। डसने का मौका न मिलता देख, विषधर भी वहीं कुंडली लगाकर बैठ गया और राजकुमारी के गाने सुनने लगा। इसी बीच सूर्य देव ने दस्तक दी, यानी सुबह हो गई। यम देवता वापस जा चुके थे। इस तरह राजकुमारी ने अपनी पति को मौत के पंजे में पहुंचने से पहले ही छुड़ा लिया। यह घटना जिस दिन घटी थी, वह धनतेरस का दिन था, इसलिए इस दिन को 'यमदीपदान' भी कहते हैं। भक्तजन इसी कारण धनतेरस की पूरी रात रोशनी करते हैं।

विष्णु का धनवंतरि अवतार लोगों के बीच एक और कथा भी प्रचलित है। जब सुर और असुर मिलकर सागर मंथन कर रहे थे, तो कई बहुमूल्य चीजों की प्राप्ति हुई। इनमें सबसे अहम था अमृत। यह अमृत कलश धनवंतरि के हाथों में था। धनवंतरि को यूं तो देवताओं का वैद्य कहते हैं, पर उनमें भगवान विष्णु का अंश भी मौजूद था। धनवंतरि की उत्पत्ति के उपलक्ष्य में ही हम धनतेरस मनाते हैं। 

Tuesday, November 2, 2010

मोह और प्रेम

हमें संसार में बांधे रखने का कार्य मोह करता है, क्योंकि यह मन का एक विकार है।


जब प्रेम गिने-चुने लोगों से होता है, हद में होता है , सीमित होता है, तब वह मोह कहलाता है। इसके संस्कार चित्त में इकट्ठा होते रहते हैं, जिससे इसकी जड़ें पक्की हो जाती हैं और कई बार चाह कर भी मोह को नहीं छोड़ पाते। हम मोह को ही प्रेम मान लेते हैं, जैसे युवक-युवती आपस में आसक्त होकर प्रेम करते हैं और उसको वे प्रेम कहते हैं, जबकि वह प्रेम नहीं, मोह है। मां-बाप जब केवल अपने बच्चे को प्रेम करते हैं, तो वह भी मोह ही कहलाता है। मोह का मतलब होता है आसक्ति, जो गिने चुने उन लोगों या चीजों से होती है, जिनको हम अपना बनाना चाहते हैं, जिनके पास हम अधिक से अधिक समय गुजारना चाहते हैं और जहां हमें सुख मिलने की उम्मीद हो या सुख मिलता हो। यहां मैं और मेरे की भावना बड़ी प्रबल रहती है।

एक होता है लौकिक प्रेम, अर्थात सांसारिक प्रेम और दूसरा होता है अलौकिक प्रेम अर्थात इश्वरीय प्रेम। सांसारिक प्रेम मोह कहलाता है और इश्वरीय प्रेम, प्रेम कहलाता है। इसी मोह के कारण व्यक्ति कभी सुखी और कभी दुखी होता रहता हैं। मोह के कारण ही द्वेष पैदा होता है। यह मोह भी जन्म मरण का कारण है, क्योंकि इसके संस्कार बनते हैं, लेकिन इश्वरीय प्रेम के संस्कार नहीं बनते, बल्कि प्रेम तो चित्त में पड़े संस्कारों के नाश के लिए होता है।

प्रेम का अर्थ है सबके लिए मन में एक जैसा भाव, जो सामने आए उसके लिए भी प्रेम, जिसका ख्याल भीतर आए उसके लिए भी प्रेम। परमात्मा की बनाई प्रत्येक वस्तु से एक जैसा प्रेम। जैसे सूर्य सबके लिए एक जैसा प्रकाश देता है, वह भेद नहीं करता, जैसे हवा भेद नहीं करती, नदी भेद नहीं करती, ऐसे ही हम भी भेद न करें। मेरा-तेरा छोड़कर सबके साथ सम भाव में आ जाएं।

अतः अपने मोह को बढ़ाते जाओ, इतना बढ़ाओ कि सबके लिए एक जैसा भाव भीतर प्रकट होने लगे, फिर वह कब प्रेम में बदल जाएगा, पता ही नहीं चलेगा। यही अध्यात्म का गूढ़ रहस्य है।

प्रेम के बल पर

प्रेम के बल पर ही मनुष्य सुखी हो सकता है। बन्दूक पर हाथ रखकर अगर वह निश्चिन्त रहना चाहे तो वह मूर्ख है। जहाँ प्रेम है वहाँ ज्ञान की आवश्यकता है। सेवा में ज्ञान की आवश्यकता है और ज्ञान में प्रेम की आवश्यकत है। विज्ञान को तो आत्मज्ञान एवं प्रेम, दोनों की आवश्यकता है।



मानव बन मानव का कल्याण करो। बम बनाने में अरबों रुपये बरबाद हो रहे हैं। ....और वे ही बम मनुष्य जाति के विनाश में लगाये जाएँ !नेताओं और राजाओं की अपेक्षा किसी आत्मज्ञानी गुरु के हाथ में बागडोर आ जाय तो विश्व नन्दनवन बन जाये।

रोटी बनाते हो तो बिलकुल तत्परता से बनाओ। खाने वालों की तन्दरुस्ती और रूचि बनी रहे ऐसा भोजन बनाओ। कपड़े ऐसे धोओ कि साबुन अधिक खर्च न हो, कपड़े जल्दी फटे नहीं और कपड़ों में चमक भी आ जाये। झाड़ू ऐसा लगाओ कि मानो पूजा कर रहे हो। कहीं कचरा न रह जाये। बोलो ऐसा कि जैसा श्रीरामजी बोलते थे। वाणी सारगर्भित, मधुर, विनययुक्त, दूसरों को मान देनेवाली और अपने को अमानी रखने वाली हो। ऐसे लोगों का सब आदर करते हैं।


अपने से छोटे लोगों के साथ उदारतापूर्ण व्यवहार करो। दीन-हीन, गरीब और भूखे को अन्न देने का अवसर मिल जाय तो चूको मत। स्वयं भूखे रहकर भी कोई सचमुच भूखा हो तो उसे खिला दो तो आपको भूखा रहने में भी अनूठा मजा आयेगा। उस भोजन खाने वाले की तो चार-छः घण्टों की भूख मिटेगी लेकिन आपकी अन्तरात्मा की तृप्ति से आपकी युगों-युगों की और अनेक जन्मों की भूख मिट जायेगी।


अपने दुःख में रोने वाले ! मुस्कुराना सीख ले।

दूसरों के दर्द में आँसू बहाना सीख ले।

जो खिलाने में मजा है आप खाने में नहीं।

जिन्दगी में तू किसी के काम आना सीख ले।।

मन का नशा उतार डालिए

मन एक मदमस्त हाथी के समान है । इसने कितने ही ऋषि-मुनियों को खड्डे में डाल दिय है । आप पर यह सवार हो जाय तो आपको भूमि पर पछाड़कर रौंद दे । अतः निरन्तर सजग रहें । इसे कभी धाँधली न करने दें। इसका अस्तित्व ही मिटा दें, समाप्त कर दें ।



हाथ-से-हाथ मसलकर, दाँत-से-दाँत भींचकर, कमर कसकर, छाती में प्राण भरकर जोर लगाओ और मन की दासता को कुचल डालो, बेड़ियाँ तोड़ फेंको । सदैव के लिए इसके शिकंजे में से निकलकर इसके स्वामी बन जाओ ।

मन पर विजय प्राप्त करनेवाला पुरुष ही इस विश्व में बुद्धिमान् और् भाग्यवान है । वही सच्चा पुरुष है । जिसमें मन का कान पकड़ने का साहस नहीं, जो प्रयत्न तक नहीं करता वह मनुष्य कहलाने के योग्य ही नहीं । वह साधारण गधा नहीं अपितु मकरणी गधा है ।
वास्तव में तो मन के लिए उसकी अपनी सत्ता ही नहीं है । आपने ही इसे उपजाया है । यह आपका बालक है । आपने इसे लाड़ लड़ा-लड़ाकर उन्मत बना दिया है । बालक पर विवेकपूर्ण अंकुश हो तभी बालक सुधरते हैं । छोटे पेड़ की रक्षार्थ काँटों की बाड़ चाहिए । इसी प्रकार मन को भी खराब संगत से बचाने के लिए आपके द्वारा चौकीरुपी बाड़ होनी चाहिए ।

मन का नशा उतार डालिए

मन एक मदमस्त हाथी के समान है । इसने कितने ही ऋषि-मुनियों को खड्डे में डाल दिय है । आप पर यह सवार हो जाय तो आपको भूमि पर पछाड़कर रौंद दे । अतः निरन्तर सजग रहें । इसे कभी धाँधली न करने दें। इसका अस्तित्व ही मिटा दें, समाप्त कर दें ।



हाथ-से-हाथ मसलकर, दाँत-से-दाँत भींचकर, कमर कसकर, छाती में प्राण भरकर जोर लगाओ और मन की दासता को कुचल डालो, बेड़ियाँ तोड़ फेंको । सदैव के लिए इसके शिकंजे में से निकलकर इसके स्वामी बन जाओ ।


मन पर विजय प्राप्त करनेवाला पुरुष ही इस विश्व में बुद्धिमान् और् भाग्यवान है । वही सच्चा पुरुष है । जिसमें मन का कान पकड़ने का साहस नहीं, जो प्रयत्न तक नहीं करता वह मनुष्य कहलाने के योग्य ही नहीं । वह साधारण गधा नहीं अपितु मकरणी गधा है ।

वास्तव में तो मन के लिए उसकी अपनी सत्ता ही नहीं है । आपने ही इसे उपजाया है । यह आपका बालक है । आपने इसे लाड़ लड़ा-लड़ाकर उन्मत बना दिया है । बालक पर विवेकपूर्ण अंकुश हो तभी बालक सुधरते हैं । छोटे पेड़ की रक्षार्थ काँटों की बाड़ चाहिए । इसी प्रकार मन को भी खराब संगत से बचाने के लिए आपके द्वारा चौकीरुपी बाड़ होनी चाहिए ।

शब्दों के बाण

आपा खोकर कही गई बातें अक्सर दिल में गहरा घाव बना जाती हैं। ये घाव जब अपनों के दिए हुए हों, तब तो पीड़ा और भी सालती है। खासकर जब कोई दिल से आपके लिए कुछ करता है और बदले में आप उसे कुछ भी उलटा-सीधा कह जाते हैं। कभी सालों-साल वो शब्द मन को सालते रहते हैं तो कभी ऐसे शब्द दिलों में दूरियाँ आने का कारण भी बन जाते हैं।


सोच-समझकर बोलना केवल दूसरों से आपके रिश्तों को प्रगाढ़ ही नहीं करता बल्कि उनके मन में आपके लिए सम्मान भी पैदा करता है। इतना ही नहीं इससे आपको एक और फायदा यह होता है कि आप किसी का दिल दुखाने से बच जाते हैं। गुस्से या अहंकारवश कहे गए शब्द भले ही उस समय आपके लिए मायने न रखते हों, लेकिन जब अकेले में आप उन पर मनन करें तो पाएँगे कि ऐसे शब्द आपने कैसे इस्तेमाल कर लिए? या फिर अगर ऐसे शब्द आपके साथ प्रयोग में लाए जाते तो? इसलिए किसी भी स्थिति में तौलकर बोलना व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी होती है। जो लोग इस बात को समझते हैं वे सभी की प्रशंसा के पात्र बनते हैं।

शब्दों के बाण किसी को भी भीतर तक लहूलुहान कर देते हैं। शब्दों की ताकत से हममें से हर कोई वाकिफ है। शब्द हमारे संबंधों को निर्धारित करते हैं।

बोले गए शब्दों के घाव तलवार से भी गंभीर होते हैं। जीवन की जटिल राहों में शब्द धूप-छाँव दोनों का काम करते हैं। इसलिए सही समय पर सही शब्दों का इस्तेमाल करके हम अपनी ही नहीं, दूसरों की भी राहों को आसान बना सकते हैं। अक्सर लोग अपनी स्पष्टता और साफगोई को अपने व्यक्तित्व की एक बड़ी खासियत मानते हैं।

यह अच्छी बात है। लेकिन सीधे व सपाट शब्दों में अगर किसी को उसकी गलती बताई जाए तो वह गलती करने वाले आदमी को बदला लेने के लिए उकसाती है। ऐसे में ऐसी परिस्थितियों से निपटने का एक तरीका है कि उसे उसकी कुछ खासियतों के साथ गलती को इस ढंग से बताएँ कि उसे वह गलती अपमान की तरह न लगे। तो बस मौके को समझें और उस हिसाब से शब्दों का प्रयोग करें। 

चित्त की प्रसन्नता

आत्म-साक्षात्कारी सदगुरु के सिवाय अन्य किसी के ऊपर अति विश्वास न करो एवं अति सन्देह भी न करो।


अपने से छोटे लोगों से मिलो तब करुणा रखो। अपने से उत्तम व्यक्तियों से मिलो तब हृदय में श्रद्धा, भक्ति एवं विनय रखो। अपने समकक्ष लोगों से व्यवहार करने का प्रसंग आने पर हृदय में भगवान श्रीराम की तरह प्रेम रखो। अति उद्दण्ड लोग तुम्हारे संपर्क में आकर बदल न पायें तो ऐसे लोगों से थोड़े दूर रहकर अपना समय बचाओ। नौकरों को एवं आश्रित जनों को स्नेह दो। साथ ही साथ उन पर निगरानी रखो।

जो तुम्हारे मुख्य कार्यकर्ता हों, तुम्हारे धंधे-रोजगार के रहस्य जानते हों, तुम्हारी गुप्त बातें जानते हों उनके थोड़े बहुत नखरे भी सावधानीपूर्वक सहन करो।

अति भोलभाले भी मत बनो और अति चतुर भी मत बनो। अति भोलेभाले बनोगे तो लोग तुम्हें मूर्ख जानकर धोखा देंगे। अति चतुर बनोगे तो संसार का आकर्षण बढ़ेगा।

लालची, मूर्ख और झगड़ालू लोगों के सम्पर्क में नहीं आना। त्यागी, तपस्वी और परहित परायण लोगों की संगति नहीं छोड़ना।

चित्त की मलिनता चित्त का दोष है। चित्त की प्रसन्नता सदगुण है। अपने चित्त को सदा प्रसन्न रखो। राग-द्वेष के पोषक नहीं किन्तु राग-द्वेष के संहारक बनो।

कार्य सिद्ध होने पर, सफलता मिलने पर गर्व नहीं करना। कार्य में विफल होने पर विषाद के गर्त्त में नहीं गिरना।

DIPAWALI ME YAH BATE JARUR KARE

Param Pujya SadGurudev dvara gat varshon mein Diwali ke samay bataai gayee kuch baatein aapke saamne rakhney ka prayaas kar raha hoon...


1. Diwali aaye to Chaaval ka aata aur Haldi milaakar svastik banaa lena ghar ke (mukhya) dvar par. Is se Grah dosh door hoga aur Lakshmi sthir hogi. (Baraut Satsang 20th Sep'10)

2. Deepavali ke din laung (clove) aur ilaaichi (cardamom) ko jalaakar raakh kar dein; us se phir Gurudev (ki photo) ko tilak karein; Lakshmi-praapti mein madad milti hai, barkat hoti hai...

3. Kartik Maas mein yeh baatein karni chahiye (bahut laabh hota hai) -

a) Tulsiji ki mitti ka Tilak, b) Gangaji ka snaan, athva to prabhaat ka snaan (before sunrise), c) Brahmcharya ka paalan, chatoraapan na ho, d) Dharti par shayan...

4. Pooja ke sthaan par mor-pankh (peacock-feather) rakhney se Lakshmi-praapti mein madad milti hai...

5. Tulsi ke paudhey ke aagey shaam ko diya jalaaney se Lakshmi vridhhi mein madad milti hai; Gurudev ne yeh bhi kaha ki Lakshmiji ko kabhi Tulsiji nahin chadhaayee jaati, unko kamal (lotus) chadhaaya jaata hai...

6. Deepavali ki sandhya ko Tulsi ji ke nikat diya jalaayein, Lakshmiji ko prasann karne mein madad milti hai; Kartik maas mein Tulsiji ke aagey diya jalaana punya-daayi hai, aur praatah-kaal ke snaan ki bhi badi bhaari mahima hai...

7. Deepavali, janam-divas, aur nootan varsh ke din, prayatn-poorvak satsang sunna chahiye;

8. Deepavali ki raat ka jap hazaar guna fal-daayi hota hai; 4 maha-raatriyan hain - Diwali, Shivratri, Holi, Janmashtami - yeh sidhh raatriyaan hain, in raatriyon ka adhik se adhik jap kar ke laabh lena chahiye...

9. Deepavali ke baad aaney wali Dev-jagi Ekadashi ke din (17th Nov'10), sandhya ke samay kapoor (camphor) se aarti karne se aajeevan akaal-mrityu se raksha hoti hai; accident, aadi utpaaton se raksha hoti hai...


10. Deepavali ke next day, nootan varsh hota hai (New Year); us din, subah uthh kar thodi der chup baith jaayein; phir, apne dono haathon ko dekh kar yeh prarthna karein:

Karaagrey vasate Lakshmi, kar-madhyeye Saraswati, Kar-mooley tu Govindah, prabhaatey kar darshanam..

Arthaat - Mere haathon ke agrah bhaag mein Lakshmi ji ka vaas hai, mere haathon ke madhya bhaag mein Saraswati ji hain; mere haathon ke mool mein Govind hain, is bhaav se apne dono haathon ke darshan karta hoon...

Phir, jo nathuna chalta ho, wohi pair dharti par pehle rakhein; Daaya chalta ho, to 3 kadam aagey badhaayein, right pair se hi; baaya chalta ho, to 4 kadam aagey badaayein, left pair se hi;

11. Nootan varsh ka din jo vyakti harsh aur anand se bitaata hai, uska poora varsh harsh aur anand se jaata hai; (isliye hum sabhi saadhak 7th Nov'10 ko is baat ki sambhaal lein, ki yeh din harsh aur ullaas ke saath vyateet karein, Gurudev ka Satsang sun-ney, aur thoda jap jaada karne ka prayaas karein)... 
सेवा से आप संसार के काम आते


हैं। प्रेम से आप भगवान के काम आते हैं। दान से आप पुण्य और औदार्य का सुख

पाते हैं और एकान्त... व आत्मविचार से दिलबर का साक्षात्कार करके आप विश्व के

काम आते हैं।

Monday, September 20, 2010

जीवन की राह मे चाहे कैसी भी मुश्किल आ पड़े,धैर्य नहीं।खोना चाहिए।जन्म से पहले ही जिसने दूध की व्यवस्था कर दी,जो प्राणों को गति देता है,हमारे हृदय को जो धड़कनें दे रहा है,वह प्यारा प्रभु हमारे साथ है,हमारे पास है,फिर भय और चिंता के लिए स्थान ही कहाँ !भगवान का नाम लेकर उसके अर्थ में जो शांत होता है,जो सच्चा ईश्वर-विश्वासी है उसके कदम कैसी भी कठिन परिस्थिति शांत होता है

Tuesday, July 13, 2010

अरे नादान मन ! संसार सागर में डूबना अब शोभा नहीं देता। अब परम प्रेम के सागर में डूब जा जिससे और कहीं डूबना न पड़े। तू अमृत में ऐसी डुबकी लगा कि अमृतमय हो जा। यहाँ डूबने में ही सच्चा तैरना है। यहाँ विसर्जित होने में ही सच्चा सर्जन है। इस मृत्यु में ही सच्चा जीवन है।
अपने को न जान सके तो संसार को जान कर भी तो अज्ञानी ही रहोगे। अपने सम्बन्ध में जब अज्ञान बना है तो दूसरे का ज्ञान होकर ही क्या होगा। अपने घर में कूड़ा - करकट भरा रहे और दूसरे के मकानों में झाड़ू देते फिरो, यह तो कोई बुद्धिमानी नहीं है। जिस दिन अपने को जान लोगे उसी दिन मन की सारी गरीबी निकल जायगी और सुख - शान्ति का अनुभव होने लगेगा।

Monday, July 12, 2010

Nale Alakh je bedo tar muhijo


Tu thambo ,Tu thuni , To bina na koi adhar

Jiwan ki sham hone se pahele use pa le , Satkaryo ka shingar kar de , He Gurukripa tu hamare sath rahena , Duniya Bhale dhikkare , Tu na dhikkar je , Bigadi muhuji tu banayenge , Rahamat jo tu dhani aahi , Muhiji bedi par lagayagi , He data tu nirakar , nirlep , Nirvar aahi muhija bazara sai muhiji Bedi par lagayagi , Om shanti , om Anand , Om Madhurya , Om Mere moula , Tere bina , na koi sahara no koi sathi , na koi rahbar , na koi Taranhar mere data mere moula , Apni kripa barasate rahaena , apni nigaho me hame hamesha rakahate rahena , Bara bar Garbho ki juniyo me nahi bhatakana mere data , Bas kisise nibhaye ya nibhaye bas tere se nibhaye , Kuch paye na paye bas tuje pa le , Teri kripa ko pa le tujme samake tum ho jaye mere data , Bookmark
मनुष्य और पशु में अगर अन्तर देखना हो तो बल में मनुष्य से कई पशु आगे हैं जैसे सिंह, बाघ आदि। मानुषी बल से इनका बल अधिक होता है। हाथी का तो कहना ही क्या ? फिर भी मनुष्य महावत, छः सौ रूपये की नौकरी वाला, चपरासी की योग्यतावाला मनुष्य हाथी, सिंह और भालू को नचाता है, क्योंकि पशुओं के शारीरिक बल की अपेक्षा मनुष्य में मानसिक सूक्ष्मता अधिक है।


 मनुष्य के बच्चों में और पशुओं के बच्चों में भी यह अन्तर है कि पशु के बच्चे की अपेक्षा मनुष्य का बच्चा अधिक एकाग्र है। पशुओं के बच्चों को जो बात सिखाने में छः मास लगते हैं, फिर भी सैंकड़ों बेंत लगाने पड़ते हैं वह बात मनुष्य के बेटे को कुछ ही मिनटों में सिखाई जा सकती है। क्योंकि पशुओं की अपेक्षा मनुष्य के मन, बुद्धि कुछ अंशों में ज्यादा एकाग्र एवं विकसित है।

 इसलिए मनुष्य उन पर राज्य करता है।
कभी व्यर्थ की निन्दा होने लगेगी। इससे भयभीत न हुए तो बेमाप प्रशंसा मिलेगी। उसमें भी न उलझे तब प्रियतम परमात्मा की पूर्णता का साक्षात्कार हो जाएगा।


दर्द दिल में छुपाकर मुस्कुराना सीख ले।

गम के पर्दे में खुशी के गीत गाना सीख ले।।

तू अगर चाहे तो तेरा गम खुशी हो जाएगा।

मुस्कुराकर गम के काँटों को जलाना सीख ले।।

Saturday, July 10, 2010

'मैं हूँ' यह तो सबका अनुभव है लेकिन 'मैं कौन हूँ' यह ठीक से पता नहीं है। संसार में प्रायः सभी लोग अपने को शरीर व उसके नाम को लेकर मानते हैं कि 'मैं अमुक हूँ... मैं गोविन्दभाई हूँ।' नहीं.... यह हमारी वास्तविक पहचान नहीं है। अब हम इस साधना के जरिये हम वास्तव में कौन हैं.... हमारा असली स्वरूप क्या है.... इसकी खोज करेंगे। अनन्त की यह खोज आनन्दमय यात्रा बन जायेगी।

 सुख और दुःख हमारे जीवन के विकास के लिए नितान्त आवश्यक है। चलने के लिए दायाँ और बायाँ पैर जरूरी है, काम करने के लिए दायाँ और बायाँ हाथ जरूरी है, चबाने के लिए ऊपर का और नीचे का जबड़ा जरूरी है वैसे ही जीवन की उड़ान के लिए सुख व दुःखरूपी दो पंख जरूरी हैं। सुख-दुःख का उपयोग हम नहीं कर पाते, सुख-दुःख से प्रभावित हो जाते हैं तो जीवन पर आत्मविमुख होकर स्थूल-सूक्ष्म-कार

 सुख-दुःख का उपयोग हम नहीं कर पाते, सुख-दुःख से प्रभावित हो जाते हैं तो जीवन पर आत्मविमुख होकर स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर से बँधे ही रह जाते हैं। अपने मुक्त स्वभाव का पता नहीं चलता।

Friday, July 9, 2010

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..

जो सुख पाऊँ राम भजन में

सो सुख नाहिं अमीरी में

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..



जैसे प्रकाश के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना कोई सिद्धि नहीं होती।

जब तुम अपनी सहायता करते हो तो ईश्वर भी तुम्हारी सहायता करता ही है। फिर दैव (भाग्य) तुम्हारी सेवा करने को बाध्य हो जाता है।

आखिर यह तन छार मिलेगा

कहाँ फिरत मग़रूरी में

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..



प्रेम नगर में रहनी हमारी

साहिब मिले सबूरी में

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..

कहत कबीर सुनो भयी साधो

साहिब मिले सबूरी में

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ..



 जब तक 'तू' और 'तेरा' जिन्दे रहेंगे तब तक परमात्मा तेरे लिये मरा हुआ है। 'तू' और 'तेरा' जब मरेंगे तब परमात्मा तेरे जीवन में सम्पूर्ण कलाओं के साथ जन्म लेंगे। यही आखिरी मंजिल है। विश्व भर में भटकने के बाद विश्रांति के लिए अपने घर ही लौटना पड़ता है। उसी प्रकार जीवन की सब भटकान के बाद इसी सत्य में जागना पड़ेगा, तभी निर्मल, शाश्वत सुख उपलब्ध होगा।



आत्मशान्ति की प्राप्ति के लिए समय अल्प है, मार्ग अटपटा है। खुद को समझदार माननेवाले बड़े बड़े तीसमारखाँ भी इस मार्ग की भूलभूलैया से बाहर नहीं निकल पाये। वे जिज्ञासु धन्य हैं जिन्होंने सच्चे तत्त्ववेत्ताओं की छत्रछाया में पहुँच कर साहसपूर्वक आत्मशांति को पाने के लिए कमर कसी है।



दुःख से आत्यान्तिक मुक्ति पानी हो तो संत का सान्निध्य प्राप्त कर आत्मदेव

दुःख से आत्यान्तिक मुक्ति पानी हो तो संत का सान्निध्य प्राप्त कर आत्मदेव को जानो।


 तुम्हारे भीतर वह निर्भयस्वरूप आत्मदेव बैठा हुआ है, फिर भी तुम भयभीत होते हो ? अपने निर्भय स्वरूप को जानो और सब निर्बलताओं से मुक्त हो जाओ। उखाड़ फेंको अपनी सब गुलामियों को, कमजोरियों को। दीन-हीन-भयभीत जीवन को घसीटते हुए जीना भी कोई जीवन जीना है ?


 Hey Prabhu,kab aayenghe woh pal jab hum gurudev jho hum dena chate hai usmein range de apne ko.Gurudev abh is sansaari khilono se dil nahi behlana hai apni us noorani masti mein mast hona hai.Apne us alakh ki masti mein khona hai,jah na mein rahu,na janm ho ,na mrtyu ho,na desh,na kal,apne ko uss noorani masti mein khota chal....Hey sadhak.


 साधना के राह पर हजार विघ्न होंगे, लाख-लाख काँटे होंगे। उन सब पर निर्भयतापूर्वक पैर रखोगे तो वे काँटे फूल बन जायेंगे।


नाथ! आप तो दीनबन्धु हैं! करुणासागर हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कठोर बन जायँगे?आप तो अकारण ही प्रेमकरनेवाले हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कारण खोजेंगे? हे नाथ! विशेष न तरसाईये! अपनी विरद की तरफ देखकर ही हमें प्रेम-प्रदान कीजिये।इस जीवन को रसमय बना दीजिये।इस हृदय में तो तनिक भी प्रेम नहीं है!

यह तन(शरीर) विष की बेलरी,गुरु अमृत की खान,शीश दिए सतगुरु मिले,तो भी सस्ता जान.......

Thursday, July 8, 2010

भगवान् हमारे हैं और हम भगवान् के हैं—यह सच्ची बात है । इसलिये भजन-ध्यान करते हुए इस बातको विशेषतासे याद रखें कि भगवान् अभी हैं, यहाँ हैं, मेरेमें हैं और मेरे हैं । अब निराशाकी जगह ही कहाँ है ?


God is ours and I am God’s – this is the truth. Therefore during worship, reverence and meditating on God, especially remember this point, that God is present right now, right here, in me and He is mine. Now where is there any place for feeling of hopelessness?
Aie SUBAH tujhe dhundhane TARE nikal pade,


jaise kisi NADI k kinare nikal pade,

tere bina meri galiyan mera aangan UDAS hai,

MAHFIL ko dhundhne NAJARE nikal pade.., He Mere Data Tujko Pane ki Chah Liye Teri Satsang Giyan ki sarita me Ham Bah Chale
 प्रतीति संसार की होती है, प्राप्ति परमात्मा की होती है।"

 माया दुस्तर है लेकिन मायापति की शरण जाने से माया तरना सुगम हो जाता है।"

जितने जन्म-मरण हो रहे हैं वे प्रज्ञा के अपराध से हो रहे हैं। अतः प्रज्ञा को दैवी सम्पदा करके यहीं मुक्ति का अनुभव करो।"

कर्म का बदला जन्म-जन्मान्तर लेकर भी चुकाना पड़ता है। अतः कर्म करने में सावधान.... और कर्म का फल भोगने में प्रसन्न....।"

मनुष्य जैसा सोचता है वैसा हो जाता है। मन कल्पतरू है। अतः सुषुप्त दिव्यता को, दिव्य साधना से जगाओ। अपने में दिव्य विचार भरो।"


 जैसे बचपन में ये लोलीपॉप चाटने की या चाकलेट खाने की कला तुम बड़ी कला समझते थे ऐसे ही दुनिया भर की सारी कलाएँ चाकलेट खाने जैसी ही कलाएँ हैं, कोई बड़ी कला नहीं है। सब प्रतीति मात्र है, पेट भरने की कलाएँ हैं। धोखा है धोखा। कितना भी कमा लिया, कितना भी खा लिया, पी लिया, सुन लिया, देख लिया लेकिन जिस शरीर को खिलाया-पिलाया, सुनाया-दिखाया उस शरीर को तो जला देना है।


कर सत्संग अभी से प्यारे

नहीं तो फिर पछताना है।

खिला-पिलाकर देह बढ़ाई

वह भी अग्नि में जलाना है।।
चहेरे की हसी से हर गम को छुपाओ,


बहुत कुछ बोलो पर कुछ ना बताओ,

खुद ना रोठो कभी,पर सबको मनाओ ,

यही राज़ है जिन्दगी का, बस

जीते चले जाओ........................

Wednesday, July 7, 2010

Guru poonam ke anmol moti

*संसार में तू जाय तो सँभल-सँभलकर कदम रखना। संसार में उत्साह से कर्तव्यपालन


करना। संसार का कार्य उत्साह से, शास्त्रीय ढंग से करना। यदि परिणाम चाहे भी तो

शाश्वत चाहना और शाश्वत परिणाम साक्षात्कार ही है। तू अहंकार, वासना या काम की

कठपुतली होकर कार्य नहीं करना। तभी तू राम में विश्रांति पायेगा। जितना तू राम

में विश्रांति पायेगा उतना ही मेरा चित्त प्रसन्न होगा। जब-जब विकारों का सामना

हो, तब-तब सावधान रहना। तू फिसल जाय यह दुःख की बात है पर निराशा की बात नहीं

है। तू फिर-फिर से खड़ा होना। मैं फिर से तेरा हाथ पकडूँगा। तू डरना मत। मेरा

विशाल प्यार तेरे साथ है। तू मुझे इतना प्यार करता है तो मैं कँजूस क्यों

बनूँगा** **!** **तू अपने** **'मैं'** **को मिटाता है तो हे वत्स!** **मैं

अपने-आपको दे डालने का इंतजाम करता हूँ।***



*मैं तुझे समता के सिंहासन पर बिठाना चाहता हूँ। तेरे चित्त की दशा सुख-दुःख

में, मान-अपमान में, शीत-उष्ण में सम रहे यही मेरी आकांक्षा है।***



*गुरु के अनुभव में शिष्य टिक जाय और शिष्य, शिष्य न रहे गुरु बन जाय..... वत्स

** **!** **तू ऐसी ही तमन्ना करना। गुरुतत्त्व, गुरुस्वरूप, महानस्वरूप

परमात्मा में टिकना ही गुरु बनना है। बाहर से चाहे कोई गुरु माने-न-मानें। गुरु

स्वभाव परमात्मा का है, लघु स्वभाव देह का है। शरीर में,** **"मैं-मेरा"** **यह

लघु स्वभाव है। फिर कोई तुम्हें गुरु माने-न-माने, जाने-न-जाने इसका कोई

महत्त्व नहीं है।***



*तू अपने को कभी अकेला मत समझना, कभी अनाथ नहीं समझना। दीक्षा के दिन से

तेरा-मेरा मिलन हुआ है, तबसे तू अकेला नहीं है। मैं सदा तेरे साथ हूँ। देह की

दूरी चाहे दिखे पर आत्मराज्य में दूरी की कोई गुंजाइश नहीं। आत्मराज्य में

देश-काल की कोई विघ्न-बाधाएँ आ नहीं

GURU POONAM DIYAN

साधक आत्मा में विश्रांति पाता है तो गुरु की प्रेमपूर्ण कृपा उस पर बरसती है।


गुरू बताते हैं-** **"हे वत्स** **!** **जो मैं देहरूप होकर दिख रहा हूँ, वह

मैं नहीं हूँ। यह एक देह, नात-जात या मत-पंथ मेरा नहीं है। जो दिख रहा हूँ,

वैसा मैं नहीं हूँ। किसी देश में या प्रांत में अथवा किसी काल में या किसी रूप

में जैसा दिखता हूँ, वैसा मैं नहीं हूँ।***



*ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ से तू मुझसे बाहर निकल सके। ऐसा कोई समय नहीं जब मैं

नहीं हूँ। ऐसा कोई कर्म नहीं जो तू मुझसे छिपा सके। तत्त्व से तू मेरा अनुभव

करे तो तू मुझमें ही रहता है, मुझमें ही बोलता है। मैं तुझे यह गोपनीय बात बता

रहा हूँ। देह की आकृति से मैं लेता देता, कहता सुनता दिखता हूँ, इतना मैं नहीं

हूँ। तू देह में बँधा है, इसलिए देह में रहकर तुझे जगाना होता है।"***



*श्रीमद् राजचन्द्र ने ठीक कहा हैः***



*देहं छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत।***



*ते ज्ञानीना चरणमां हो वंदन अगणीत।।***



*"हे वत्स** **!** **तू देह को** **'मैं'** **मत मानना। यह देह तो प्रतीतिमात्र

है। तू प्रतीति में मत जाना, निज प्राप्ति में आना। तू अपने स्वरूप की प्राप्ति

करने आया है। जब तक तू लक्ष्य को नहीं पायेगा, मैं तेरा पीछा नहीं छोड़ूँगा।

मेरे दिल में तेरे कल्याण के सिवाय और कुछ नहीं है। हे साधक** **!** **कई बार

तू गलती करता है, फिर प्रायश्चित करता है, रोता है, पुकारता है। कई बार मेरे से

दूर होकर विकारों में जाता है लेकिन मैं तेरे से दूर नहीं हो सकता हूँ। मैं

तेरी कमजोरियाँ जानता हूँ, तेरी मनमानियाँ भी जानता हूँ। संसार में तू

सँभल-सँभलकर कदम रखना। तेरी श्रद्धा का धागा टूटे नहीं, इसका ख्याल रखना। तू

मनमुखता की आँधी में कहीं उलझ न जाय वत्स** **!** **बार-बार स्मरण, सत्संग और

सान्निध्य तुझे इन खतरों से बचाता रहेगा। तू कहीं भी रहे लेकिन मुझमें रहना।

जैसे श्रीकृष्ण और उद्धव का मिलन हुआ था वैसे ही तेरा और मेरा मिलन हो जाय,

साक्षात्कार हो जाय यही उद्देश्य बनाय रखना। हे साधक** **!** **तेरा और मेरा

बाहर का मिलन हो, ऐसा मिलन नहीं। तू अपने को देह मानता है। देह तो आती जाती है

और तू मुझे भी आता-जाता मानता है।***



*बाहर के ये संबंध तो मिटने वाले हैं लेकिन हे वत्स** **!** **तेरा और मेरा

संबंध अमिट है। आत्मा संबंध तथा गुरु और शिष्य का संबंध सत्य है, अमिट है।

जितना तू सत्य में ठहरता जायेगा, उतना ही तू मुझसे एक होता जायगा।***



*वत्स** **!** **जब तक तू पूज्य पद में नहीं ठहरा, तब तक मेरा प्रयत्न बंद नहीं

होगा। अपनी श्रद्धा-भक्ति बढ़ाते रहना। साधना छोड़ना मत। साधना छोड़ेगा तो

विकार और अहंकार तुझे धोखा देंगे। तू गुरू के दैवी कार्यों में लगे रहना, ताकि

विकारी कार्य तुझे बर्बाद न करें। तू मेरे प्रेम दरवाजे पर खड़े रहना, ताकि काम

का दरवाजा तेरे लिए आकर्षक न बने। तू राम के दरवाजे पर ही डटे रहना क्योंकि-***



*जहाँ राम तहँ नहीं काम,***



*जहाँ काम तहँ नहीं राम।***



*जब-जब तुझे काम सताये तब-तब तू अपने राम को पुकारना। उस स्थान को तुरंत छोड़

देना। वत्स** **!** **मैं तेरी कमजोरियाँ जानता हूँ। तेरी सम्भावना भी जानता

हूँ।***
परम प्रभु को अपना भज कर,




पथिक तुम्हे योगी होना है,



चाहे हरा दो बाजी,चाहे जीता दो बाजि,

...

तुम हो जिस्न्मे राजी हम भी उसी मै राजी,



हें हृद्यास्वर हें प्रानेस्वार हें सर्वेश्वर हें परमेश्वर,



विनती यह स्वीकार करो भूल दिखा कर,



उसे मिटा कर अपना प्रेम प्रदान करो,

योगिनी एकादशी 08th july 2010 ekadashi ke din chawal nahi khane chahiye jo vart nahi rakhate vo bhi

युधिष्ठिर ने पूछा : वासुदेव ! आषाढ़ के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? कृपया उसका वर्णन कीजिये ।



भगवान श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ ! आषाढ़ (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ ) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘योगिनी’ है। यह बड़े बडे पातकों का नाश करनेवाली है। संसारसागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है ।

अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं । उनका ‘हेममाली’ नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था । हेममाली की पत्नी का नाम ‘विशालाक्षी’ था । वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था । एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन में न जा सका । इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे । उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की । जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : ‘यक्षों ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है ?’

यक्षों ने कहा: राजन् ! वह तो पत्नी की कामना में आसक्त हो घर में ही रमण कर रहा है । यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलवाया । वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया । उसे देखकर कुबेर बोले : ‘ओ पापी ! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने भगवान की अवहेलना की है, अत: कोढ़ से युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा ।’


कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया । कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं हुई । तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरि के शिखर पर गया । वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन हुआ । पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनिवर मार्कण्डेय ने उसे भय से काँपते देख कहा : ‘तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया ?’

यक्ष बोला : मुने ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ । मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव पूजा के समय कुबेर को दिया करता था । एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया । मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता है, यह जानकर मुझ अपराधी को कर्त्तव्य का उपदेश दीजिये ।


मार्कण्डेयजी ने कहा: तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ । तुम आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करो । इस व्रत के पुण्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायेगा ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: राजन् ! मार्कण्डेयजी के उपदेश से उसने ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत किया, जिससे उसके शरीर को कोढ़ दूर हो गया । उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया ।



नृपश्रेष्ठ ! यह ‘योगिनी’ का व्रत ऐसा पुण्यशाली है कि अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है, वही फल ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है । ‘योगिनी’ महान पापों को शान्त करनेवाली और महान पुण्य फल देनेवाली है । इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।
महापुरुष का आश्रय प्राप्त करने वाला मनुष्य सचमुच परम सदभागी है। सदगुरु की गोद में पूर्ण श्रद्धा से अपना अहं रूपी मस्तक रखकर निश्चिंत होकर विश्राम पाने वाले सत्शिष्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक मार्ग तेजोमय हो जाता है। सदगुरु में परमात्मा का अनन्त सामर्थ्य होता है। उनके परम पावन देह को छूकर आने वाली वायु भी जीव के अनन्त जन्मों के पापों का निवारण करके क्षण


 निवारण करके क्षण मात्र में उसको आह्लादित कर सकती है तो उनके श्री चरणों में श्रद्धा-भक्ति से समर्पित होने वाले सत्शिष्य के कल्याण में क्या कमी रहेगी ?
महापुरुष का आश्रय प्राप्त करने वाला मनुष्य सचमुच परम सदभागी है। सदगुरु की गोद में पूर्ण श्रद्धा से अपना अहं रूपी मस्तक रखकर निश्चिंत होकर विश्राम पाने वाले सत्शिष्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक मार्ग तेजोमय हो जाता है। सदगुरु में परमात्मा का अनन्त सामर्थ्य होता है। उनके परम पावन देह को छूकर आने वाली वायु भी जीव के अनन्त जन्मों के पापों का निवारण करके क्षण मात्र में उसको आह्लादित कर सकती है तो उनके श्री चरणों में श्रद्धा-भक्ति से समर्पित होने वाले सत्शिष्य के कल्याण में क्या कमी रहेगी ?
परमात्मा के नित्यावतारूप ज्ञानी महात्मा के दर्शन तो कई लोगों को हो जाते है लेकिन उनकी वास्तविक पहचान सब को नहीं होती, इससे वे लाभ से वंचित रह जाते हैं। महात्मा के साक्षात्कार के लिए हृदय में अतुलनीय श्रद्धा और प्रेम के पुष्पों की सुगन्ध चाहिए।
जबतक सासे चलती है, गुरुवर की महिमा गावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू, जब माया-मोह मै उल्जा, मन नै मुजको भटकाया, गुरुदेव ने हाथ पकड़कर, मुझे सत्य का पंथ दिखाया, गुरुके चरणों को सजकर, अब और कहा मै जावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू, जबतक सासे चलती है, गुरुवर की महिमा गावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू,


 मेरे मनका रूप देखाये, मुझे गुरुचरणों का दर्पण, गुरुदेव की छायाहो को, टूटे पपोका बंधन, गुरुदेवकी महिमा समजू, और दुनियाको समजावू, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू, जबतक सासे चलती है, गुरुवर की महिमा गावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू,

 संसारके तुफानोमै, गुरुदेवका मिला सहारा, जब डूबा भवसागर मै, गुरुदेवने मुजको उबारा, तुम गावो राम की महिमा, मै आसाराम को ध्यावु, सपने मै उनको देखू, जागुतो उनको पावू, जबतक सासे चलती है, गुरुवर की महिमा गावु, सपने मै गुरुको देखू, जागुतो दर्शन पावू

Tuesday, July 6, 2010

 चातक मीन पतंग जब पिया बिन नहीं रह पाय।

साध्य को पाये बिना साधक क्यों रह जाय।।

 जैसे, पानी के एक बुलबुले में से आकाश निकल जाए तो बुलबुले का पेट फट जाएगा। जीवत्व का, कर्त्ता का, बँधनों का, बुलबुले का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। घड़े का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। बूँद सिंधु हो जाएगी। ऐसे ही अहं का पेट फट जाएगा। तब अहं हटते ही जीवात्मा परमात्मा से एक हो जाएगा।

 जैसे, पानी के एक बुलबुले में से आकाश निकल जाए तो बुलबुले का पेट फट जाएगा। जीवत्व का, कर्त्ता का, बँधनों का, बुलबुले का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। घड़े का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। बूँद सिंधु हो जाएगी। ऐसे ही अहं का पेट फट जाएगा। तब अहं हटते ही जीवात्मा परमात्मा से एक हो जाएगा।


 मुक्ति का अनुभव करने में कोई अड़चन आती है तो वह है यह जगत सच्चा लगना तथा विषय, विकार व वासना के प्रति आसक्ति होना। यदि सांसारिक वस्तुओं से अनासक्त होकर 'मैं कौन हूँ ?' इसे खोजें तो मुक्ति जल्दी मिलेगी। निर्वासनिक चित्त में से भोग की लिप्सा चली जाएगी और खायेगा, पियेगा तो औषधवत्.... परंतु उससे जुड़ेगा नहीं।


सुख बाँटने की चीज है तथा दुःख को पैरों तले कुचलने की चीज है। दुःख को पैरों तले कुचलना सीखो, न ही दुःख में घबराहट।

हे मानव ! तू सनातन है, मेरा अंश है। जैसे मैं नित्य हूँ वैसे ही तू भी नित्य है। जैसे मैं शाश्वत हूँ वैसे ही तू भी शाश्वत है। परन्तु भैया ! भूल सिर्फ इतनी हो रही है कि नश्वर शरीर को तू मान बैठा है। नश्वर वस्तुओं को तू अपनी मान बैठा है। लेकिन तेरे शाश्वत स्वरूप और मेरे शाश्वत सम्बन्ध की ओर तेरी दृष्टि नहीं है इस कारण तू दुःखी होता है।

तू अजर, अमर आत्मा-परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करके यहीं पर मुक्ति का अनुभव कर ले भैया !

दो बातन को भूल मत, जो चाहत कल्याण।
नारायण एक मोत को, दूजो श्री भगवान।।

मृत्यु और ईश्वर को जो नहीं भूलता है उसकी चेतना शीघ्र जाग्रत होती है। अतः ईश्वर और मृत्यु को मत भूलो। मृत्यु को याद करने से वैराग्य आयेगा और ईश्वर को याद करने से अभ्यास होगा।

ज्ञानके द्वारा जिनकी चित्-जड-ग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगन भी भगवान् की निष्काम भक्ति किया करते हैं, क्योंकि भगवान् के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियोंको अपनी और खींच लेते हैं ।

 परमात्मा तब मिलता है जब परमात्मा की प्रीति और परमात्म-प्राप्त, भगवत्प्राप्त महापुरुषों का सत्संग, सान्निध्य मिलता है। उससे शाश्वत परमात्मा की प्राप्ति होती है और बाकी सब प्रतीति है। चाहे कितनी भी प्रतीति हो जाये आखिर कुछ नहीं। ऊँचे ऊँचे पदों पर पहुँच गये, विश्व का राज्य मिल गया लेकिन आँख बन्द हुई तो सब समाप्त।
मुक्ति का अनुभव करने में कोई अड़चन आती है तो वह है यह जगत सच्चा लगना तथा विषय, विकार व वासना के प्रति आसक्ति होना। यदि सांसारिक वस्तुओं से अनासक्त होकर 'मैं कौन हूँ ?' इसे खोजें तो मुक्ति जल्दी मिलेगी। निर्वासनिक चित्त में से भोग की लिप्सा चली जाएगी और खायेगा, पियेगा तो औषधवत्.... परंतु उससे जुड़ेगा नहीं।
जैसे, पानी के एक बुलबुले में से आकाश निकल जाए तो बुलबुले का पेट फट जाएगा। जीवत्व का, कर्त्ता का, बँधनों का, बुलबुले का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। घड़े का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। बूँद सिंधु हो जाएगी। ऐसे ही अहं का पेट फट जाएगा। तब अहं हटते ही जीवात्मा परमात्मा से एक हो जाएगा।
दर्द दिल में छुपाकर मुस्कुराना सीख ले।




गम के पर्दे में खुशी के गीत गाना सीख ले।।



तू अगर चाहे तो तेरा गम खुशी हो जाएगा।



मुस्कुराकर गम के काँटों को जलाना सीख ले।।

Sunday, July 4, 2010

क्या फूल और क्या बेफूल

कौन अपना कौन पराया ? क्या फूल और क्या बेफूल ? ‘फूल’ जो था वह तो अलविदा हो गया । अब हड्डियों को फूल कहकर भी क्या खुशी मनाओगे? फूलों का फूल तो तुम्हारा चैतन्य था । उस चैतन्य से सम्बन्ध कर लेते तो तुम फूल ही फूल थे ।


 दुनियाँ के लोग तुम्हें बुलायेंगे कुछ लेने के लिए । तुम्हारे पास अब देने के लिए बचा भी क्या है ? वे लोग दोस्ती करेंगे कुछ लेने के लिए । सदगुरु तुम्हें प्यार करेंगे … प्रभु देने के लिए । दुनियाँ के लोग तुम्हें नश्वर देकर अपनी सुविधा खड़ी करेंगे, लेकिन सदगुरू तुम्हें शाश्वत् देकर अपनी सुविधा की परवाह नहीं करेंगे । ॐ… ॐ … ॐ …

ज्ञान की ज्योति जगने दो । इस शरीर की ममता को टूटने दो । शरीर की ममता टूटेगी तो अन्य नाते रिश्ते सब भीतर से ढीले हो जायेंगे । अहंता ममता टूटने पर तुम्हारा व्यवहार प्रभु का व्यवहार हो जाएगा । तुम्हारा बोलना प्रभु का बोलना हो जाएगा । तुम्हारा देखना प्रभु का देखना हो जाएगा । तुम्हारा जीना प्रभु का जीना हो जाएगा ।

ज्ञान की ज्योति जगने दो । इस शरीर की ममता को टूटने दो

मरना

जब मरना इतना अवश्यं भावि है तो मरने से डरना क्यों ? डरने से मौत नहीं मिटती। दूसरी बार मौत न हो इसका यत्न करना चाहिए।



अनेक बार मौत क्यों होती है ? वासना से मौत होती है। वासना क्यों होती है ? वासना सुख के लिए होती है। अगर आत्मा-परमात्मा का सुख मिल गया तो वासना आत्मा-परमात्मा में लीन हो जायेगी। परमात्मा अमर है। वासना अगर परमात्म-सुख से तृप्त नहीं हुई तो देखने की वासना खाने की वासना, सूँघने की वासना, सुनने की वासना और स्पर्श की वासना बनी रहेगी। पाँच ही तो विषय हैं और जिनको पाँच विषय का सुख दिलाते हो उनको तो जला देना है।


योगी इस बात को जानते हैं इसलिए वे अंतर आराम, अंतर सुख, अंतर ज्योत की ओर जाते हैं। भोगी इस बात को नहीं जानता, नहीं मानता इसलिए बाहर भटकता है। भगवान कहते हैं-


संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।


मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।

'जो योगी निरंतर संतुष्ट हैं, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए हैं और मुझ में दृढ़ निश्चयवाला है, वह मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है, वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।'

प्रार्थना....

हे मेरे प्रभु … !


तुम दया करना । मेरा मन … मेरा चित्त तुममें ही लगा रहे ।

अब … मैं कब तक संसारी बोझों को ढोता फिरुँगा … ? मेरा मन अब तुम्हारी यात्रा के लिए ऊर्ध्वगामी हो जाये … ऐसा सुअवसर प्राप्त करा दो मेरे स्वामी … !

हे मेरे अंतर्यामी ! अब मेरी ओर जरा कृपादृष्टि करो … । बरसती हुई आपकी अमृतवर्षा में मैं भी पूरा भीग जाऊँ …। मेरा मन मयूर अब एक आत्मदेव के सिवाय किसीके प्रति टहुँकार न करे ।

हे प्रभु ! हमें विकारों से, मोह ममता से, साथियों से बचाओ …अपने आपमें जगाओ ।

हे मेरे मालिक ! अब … कब तक … मैं भटकता रहूँगा ? मेरी सारी उमरिया बिती जा रही है … कुछ तो रहमत करो कि अब … आपके चरणों का अनुरागी होकर मैं आत्मानन्द के महासागर में गोता लगाऊँ ।

ॐ शांति ! ॐ आनंद !!

सोऽहम् सोऽहम् सोऽहम्

आखिर यह सब कब तक … ? मेरा जीवन परमात्मा की प्राप्ति के लिए है, यह क्यों भूल जाता हूँ ?

मुझे … अब … आपके लिए ही प्यास रहे प्रभु … !

अब प्रभु कृपा करौं एहि भाँति ।

सब तजि भजन करौं दिन राती

Saturday, July 3, 2010

ओ पालनहारे, निर्गुण और न्यारे




तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं....





हमरी उलझन सुलझाओ भगवन



तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं....





तुम्ही हमका हो संभाले



तुम्ही हमरे रखवाले





तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं...





चन्दा मैं तुम ही तो भरे हो चांदनी



सूरज मैं उजाला तुम ही से



यह गगन हैं मगन, तुम ही तो दिए इसे तारे



भगवन, यह जीवन तुम ही न सवारोगे



तो क्या कोई सवारे





ओ पालनहारे ......

Friday, July 2, 2010

आत्मबल का आवाहन




क्या आप अपने-आपको दुर्बल मानते हो ? लघुताग्रंथी में उलझ कर परिस्तिथियों से पिस रहे हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठे हो ?

…तो अपने भीतर सुषुप्त आत्मबल को जगाओ
शरीर चाहे स्त्री का हो, चाहे पुरुष का, प्रकृति के साम्राज्य में जो जीते हैं वे सब स्त्री हैं और प्रकृति के बन्धन से पार अपने स्वरूप की पहचान जिन्होंने कर ली है, अपने मन की गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर जिन्होंने फेंक दी हैं, वे पुरुष हैं
स्त्री या पुरुष शरीर एवं मान्यताएँ होती हैं
तुम तो तन-मन से पार निर्मल आत्मा हो


जागो…उठो…अपने भीतर सोये हुये निश्चयबल को जगाओ




सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को विकसित करो


आत्मा में अथाह सामर्थ्य है
अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके
अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके




आप शरीर नहीं हो बल्कि अनेक शरीर, देश, सागर, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र एवं पूरे ब्रह्माण्ड़ के दृष्टा हो, साक्षी हो
इस साक्षी भाव में जाग जाओ

Thursday, July 1, 2010

तुम्हे जो पाना है मुझे...

सुबह सुबह का प्यारा सा ख्वाब था


हलकिसे नींद में आँखों पर

अबतक तेरा नुरानी चेहरा

...धुंदलासा नजर आ रहा था ...



जागने की कोशिश में सोच रहा था

कही तुम ओज़ल ना हो जाओ ...

मै तो बस देखता ही रह गया

आँखे ऐसे ही बंद रख ली



जिसे वे इश्क करते है, उसी को आजमाते हैं।



खजाने रहमतों के इसी बहाने लुटवाते हैं।।



जैसे मिल गयी हो मुझे मेरी मंजिल ...



क्या बताऊ मै...



हे मेरे प्रभु



तबसे लेकर आजतक

तुम्हे तलाशता फिर रहा हुं ..

आँखे खोलकर ...



हर दिशा , हर डगर , हर नगर



सिर्फ और सिर्फ होता है दीदार तुम्हारा

हर रोज ...



सुबह सुबह के ख्वाब में ..



दुनिया के हंगामों में आँख हमारी लग जाय।



तो हे मालिक ! मेरे ख्वाबों में आना प्यार भरा पैगाम लिये।



अब सोच लिया है मैंने

अब नही खुलेगी ये आँखे

मेरे आखरी सांस तक

तुम्हे जो पाना है मुझे..

Wednesday, June 30, 2010

ignorant

If you put a gold coin and a candy in front of a child, then he will go after the candy, and not the gold coin. He appears ignorant to you, but in his own eyes he is not ignorant. Though not having knowledge, he is doing things with knowledge. In your eyes you see the gold coin as great, but for a child it does not appear so great.




According to his understanding, there is no taste in the gold coin, but the candy appears sweet; therefore what could he do with that gold coin? According to his knowledge and understanding, he is taking what he considers to be great. Being fully aware, he takes the candy, not out of ignorance. Similarly, you all are also after wealth, sense pleasures, and you consider these to be good, but from the perspective of a wise man, you are simply engaged in sins and moving towards hell, birth and death cycles and suffering. But even on saying so you do not listen. In whatever way possible, simply grab hold of the money and enjoy pleasures



The Self (spirit, consciousness, atma) has oneness with the Universal Consciousness (Paramatma)

अपनी शक्ति पर विश्वास

अपनी शक्ति पर विश्वास




अयें मे हस्तो भगवान् अयं मे भगवत्तरः।



जो लोग कठिनतम कार्यो को करने में भी अपने को योग्य मानते हैं व अपनी शक्ति पर विश्वास करते हैं, वे चारों ओर अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेते हैं। जो अपने को असमर्थ मानते हैं, 'मेरी परीक्षा है, मेरे को बड़ा टेंशन है। क्या होगा ? क्या होगा ? क्या होगा ?' तो उनको उनके माँ बाप भी बोलते हैं कि हाँ-हाँ, हमको भी तेरी परीक्षा का टेंशन है। ऐसा मत करो, वैसा मत करो.... इससे बच्चों का मानसिक तनाव और बढ़ जाता है। और फिर कई माँ-बाप तो ऐसे भोले भगत बेचारे कि बच्चों के साथ परीक्षा केन्द्र की जगह पर खुद भी जाकर बैठ जाते हैं। नहीं, परीक्षा हो तो बेटे को, बेटी को कहो कि 'कोई बात नहीं बेटी ! जब तक तेरे पेपर पूरे नहीं होंगे तब तक हम भी टी.वी. नहीं देखेंगे। हम तेरे लिए ऐसा भोजन बनायेंगे जिससे तेरी यादशक्ति बढ़िया हो। परीक्षा ही तो है, और क्या है ! घबराना नहीं। तू ईश्वर का अंश है, बापू का मंत्र तुझे मिला हुआ है। बेटी ! देखना, तू अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होगी। हम तेरे लिए शुभ संकल्प करते हैं। हरि ॐ.... हरि ॐ... ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ऐसा करके उसकी हिम्मत बढ़ायें।



कठिन कार्य करने में भी जो अपने को योग्य मानते हैं, वे जरूर अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करके अपने कार्य में सफल हो जाते है, फिर चाहे दुकान-धंधे-व्यापार का काम हो, विद्यार्थियों की परीक्षा हो, साधना हो, भक्ति हो सब में सफल हो जाते हैं।
प्रेमी के हृदय में जब प्रीति की वृद्धि होती है तो उसकी प्रत्येक प्रवृति में प्रीति आ जाती है।प्रीति कोई ऐसी चीज नहीं है कि आप सब काम-धन्धा छोड़ देंगे,तब प्रेम करेंगे।


हे नाथ! आप तो दीनबन्धु हैं! करुणासागर हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कठोर बन जायँगे?आप तो अकारण ही प्रेमकरनेवाले हैं! फिर क्या आप हमारे लिये ही कारण खोजेंगे? हे नाथ! विशेष न तरसाईये! अपनी विरद की तरफ देखकर ही हमें प्रेम-प्रदान कीजिये।इस जीवन को रसमय बना दीजिये।इस हृदय में तो तनिक भी प्रेम नहीं है!

सच्चे सदगुरु

सच्चे सदगुरु तो तुम्हारे स्वरचित सपनों की धज्जियाँ उड़ा देंगे। अपने मर्मभेदी शब्दों से तुम्हारे अंतःकरण को झकझोर देंगे। वज्र की तरह वे गिरेंगे तुम्हारे ऊपर। तुमको नया रूप देना है, नयी मूर्ति बनाना है, नया जन्म देना है न ! वे तरह-तरह की चोट पहुँचायेगे, तुम्हें तरह-तरह से काटेंगे तभी तो तुम पूजनीय मूर्ति बनोगे। अन्यथा तो निरे पत्थर रह जाओगे। तुम पत्थर न रह जाओ इसीलिए तो तुम्हारे अहंकार को तोड़ना है, भ्रांतियों के जाल को काटना है। तुम्हें नये जन्म के लिए नौ माह के गर्भवास और जन्म लेते समय होने वाली पीड़ा तो सहनी पड़ेगी न ! बीज से वृक्ष बनने के लिए बीज के पिछले रूप को तो सड़ना-गलना पड़ेगा न ! शिष्य के लिए सदगुरु की कृपापूर्ण क्रिया एक शल्यक्रिया के समान है। सदगुरु के चरणों में रहना है तो एक बात मत भूलना – चोट लगेगी, छाती फट जायेगी गुरु के शब्द-बाणों से। खून भी बहेगा। घाव भी होंगे। पीड़ा भी होगी। उस पीड़ा से लाखों जन्मों की पीड़ा मिटती है। पीड़ोद् भवा सिद्धयः। सिद्धियाँ पीड़ा से प्राप्त होती हैं। जो हमारे आत्मा के आत्मा हैं, जो सब कुछ हैं उन्हीं की प्राप्तिरूप सिद्धि मिलेगी।.... लेकिन भैया ! याद रखना, अपने बिना किसी स्वार्थ के अपनी शल्यक्रिया द्वारा कभी-कभी आते हैं इस धरा पर। उन्हीं के द्वारा लोगों का कल्याण होता है बड़ी भारी संख्या में। कई जन्मों के संचित पुण्यों का उदय होने पर भाग्य से अगर इतने करुणावान महापुरुष मिल जायें तो हे मित्र ! प्राण जायें तो जायें, पर भागना मत।




कबीरजी कहते हैं-



शीश दिए सदगुरु मिलें, तो भी सस्ता जान

Tuesday, June 29, 2010

श्रीमद् भगवदगीता माहात्म्य

श्री गणेशाय नमः


श्रीमद् भगवदगीता माहात्म्य


धरोवाच

भगवन्परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी ।

प्रारब्धं भुज्यमानस्य कथं भवति हे प्रभो ।।1।।


श्री पृथ्वी देवी ने पूछाः

हे भगवन ! हे परमेश्वर ! हे प्रभो ! प्रारब्धकर्म को भोगते हुए मनुष्य को एकनिष्ठ भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है?(1)


श्रीविष्णुरुवाच

प्रारब्धं भुज्यमानो हि गीताभ्यासरतः सदा ।

स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते ।।2।।

श्री विष्णु भगवान बोलेः

प्रारब्ध को भोगता हुआ जो मनुष्य सदा श्रीगीता के अभ्यास में आसक्त हो वही इस लोक में मुक्त और सुखी होता है तथा कर्म में लेपायमान नहीं होता
(2)

महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति चेत् ।

क्वचित्स्पर्शं न कुर्वन्ति नलिनीदलमम्बुवत् ।।3।।

जिस प्रकार कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं करता उसी प्रकार जो मनुष्य श्रीगीता का ध्यान करता है उसे महापापादि पाप कभी स्पर्श नहीं करते
(3)

गीतायाः पुस्तकं यत्र पाठः प्रवर्तते।

तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र वै।।4।।

जहाँ श्रीगीता की पुस्तक होती है और जहाँ श्रीगीता का पाठ होता है वहाँ प्रयागादि सर्व तीर्थ निवास करते हैं
(4)

सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये।

गोपालबालकृष्णोsपि नारदध्रुवपार्षदैः ।।

सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता प्रवर्तते ।।5।।

जहाँ श्रीगीता प्रवर्तमान है वहाँ सभी देवों, ऋषियों, योगियों, नागों और गोपालबाल श्रीकृष्ण भी नारद, ध्रुव आदि सभी पार्षदों सहित जल्दी ही सहायक होते हैं
(5)

यत्रगीताविचारश्च पठनं पाठनं श्रुतम् ।

तत्राहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि सदैव हि ।।6।।

जहाँ श्री गीता का विचार, पठन, पाठन तथा श्रवण होता है वहाँ हे पृथ्वी ! मैं अवश्य निवास करता हूँ
(6)
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम्।

गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान्पालयाम्यहंम्।।7।।

मैं श्रीगीता के आश्रय में रहता हूँ, श्रीगीता मेरा उत्तम घर है और श्रीगीता के ज्ञान का आश्रय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ
(7)

गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः।

अर्धमात्राक्षरा नित्या स्वनिर्वाच्यपदात्मिका।।8।।


श्रीगीता अति अवर्णनीय पदोंवाली, अविनाशी, अर्धमात्रा तथा अक्षरस्वरूप, नित्य, ब्रह्मरूपिणी और परम श्रेष्ठ मेरी विद्या है इसमें सन्देह नहीं है
(8)

चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता स्वमुखतोऽर्जुनम्।

वेदत्रयी परानन्दा तत्त्वार्थज्ञानसंयुता।।9।।

वह श्रीगीता चिदानन्द श्रीकृष्ण ने अपने मुख से अर्जुन को कही हुई तथा तीनों वेदस्वरूप, परमानन्दस्वरूप तथा तत्त्वरूप पदार्थ के ज्ञान से युक्त है
(9)

योऽष्टादशजपो नित्यं नरो निश्चलमानसः।

ज्ञानसिद्धिं स लभते ततो याति परं पदम्।।10।।

जो मनुष्य स्थिर मन वाला होकर नित्य श्री गीता के 18 अध्यायों का जप-पाठ करता है वह ज्ञानस्थ सिद्धि को प्राप्त होता है और फिर परम पद को पाता है
(10)
ठेऽसमर्थः संपूर्णे ततोऽर्धं पाठमाचरेत्।


तदा गोदानजं पुण्यं लभते नात्र संशयः।।11।।


संपूर्ण पाठ करने में असमर्थ हो तो आधा पाठ करे, तो भी गाय के दान से होने वाले पुण्य को प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं
(11)


त्रिभागं पठमानस्तु गंगास्नानफलं लभेत्।

षडंशं जपमानस्तु सोमयागफलं लभेत्।।12।।

तीसरे भाग का पाठ करे तो गंगास्नान का फल प्राप्त करता है और छठवें भाग का पाठ करे तो सोमयाग का फल पाता है
(12)

एकाध्यायं तु यो नित्यं पठते भक्तिसंयुतः।

रूद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम।।13।।


जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर नित्य एक अध्याय का भी पाठ करता है, वह रुद्रलोक को प्राप्त होता है और वहाँ शिवजी का गण बनकर चिरकाल तक निवास करता है
(13)

अध्याये श्लोकपादं वा नित्यं यः पठते नरः।

स याति नरतां यावन्मन्वन्तरं वसुन्धरे।।14।।


हे पृथ्वी ! जो मनुष्य नित्य एक अध्याय एक श्लोक अथवा श्लोक के एक चरण का पाठ करता है वह मन्वंतर तक मनुष्यता को प्राप्त करता है
(14)

गीताया श्लोकदशकं सप्त पंच चतुष्टयम्।

द्वौ त्रीनेकं तदर्धं वा श्लोकानां यः पठेन्नरः।।15।।

चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं ध्रुवम्।

गीतापाठसमायुक्तो मृतो मानुषतां व्रजेत्।।16।।

जो मनुष्य गीता के दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे श्लोक का पाठ करता है वह अवश्य दस हजार वर्ष तक चन्द्रलोक को प्राप्त होता है
गीता के पाठ में लगे हुए मनुष्य की अगर मृत्यु होती है तो वह (पशु आदि की अधम योनियों में न जाकर) पुनः मनुष्य जन्म पाता है
(15,16)

गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम्।

गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमाणो गतिं लभेत्।।17।।

(और वहाँ) गीता का पुनः अभ्यास करके उत्तम मुक्ति को पाता है
'गीता' ऐसे उच्चार के साथ जो मरता है वह सदगति को पाता है

गीतार्थश्रवणासक्तो महापापयुतोऽपि वा।

वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णुना सह मोदते।।18।।

गीता का अर्थ तत्पर सुनने में तत्पर बना हुआ मनुष्य महापापी हो तो भी वह वैकुण्ठ को प्राप्त होता है और विष्णु के साथ आनन्द करता है
(18)

गीतार्थं ध्यायते नित्यं कृत्वा कर्माणि भूरिशः।

जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो देहांते परमं पदम्।।19।।


अनेक कर्म करके नित्य श्री गीता के अर्थ का जो विचार करता है उसे जीवन्मुक्त जानो
मृत्यु के बाद वह परम पद को पाता है
(19)

गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः।

निर्धूतकल्मषा लोके गीता याताः परं पदम्।।20।।

गीता का आश्रय करके जनक आदि कई राजा पाप रहित होकर लोक में यशस्वी बने हैं और परम पद को प्राप्त हुए हैं
(20)

गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत्।

वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव ह्युदाहृतः।।21।।

श्रीगीता का पाठ करके जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसका पाठ निष्फल होता है और ऐसे पाठ को श्रमरूप कहा है
(21)

एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीताभ्यासं करोति यः।

स तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां गतिमाप्नुयात्।।22।।

इस माहात्म्यसहित श्रीगीता का जो अभ्यास करता है वह उसका फल पाता है और दुर्लभ गति को प्राप्त होता है
(22)

सूत उवाच

माहात्म्यमेतद् गीताया मया प्रोक्तं सनातनम्।

गीतान्ते पठेद्यस्तु यदुक्तं तत्फलं लभेत्।।23।।

सूत जी बोलेः

गीता का यह सनातन माहात्म्य मैंने कहा
गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है वह उपर्युक्त फल प्राप्त करता है
(23)

इति श्रीवाराहपुराणे श्रीमद् गीतामाहात्म्यं संपूर्णम्।

इति श्रीवाराहपुराण में श्रीमद् गीता माहात्म्य संपूर्ण।।

we wish

What is having a need, a desire mean? Need is when , what we say must be accepted, whatever we wish must happen. If man gives up having a need, then he can become the crown jewel! He can become divine just like God! God fulfills every ones wishes, what is anyone going to fulfill God's wants? He has no wants at all. We all can be in that extra-ordinary state. We only need to give up our intentions, our resolves. By not giving up our intentions, our resolves will not be fulfilled. Those intentions that get fulfilled, will be fulfilled in spite of renouncing them. Things will take place according to that which is ordained by God. "Ram keenh chaahin soyi hoyi . Karai anyathaa as nahin koyi." (Manas 1/128/1)

Monday, June 28, 2010

The world is not your home, You are to live here for a few days only, Recollect about your own kingdom, Where you are the unchallenged master.’


मनुष्य जन्म दुर्लभ है, बार-बार नहीं मिलेगा। 'अबके बिछड़े कब मिलेंगे, जाय पड़ेंगे दूर।' बड़े में बड़ा दुःख है जन्म-मृत्यु का और बड़े में बड़ा सुख है मुक्ति का। ऐ प्यारे ! आज ही शुद्ध संकल्प करो कि इसी जन्म में हम मोक्ष प्राप्त करेंगे।
हे नाथ ! हृदयमें आपकी लगन लग जाय। दिल में आप धँस जाओ। आपकी रुपमाधुरी आँखोंमें समा जाय, आपके लिये उत्कट अनुराग हो जाय। बस,बस इतना ही और कुछ नहीं चाहिये।
आज तक आपने जगत का जो कुछ जाना है, जो कुछ प्राप्त किया है.... आज के बाद जो जानोगे और प्राप्त करोगे, प्यारे भैया ! वह सब मृत्यु के एक ही झटके में छूट जाएगा, जाना अनजाना हो जायेगा, प्राप्ति अप्राप्ति में बदल जायेगी। अतः सावधान हो जाओ। अन्तर्मुख होकर अपने अविचल आत्मा को, निजस्वरूप के अगाध आनन्द को, शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर लो। फिर तो आप ही अविनाशी आत्मा हो।

Sunday, June 13, 2010

हे विद्यार्थी ! सफलता के ये आठ स्वर्णिम सूत्र तुझे महान बना देंगे । --परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू

--१--
कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तु गोविंद: प्रभाते करदर्शनम् ॥
हर रोज प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठना, ईश्वर का ध्यान और 'कर दर्शन' करके बिस्तर छोड़ना तथा सूर्योदय से पूर्व स्नान करना ।

--२--
अपनी सुषुप्त शक्तियाँ जगाने एवं एकाग्रता के विकास के लिए नियमित रूप से गुरुमंत्र का जप , ईश्वर का ध्यान और त्राटक करना ।

--३--
बुद्धि शक्ति के विकास एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हर रोज प्रातः सूर्य को अर्घ्य देना , सूर्य नमस्कार एवं आसन करना ।

--४--
स्मरण शक्ति के विकास के लिए नियमित रूप से भ्रामरी प्राणायाम करना एवं तुलसी के ५-७ पत्ते खाकर एक गिलास पानी पीना ।

--५--
माता -पिता एवं गुरुजनों को प्रणाम करना । इससे जीवन में आयु, विद्या, यश, व बल की वृद्धि होती है ।

--६--
महान बनने का दृढ़ संकल्प करना तथा उसे हर रोज दोहराना, ख़राब संगति एवं व्यसनों का दृढ़तापूर्वक त्याग कर अच्छे मित्रों की संगति करना तथा चुस्तता से ब्रह्मचर्य का पालन करना ।

--७--
समय का सदुपयोग करना, एकाग्रता से विद्या-अध्ययन करना और मिले हुए ग्रहकार्य को हर रोज नियमित रूप से पूरा करना ।

--८--
हर रोज सोने से पूर्व पूरे दिन की परिचर्या का सिंहावलोकन करना और गलतियों को फिर न दोहराने का संकल्प करना, तत्पश्चात ईश्वर का ध्यान करते हुए सोना

Saturday, June 12, 2010

जैसे स्नेहमयी जननीका वक्ष:स्थल शिशुके लिये सदा ही


खुला रहता है,वैसे ही भगवान् तुम्हें बड़े प्यारसे अपने हृदयसे चिपटानेको तैयार

मिलेंगे।इतनेपर भी जो जीव उनकी ओरसे मुख मोड़े रहनेमें ही अपना गौरव मानता है;उसके

समान अभागा और कोई नहीं है।सारे पाप-ताप सदा उसके सामने मुँह बाये खड़े रहते हैं और

वह अपने जीवनमें किसी भी स्थितिमें क...भी भी सच्ची स...ुख-शान्तिका साक्

 
भयंकर से भयंकर परिस्थिति आ जाय,तब भी कह दो-"आओ मेरे प्यारे!आओ,आओ,आओ।तुम कोई और नहीं हो।मैं तुम्हें जानता हूँ।तुमने मेरे लिये आवश्यक समझा होगा कि मैं दु:ख के वेश में आऊँ,इसलिये तुम दु:ख के वेश में आये हो।स्वागतम्!वैलकम्! आओ आओ चले आओ!" आप देखेंगे कि वह प्रतिकूलता आपके लिये इतनी उपयोगी सिद्ध होगी कि जिस पर अनेकों अनुकूलत...ायें निछावर की जा सकती है।

Tuesday, June 1, 2010

 जगत का सब ऐश्वर्य भोगने को मिल जाय परन्तु अपने आत्मा-परमात्मा का ज्ञान नहीं मिला तो अंत में इस जीवात्मा का सर्वस्व छिन जाता है। जिनके पास आत्मज्ञान नहीं है और दूसरा भले सब कुछ हो परन्तु वह सब नश्वर है । उसका शरीर भी नश्वर है ।वशिष्ठजी कहते हैः



किसी को स्वर्ग का ऐश्वर्य मिले और आत्मज्ञान न मिले तो वह आदमी अभागा है । बाहर का ऐश्वर्य मिले चाहे न मिले, अपितु ऐसी कोई कठिनाई हो कि चंडाल के घर की भिक्षा ठीकरे में खाकर जीना पड़े फिर भी जहाँ आत्मज्ञान मिलता हो उसी देश में रहना चाहिए, उसी वातावरण में अपने चित्त को परमात्मा में लगाना चाहिए । आत्मज्ञान में तत्पर मनुष्य ही अपने आपका मित्र है । जो अपना उद्धार


जो अपना उद्धार करने के रास्ते नहीं चलता वह मनुष्य शरीर में दो पैर वाला पशु माना गया है।"तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कहा हैःजिन्ह हरि कथा सुनी नहीं काना।श्रवण रंध्र अहि भवन समाना

Monday, May 31, 2010

 भगवान्‌ का भक्त होने का तात्पर्य है-’मैं भगवान्‌ का ही हूँ’ इस प्रकार अपनी अहंताको बदल देना।भगवान्‌ में मन लगाने का तात्पर्य है-भगवान्‌ को अपना मानना।भगवान्‌ का पूजन करने का तात्पर्य-सब कार्य पूजाभावसे करना।भगवान्‌ को नमस्कार करने का तात्पर्य है-अपने-आपको भगवान्‌ के समर्पित करना।


 जब तक 'तू' और 'तेरा' जिन्दे रहेंगे तब तक परमात्मा तेरे लिये मरा हुआ है। 'तू' और 'तेरा' जब मरेंगे तब परमात्मा तेरे जीवन में सम्पूर्ण कलाओं के साथ जन्म लेंगे। यही आखिरी मंजिल है। विश्व भर में भटकने के बाद विश्रांति के लिए अपने घर ही लौटना पड़ता है। उसी प्रकार जीवन की सब भटकान के बाद इसी सत्य में जागना पड़ेगा, तभी निर्मल, शाश्वत सुख उपलब्ध होगा।

Angaarak Chaturthi (Tuesday, 1st Jun'10)

Angaarak Chaturthi (Tuesday, 1st Jun'10)


Pujya Bapuji has described great significance of the upcoming Mangalwar Chaturthi tithi falling on Tuesday, 1st Jun'10, also known as Angaarak Chaturthi. As mentioned by Pujya Bapuji during the Maagh Purnima Satsang in Delhi, doing japa, tapa, upvaas, daan, sat-karm on this sacred tithi affords the same religious merits as done during a solar eclipse. Stressing on the sadhaks to especially take benefit of this tithi, Pujya Bapuji mentioned that performing japa, tapa, daan, etc. during a solar eclipse is 10 lakh times more beneficial as compared to an ordinary day. The same fruits are obtained if one performs japa, tapa, daan-punya, etc. on a Mangalwar Chaturthi tithi. This wonderful yog is especially beneficial for rapid spiritual advancement of sadhaks.

pujya Bapuji mentioned that these tithis are like boons (vardaan) to sadhaks, which are given by the Lord Himself when He decides to shower His splendor and majesty (vaibhav) among the bhaktas.

Following are some tips for sadhaks to derive maximum benefits from this pious tithi:

1. If possible, take a holiday from your office, service, etc. to reap rich spiritual benefits on this day.

2. Observe Maun (silence) or speak as little as possible.

3. Devote maximum time to japa & meditation (dhyan). Since doing japa on this day is 10 lakh times more beneficial as compared to any other ordinary day, even 1 mala of mantra-japa will be equivalent to 10 crore japa. Performing japa on this tithi, therefore, has anant-fal (endless fruits) and sadhaks should look to reap maximum benefits from it.

4. Pujya Bapuji advised that if one is trying to overcome obstacles, struggles in his personal life, making use of this tithi as mentioned above will enable him to easily tide over the troubles, as compared to his individual level efforts to resolve the problem. As often heard in Satsang, “Jiska isht majboot hota hai, uska anisht nahin hota”.

5. As per Pujya Bapuji, students will also be able to derive great benefits from this day if they:

1. Do upvaas (fast) and stay on milk only.

2. Observe Maun (silence).

3. Perform Japa of Saraswatya Mantra.

4. Do not watch films, etc.

6. As per Pujya Bapuji, one should clean his sadhana room with Gau Jharan Ark before this japa tithi, and do gau-chandan dhoop, deep (diya) in the room.

7. On the night before Mangalwar Chaturthi (Monday), the sadhak should make a firm resolve, “Tomorrow, I will observe upvaas (fast), maun (silence), study the holy scriptures & other Satsang books like Divya Prerna Prakash,Jeevan Vikas & Ishvar ki Or, and will engage myself constantly in japa and meditation (dhyan).”

8. Pujya Bapuji advised that sadhaks should do japa of the aarogya-mantra (health mantra) as well on this auspicious day. Sadhaks can do a few mala of the health mantra in order to attain siddhi of the mantra. Please click here for Health Mantra.

9. Pujya Bapuji further advised that sadhaks should definitely do some mala jap of the aashirvaad mantra (bonus mantra). Pujya Bapuji has blessed many sadhaks with a aashirvaad/bonus mantra as well, by japa of which sadhaks will not have heart-attack, high b.p, low b.p etc. The sadhaks who have received this ‘bonus’ mantra should definitely do japa of a few mala of this mantra too, as mentioned by Pujya Bapuji in the evening Satsang in Delhi on 31st Jan’10.

10. Pujya Bapuji also mentioned in Delhi Satsang that there is a mantra which can be chanted by sadhaks in case they suddenly encounter some problem (achaanak koi musibat aa jaaye) e.g. office boss harassing a sadhak, etc. Sadhaks who have been blessed with this mantra should do japa of this mantra as well. Performing japa of this mantra will blow away the impediments that are faced, if any, by the sadhaks. More details of this mantra may be seen at the following link:

http://www.ashram.org/Publications/ArticleView/tabid/417/smid/1452/ArticleID/182/reftab/539/t/Blow-away-the-Impediments/Default.aspx

11. Pujya Bapuji advised that if any sadhaks are facing court case problems (e.g. false cases of implication, etc.), they should do japa of the following mantra to get rid of the same:

पवन तनय बल पवन समाना

बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना

कवन सो काज कठिन जग माहि

जो नहीं होहि तात तुम पाहि

Sadhaks can also do seva of doing 1 mala japa of this mantra with sankalp that all false court cases which have been leveled by conspirators against Pujya Bapuji are nullified.

12. In the recently concluded Ujjain Satsang, Pujya Bapuji stayed with the sadhaks on the vyaas-peeth during the solar eclipse (surya grahan) on 15th Jan’10. During the grahan period, Pujya Bapuji Himself and sadhaks did saamuhik paath of Aditya Hriday Stotra. Since this tithi on 1st Jun ’10 is equivalent to a solar eclipse in terms of giving religious merits, sadhaks may do 1 paath of Aditya Hriday Stotra as well, in order to remove any obstacles (vighn-baadha) that they are facing in their life. They may also add the sankalp that all the anti-elements working against our nation and culture (sanskriti) are destroyed.

Aditya Hriday Stotra is available at the following location:

http://ashram.org/AboutAshram/Events/AdityaHrudaystotraPaath/tabid/947/Default.aspx

13. Pujya Bapuji has advised that one should do Vishraanti Prayog on this day. Vishraanti Prayog involves gazing at the picture of Om, Svastik or Pujya Gurudev and chanting Omkar mantra (gunjan) in between, if any useless thoughts come in the mind. Pujya Bapuji has advised that sadhaks can do this vishraanti prayog for 30 minutes at a time, and perform 4-5 courses of this prayog during the entire day. (Note: Sadhaks can also extend the time of the prayog from 30 minutes for higher benefits.) A key point stressed by Pujya Bapuji is that sadhaks should jap of the Omkaar mantra with sankalp that japa is being performed for Ishvar Preeti (love of God) & Ishvar Praapti (attaining God)

14. Pujya Bapuji advises that sadhaks should do japa of the Brahmacharya mantra as well on such auspicious tithis, and attain siddhi of the same. Sadhaks can therefore do few mala japa of the Brahmcharya mantra too on this pious Mangalwar Chaturthi tithi. Details of this mantra are available at the following link:

http://www.ashram.org/Publications/ArticleView/tabid/417/smid/1452/ArticleID/175/reftab/539/t/Brahmcharya-Raksha-Mantra/Default.aspx

15. Since doing japa on this tithi is 10 lakh times more beneficial than an ordinary day, sadhaks may also do a seva of doing 1 mala of japa of Maha-Mrityunjay Mantra on this day with the sankalp that Pujya Gurudev has great health, fame, long life and His Divine message of Satsang is spread to all corners of the world. In short, sadhaks may do japa with sankalp for vriddhi (increase) of aayu, aarogya, yash and kirti of Pujya Gurudev.

Shri Sureshanandji has advised in Satsang that whenever sadhaks do japa of a mantra for someone, they should first do japa 11 times of the same mantra themselves, and then do japa for the concerned person. Likewise, in the above case, sadhaks may do japa of Maha-Mrityunjay Mantra 11 times first before doing 1 mala of japa dedicated to Pujya Gurudev.

Sunday, May 9, 2010

माँ




कमर झुक गई



माँ बूढ़ी हो गई



प्यार वैसा ही है



याद है



कैसे रोया बचपन में सुबक-सुबककर



माँ ने पोंछे आँसू



खुरदरी हथेलियों से



कहानी सुनाते-सुनाते



चुपड़ा ढेर सारा प्यार गालों पर



सुबह-सुबह रोटी पर रखा ताज़ा मक्*खन



रात में सुनाई



सोने के लिए लोरियाँ



इस उम्र में भी



थकी नहीं



माँ तो माँ है।

Saturday, May 8, 2010

एक बार सदगुरु से मंत्र मिल गया, फिर उसमें शंका नहीं करनी चाहिए

मंत्र चाहे जो हो, किन्तु यदि उसे पूर्ण विश्वास के साथ जपा जाय तो अवश्य फलदायी होता

Wednesday, May 5, 2010

सज्जनो ! सत्संगसे जो लाभ होता है, वह साधनसे नहीं होता । साधन करके जो परमात्मतत्वको प्राप्त करना है, वह कमाकर धनी होनेके सामान है । किन्तु सत्संग सुनना तो गोदमें जाना सामान है । गोद चले जानेसे कमाया हुआ धन स्वतः मिल जाता है । सत्संगके द्वारा ऐसी-ऐसी चीजें मिलती हैं, जो बरसोंतक साधन करनेसे भी नहीं मिलतीं । इसलिए भाई ! सत्संग मिल जावे तो जरुर करना चाहिये

Sunday, May 2, 2010

त्याग

जीवन में त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए। सब कुछ त्यागने की शक्ति होनी चाहिए। जिनके पास त्यागने की शक्ति होती है वे ही वास्तव में भोग सकते हैं। जिसके पास त्यागने की शक्ति नहीं है वह भोग भी नहीं सकता। त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए। यश मिल गया तो यश के त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए, धन के त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए, सत्ता के त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए।


सत्ता भोगने की इच्छा है और सत्ता नहीं मिल रही है तो आदमी कितना दुःखी होता है ! सत्ता मिल भी गई दो-पाँच साल के लिए और फिर चली गई। कुर्सी तो दो-पाँच साल की और कराहना जिन्दगी भर। यही है बाहरी सुख का हाल। विकारी सुख तो पाँच मिनट का और झंझट जीवन भर की।

सत्ता मिली तो सत्ता छोड़ने का सामर्थ्य होना चाहिए। दृश्य दिखा तो बार-बार दृश्य देखने की आसक्ति को छोड़ने का सामर्थ्य होना चाहिए। धन मिला तो धन का सदुपयोग करने के लिए धन छोड़ने का सामर्थ्य होना चाहिए। यहाँ तक कि अपना शरीर छोड़ने का सामर्थ्य होना चाहिए। जब मृत्यु आवे तब शरीर को भीतर से पकड़कर बैठे न रहें। चलो, मृत्यु आयी तो आयी, हम तो वही हैं चिदघन चैतन्य चिदाकाश स्वरूप.... सोऽहं...सोऽहम्। ऐसे त्यागी को मरने का भी मजा आता है और जीने का भी मजा आता है।
इस संसार रूपी अरण्य में कदम-कदम पर काँटे बिखरे पड़े हैं। अपने पावन दृष्टिकोण से तू उन काँटो और केंकड़ों से आकीर्ण मार्ग को अपना साधन बना लेना। विघ्न मुसीबत आये तब तू वैराग्य जगा लेना। सुख व अनुकूलता में अपना सेवाभाव बढ़ा लेना। बीच-बीच में अपने आत्म-स्वरूप में गोता लगाते रहना, आत्म-विश्रान्ति पाते रहना।
सब घट मेरा साँईया खाली घट न कोय।




बलिहारी वा घट की जा घट परगट होय।।



कबीरा कुँआ एक है पनिहारी अनेक।



न्यारे न्यारे बर्तनों में पानी एक का एक।।



कबीरा यह जग निर्धना धनवंता नहीं कोई।



धनवंता तेहू जानिये जा को रामनाम धन होई।।

Friday, April 30, 2010

वास्तवमें तो एक भगवान् या आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता ही नहीं, इस सत्य को प्राप्त करके कृतकृत्य हो जाओ। निश्चय मानो, तुम जड अनित्य नहीं सच्चिदानन्द आत्मा हो।
GURUDEV KE AAGE ROZ RONA CHAIYE,KI GURUDEV AAP ITNA SATSANG KE DWARA GYAN DE RAHE HAI,PAR PHIR BHI HAMARA VIVIEK,VAIRAGYA KYO JAGRUT NAHEHOT"

Sunday, April 25, 2010

पद्मिनी एकादशी

अर्जुन ने कहा: हे भगवन् ! अब आप अधिक (लौंद/ मल/ पुरुषोत्तम) मास की शुक्लपक्ष की एकादशी के विषय में बतायें, उसका नाम क्या है तथा व्रत की विधि क्या है? इसमें किस देवता की पूजा की जाती है और इसके व्रत से क्या फल मिलता है?

श्रीकृष्ण बोले : हे पार्थ ! अधिक मास की एकादशी अनेक पुण्यों को देनेवाली है, उसका नाम ‘पद्मिनी’ है । इस एकादशी के व्रत से मनुष्य विष्णुलोक को जाता है । यह अनेक पापों को नष्ट करनेवाली तथा मुक्ति और भक्ति प्रदान करनेवाली है । इसके फल व गुणों को ध्यानपूर्वक सुनो: दशमी के दिन व्रत शुरु करना चाहिए । एकादशी के दिन प्रात: नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पुण्य क्षेत्र में स्नान करने चले जाना चाहिए । उस समय गोबर, मृत्तिका, तिल, कुश तथा आमलकी चूर्ण से विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए । स्नान करने से पहले शरीर में मिट्टी लगाते हुए उसीसे प्रार्थना करनी चाहिए: ‘हे मृत्तिके ! मैं तुमको नमस्कार करता हूँ । तुम्हारे स्पर्श से मेरा शरीर पवित्र हो । समस्त औषधियों से पैदा हुई और पृथ्वी को पवित्र करनेवाली, तुम मुझे शुद्ध करो । ब्रह्मा के थूक से पैदा होनेवाली ! तुम मेरे शरीर को छूकर मुझे पवित्र करो । हे शंख चक्र गदाधारी देवों के देव ! जगन्नाथ ! आप मुझे स्नान के लिए आज्ञा दीजिये ।’

इसके उपरान्त वरुण मंत्र को जपकर पवित्र तीर्थों के अभाव में उनका स्मरण करते हुए किसी तालाब में स्नान करना चाहिए । स्नान करने के पश्चात् स्वच्छ और सुन्दर वस्त्र धारण करके संध्या, तर्पण करके मंदिर में जाकर भगवान की धूप, दीप, नैवेघ, पुष्प, केसर आदि से पूजा करनी चाहिए । उसके उपरान्त भगवान के सम्मुख नृत्य गान आदि करें ।

भक्तजनों के साथ भगवान के सामने पुराण की कथा सुननी चाहिए । अधिक मास की शुक्लपक्ष की ‘पद्मिनी एकादशी’ का व्रत निर्जल करना चाहिए । यदि मनुष्य में निर्जल रहने की शक्ति न हो तो उसे जल पान या अल्पाहार से व्रत करना चाहिए । रात्रि में जागरण करके नाच और गान करके भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए । प्रति पहर मनुष्य को भगवान या महादेवजी की पूजा करनी चाहिए ।

पहले पहर में भगवान को नारियल, दूसरे में बिल्वफल, तीसरे में सीताफल और चौथे में सुपारी, नारंगी अर्पण करना चाहिए । इससे पहले पहर में अग्नि होम का, दूसरे में वाजपेय यज्ञ का, तीसरे में अश्वमेघ यज्ञ का और चौथे में राजसूय यज्ञ का फल मिलता है । इस व्रत से बढ़कर संसार में कोई यज्ञ, तप, दान या पुण्य नहीं है । एकादशी का व्रत करनेवाले मनुष्य को समस्त तीर्थों और यज्ञों का फल मिल जाता है ।

इस तरह से सूर्योदय तक जागरण करना चाहिए और स्नान करके ब्राह्मणों को भोजन करना चाहिए । इस प्रकार जो मनुष्य विधिपूर्वक भगवान की पूजा तथा व्रत करते हैं, उनका जन्म सफल होता है और वे इस लोक में अनेक सुखों को भोगकर अन्त में भगवान विष्णु के परम धाम को जाते हैं । हे पार्थ ! मैंने तुम्हें एकादशी के व्रत का पूरा विधान बता दिया ।

अब जो ‘पद्मिनी एकादशी’ का भक्तिपूर्वक व्रत कर चुके हैं, उनकी कथा कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो । यह सुन्दर कथा पुलस्त्यजी ने नारदजी से कही थी : एक समय कार्तवीर्य ने रावण को अपने बंदीगृह में बंद कर लिया । उसे मुनि पुलस्त्यजी ने कार्तवीर्य से विनय करके छुड़ाया । इस घटना को सुनकर नारदजी ने पुलस्त्यजी से पूछा : ‘हे महाराज ! उस मायावी रावण को, जिसने समस्त देवताओं सहित इन्द्र को जीत लिया, कार्तवीर्य ने किस प्रकार जीता, सो आप मुझे समझाइये ।’

इस पर पुलस्त्यजी बोले : ‘हे नारदजी ! पहले कृतवीर्य नामक एक राजा राज्य करता था । उस राजा को सौ स्त्रियाँ थीं, उसमें से किसीको भी राज्यभार सँभालनेवाला योग्य पुत्र नहीं था । तब राजा ने आदरपूर्वक पण्डितों को बुलवाया और पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ किये, परन्तु सब असफल रहे । जिस प्रकार दु:खी मनुष्य को भोग नीरस मालूम पड़ते हैं, उसी प्रकार उसको भी अपना राज्य पुत्र बिना दुःखमय प्रतीत होता था । अन्त में वह तप के द्वारा ही सिद्धियों को प्राप्त जानकर तपस्या करने के लिए वन को चला गया । उसकी स्त्री भी (हरिश्चन्द्र की पुत्री प्रमदा) वस्त्रालंकारों को त्यागकर अपने पति के साथ गन्धमादन पर्वत पर चली गयी । उस स्थान पर इन लोगों ने दस हजार वर्ष तक तपस्या की परन्तु सिद्धि प्राप्त न हो सकी । राजा के शरीर में केवल हड्डियाँ रह गयीं । यह देखकर प्रमदा ने विनयसहित महासती अनसूया से पूछा: मेरे पतिदेव को तपस्या करते हुए दस हजार वर्ष बीत गये, परन्तु अभी तक भगवान प्रसन्न नहीं हुए हैं, जिससे मुझे पुत्र प्राप्त हो । इसका क्या कारण है?

इस पर अनसूया बोली कि अधिक (लौंद/मल ) मास में जो कि छत्तीस महीने बाद आता है, उसमें दो एकादशी होती है । इसमें शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘पद्मिनी’ और कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘परमा’ है । उसके व्रत और जागरण करने से भगवान तुम्हें अवश्य ही पुत्र देंगे ।

इसके पश्चात् अनसूयाजी ने व्रत की विधि बतलायी । रानी ने अनसूया की बतलायी विधि के अनुसार एकादशी का व्रत और रात्रि में जागरण किया । इससे भगवान विष्णु उस पर बहुत प्रसन्न हुए और वरदान माँगने के लिए कहा ।

रानी ने कहा : आप यह वरदान मेरे पति को दीजिये ।

प्रमदा का वचन सुनकर भगवान विष्णु बोले : ‘हे प्रमदे ! मल मास (लौंद) मुझे बहुत प्रिय है । उसमें भी एकादशी तिथि मुझे सबसे अधिक प्रिय है । इस एकादशी का व्रत तथा रात्रि जागरण तुमने विधिपूर्वक किया, इसलिए मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ ।’ इतना कहकर भगवान विष्णु राजा से बोले: ‘हे राजेन्द्र ! तुम अपनी इच्छा के अनुसार वर माँगो । क्योंकि तुम्हारी स्त्री ने मुझको प्रसन्न किया है ।’

भगवान की मधुर वाणी सुनकर राजा बोला : ‘हे भगवन् ! आप मुझे सबसे श्रेष्ठ, सबके द्वारा पूजित तथा आपके अतिरिक्त देव दानव, मनुष्य आदि से अजेय उत्तम पुत्र दीजिये ।’ भगवान तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गये । उसके बाद वे दोनों अपने राज्य को वापस आ गये । उन्हींके यहाँ कार्तवीर्य उत्पन्न हुए थे । वे भगवान के अतिरिक्त सबसे अजेय थे । इन्होंने रावण को जीत लिया था । यह सब ‘पद्मिनी’ के व्रत का प्रभाव था । इतना कहकर पुलस्त्यजी वहाँ से चले गये ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : हे पाण्डुनन्दन अर्जुन ! यह मैंने अधिक (लौंद/मल/पुरुषोत्तम) मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत कहा है । जो मनुष्य इस व्रत को करता है, वह विष्णुलोक को जाता है ।

Saturday, April 24, 2010

शरीर आदि बदलनेवाले हैं और आप न बदलनेवाले हैं।आपने भूलसे अपनेको उनसे मिला हुआ मान लिया।बस,इसको आप मत मानो।हम उनसे मिले हुए हैं-ऐसा दीखनेपर भी इसको आदर मत दो,प्रत्युत अपने अनुभव को आदर दो कि मैं उनसे अलग हूँ।कैसे अलग हूँ कि बचपनसे लेकर अबतक शरीर बदल गया,पर मैं वही हूँ।यह बिलकुल प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है।आप शरीर आदिसे अलग हैं तभी तो बचपन बीत गया और आप रह गये।

आध्यात्मिक उन्नति

जो आध्यात्मिक उन्नति करता है, उसकी भौतिक उन्नति सहज में होने लगती है। सुख भीतर की चीज है और भौतिक चीज बाहर की है। सुख और भौतिक चीजों में कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है।


दरिद्र कौन है ? जो दूसरों से सुख चाहता है, वह दरिद्र है। मूर्ख कौन है ? जो इस संसार को सत्य मानकर उस पर विश्वास करता है, वह मूर्ख है। संसार के स्वामी जगदीश्वर को नहीं खोजता है, वह महामूर्ख है।

अपनी मनोवांछित इच्छाओं के मुताबिक काम्य पदार्थ पाकर जो सुखी होना चाहता है वह सुख और विघ्न-बाधाओं के बीच दुःखी होते-होते जीवन पूरा कर देता है।

समय बीत जायेगा और काम अधूरा रह जायेगा। आखिर पश्चाताप हाथ लगेगा। उससे पहले ईश्वर के राह की यात्रा शुरू कर दो। रात्रि में चलते-चलते ठोकरें खानी पड़े, इससे अच्छा है कि दिन दहाड़े चल लो बुढ़ापा आ जाय, बुद्धि क्षीण हो जाय, इन्द्रियाँ कमजोर हो जायें, देह काँपने लगे, कुटुम्बीजन मुँह मोड़ लें, लोग अर्थी में बाँधकर 'राम बोलो भाई राम...' करते हुए श्मशान में ले जायें उससे पहले अपने आपको शाश्वत में पहुँचा दो तो बेड़ा पार हो जाय।

Thursday, April 22, 2010

यदि प्राणी व्यथित हृदय से उन्हें पुकारे तो उसे सबकुछ मिल सकता है।इस दृष्टि से अपने को निर्दोष बनाने में प्रार्थना का मुख्य स्थान है।वह प्रार्थना सजीव तभी होती है,जब की हुई भूल को न दुहरा कर प्रायश्चितपूर्वक प्रार्थना की जाय।

धर्म

हम जो सत्कार्य करते हैं उससे हमें कुछ मिले – यह जरूरी नहीं है। किसी भी सत्कार्य का उद्देश्य हमारी आदतों को अच्छी बनाना है। हमारी आदते अच्छी बनें, स्वभाव शुद्ध, मधुर हो और उद्देश्य शुद्ध आत्मसुख पाने का हो। जीवन निर्मल बने इस उद्देश्य से ही सत्कार्य करने चाहिए।




किसी को पानी पिलायें, भोजन करायें एवं बदले में पच्चीस-पचास रूपये मिल जायें – यह अच्छे कार्य करने का फल नहीं है। अच्छे कार्य करने का फल यह है कि हमारी आदतें अच्छी बनें। कोई ईनाम मिले तभी सुखी होंगे क्या ? प्यासे को पानी एवं भूखे को भोजन देना यह कार्य क्या स्वयं ही इतना अच्छा नहीं है कि उस कार्य को करने मात्र से हमें सुख मिले ? है ही। उत्तम कार्य को करने के फलस्वरूप चित्त में जो प्रसन्नता होती है, निर्मलता का अनुभव होता है उससे उत्तम फल अन्य कोई नहीं है। यही चित्त का प्रसाद है, मन की निर्मलता है, अंतःकरण की शुद्धि है कि कार्य करने मात्र से प्रसन्न हो जायें। अतः जिस कार्य को करने से हमारा चित्त प्रसन्न हो, जो कार्य शास्त्रसम्मत हो, महापुरुषों द्वारा अनुमोदित हो वही कार्य धर्म कहलाता है।

Wednesday, April 21, 2010

अधिक मास का माहात्म्य

अधिक मास का माहात्म्य


(अधिक मासः 15 अप्रैल 2010 से 15 मई 2010)

अधिक मास में सूर्य की संक्रान्ति (सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश) न होने के कारण इसे 'मलमास (मलिन मास) कहा गया। स्वामीरहित होन से यह मास देव-पितर आदि की पूजा तथा मंगल कर्मों के लिए त्याज्य माना गया। इससे लोग इसकी घोर निंदा करने लगे।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः "मैं इसे सर्वोपरि - अपने तुल्य करता हूँ। सदगुण, कीर्ति, प्रभाव, षडैश्वर्य, पराक्रम, भक्तों को वरदान देने का सामर्थ्य आदि जितने गुण मुझमें हैं, उन सबको मैंने इस मास को सौंप दिया।

अहमेते यथा लोके प्रथितः पुरुषोत्तमः।

तथायमपि लोकेषु प्रथितः पुरुषोत्तमः।।

उन गुणों के कारण जिस प्रकार मैं वेदों, लोकें और शास्त्रों में 'पुरुषोत्तम' नाम से विख्यात हूँ, उसी प्रकार यह मलमास भी भूतल पर 'पुरुषोत्तम' नाम से प्रसिद्ध होगा और मैं स्वयं इसका स्वामी हो गया हूँ।"

इस प्रकार अधिक मास, मलमास, 'पुरुषोत्तम मास' के नाम से विख्यात हुआ।

भगवान कहते हैं- 'इस मास में मेरे उद्देश्य से जो स्नान (ब्राह्ममुहूर्त में उठकर भगवत्स्मरण करते हुए किया गया स्नान), दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण तथा देवार्चन किया जाता है, वह सब अक्षय हो जाता है। जो प्रमाद से इस बात को खाली बिता देते हैं, उनका जीवन मनुष्यलोक में दारिद्रय, पुत्रशोक तथा पाप के कीचड़ से निंदित हो जाता है इसमें संदेह नहीं है।

सुगंधित चंदन, अनेक प्रकार के फूल, मिष्टान्न, नैवेद्य, धूप, दीप आदि से लक्ष्मी सहित सनातन भगवान तथा पितामह भीष्म का पूजन करें। घंटा, मृदंग और शंख की ध्वनि के साथ कपूर और चंदन से आरती करें। ये न हों तो रूई की बत्ती से ही आरती कर लें। इससे अनंत फल की प्राप्ति होती है। चंदन, अक्षत और पुष्पों के साथ ताँबे के पात्र में पानी रखकर भक्ति से प्रातःपूजन के पहले या बाद में अर्घ्य दें। अर्घ्य देते समय भगवान ब्रह्माजी के साथ मेरा स्मरण करके इस मंत्र को बोलें-

देवदेव महादेव प्रलयोत्पत्तिकारक।

गृहाणार्घ्यमिमं देव कृपां कृत्वा ममोपरि।।

स्वयम्भुवे नमस्तुभ्यं ब्रह्मणेऽमिततेजसे।

नमोऽस्तुते श्रियानन्त दयां कुरु ममोपरि।।

'हे देवदेव ! हे महादेव ! हे प्रलय और उत्पत्ति करने वाले ! हे देव ! मुझ पर कृपा करके इस अर्घ्य को ग्रहण कीजिए। तुझ स्वयंभू के लिए नमस्कार तथा तुझ अमिततेज ब्रह्मा के लिए नमस्कार। हे अनंत ! लक्ष्मी जी के साथ आप मुझ पर कृपा करें।'

पुरुषोत्तम मास का व्रत दारिद्रय, पुत्रशोक और वैधव्य का नाशक है। इसके व्रत से ब्रह्महत्या आदि सब पाप नष्ट हो जाते हैं।

विधिवत् सेवते यस्तु पुरुषोत्तममादरात्।

फुलं स्वकीयमुदधृत्य मामेवैष्यत्यसंशयम्।।

प्रति तीसरे वर्ष में पुरुषोत्तम मास के आगमन पर जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति के साथ व्रत, उपवास, पूजा आदि शुभकर्म करता है, वह निःसन्देह अपने समस्त परिवार के साथ मेरे लोक में पहुँचकर मेरा सान्निध्य प्राप्त करता है।''

इस महीने में केवल ईश्वर के उद्देश्य से जो जप, सत्संग व सत्कथा – श्रवण, हरिकीर्तन, व्रत, उपवास, स्नान, दान या पूजनादि किये जाते हैं, उनका अक्षय फल होता है और व्रती के सम्पूर्ण अनिष्ट हो जाते हैं। निष्काम भाव से किये जाने वाले अनुष्ठानों के लिए यह अत्यंत श्रेष्ठ समय है। 'देवी भागवत' के अनुसार यदि दान आदि का सामर्थ्य न हो तो संतों-महापुरुषों की सेवा सर्वोत्तम है, इससे तीर्थस्नानादि के समान फल प्राप्त होता है।

इस मास में प्रातःस्नान, दान, तप नियम, धर्म, पुण्यकर्म, व्रत-उपासना तथा निःस्वार्थ नाम जप – गुरुमंत्र का जप अधिक महत्त्व है।

इस महीने में दीपकों का दान करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। दुःख – शोकों का नाश होता है। वंशदीप बढ़ता है, ऊँचा सान्निध्य मिलता है, आयु बढ़ती है। इस मास में आँवले और तिल का उबटन शरीर पर मलकर स्नान करना और आँवले के वृक्ष के नीचे भोजन करना यह भगवान श्री पुरुषोत्तम को अतिशय प्रिय है, साथ ही स्वास्थ्यप्रद और प्रसन्नताप्रद भी है। यह व्रत करने वाले लोग बहुत पुण्यवान हो जाते है।

अधिक मास में वर्जित

इस मास में सभी सकाम कर्म एवं व्रत वर्जित हैं। जैसे – कुएँ, बावली, तालाब और बाग आदि का आरम्भ तथा प्रतिष्ठा, नवविवाहिता वधू का प्रवेश, देवताओं का स्थापन (देवप्रतिष्ठा), यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, नामकर्म, मकान बनाना, नये वस्त्र एवं अलंकार पहनना आदि।

अधिक मास में करने योग्य

प्राणघातक रोग आदि की निवृत्ति के लिए रूद्रजप आदि अनुष्ठान, दान व जप-कीर्तन आदि, पुत्रजन्म के कृत्य, पितृमरण के श्राद्धादि तथा गर्भाधान, पुंसवन जैसे संस्कार किये जा सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 13, अंक 208

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Monday, April 19, 2010

ज्ञान

कई रात्रियाँ तुमने सो-सोकर गुजार दीं और दिन में स्वाद ले लेकर तुम समाप्त होने को जा रहे हो। शरीर को स्वाद दिलाते-दिलाते तुम्हारी यह उम्र, यह शरीर बुढ़ापे की खाई में गिरने को जा रहा है। शरीर को सुलाते-सुलाते तुम्हारी वृद्धावस्था आ रही है। अंत में तो.... तुम लम्बे पैर करके सो जाओगे। जगाने वाले चिल्लायेंगे फिर भी तुम नहीं सुन पाओगे। डॉक्टर और हकीम तुम्हें छुड़ाना चाहेंगे रोग और मौत से, लेकिन नहीं छुड़ा पायेंगे। ऐसा दिन न चाहने पर भी आयेगा। जब तुम्हें स्मशान में लकड़ियों पर सोना पड़ेगा और अग्नि शरीर को स्वाहा कर देगी। एक दिन तो कब्र में सड़ने गलने को यह शरीर गाड़ना ही है। शरीर कब्र में जाए उसके पहले ही इसके अहंकार को कब्र में भेज दो..... शरीर चिता में जल जाये इसके पहले ही इसे ज्ञान की अग्नि में पकने दो।

Sunday, April 18, 2010

Kis tarah ladatee rahi ho, Pyaas se parchhaiyon se, Neend se , angadaiyon se, Maut se aur zindagi se, Teej se ,tanahaiyon se. kab tak ladte rahoge , jiwan me bhar lo ujale ,kar do roshan apni rahe , prabhu prem se Guru Giyan se
जो मृत्यु के बाद भी तुम्हारे साथ रहेगा उस आत्मा का ज्ञान कर लो…जीवन लाचार मोहताज हो जाये उसके पहले जीवन मे परमात्म सुख की पूंजी इकठ्ठी कर लो…।lकर सत्संग अभी से प्यारे नही तो फिर पछताना हैखिला पिला के देह बढाई वो भी अग्नि मे जलाना है…कर सत्संग अभी से प्यारे नही तो फिर पछताना है॥
प्रेममें मगन होकर भगवान् का भजन लगनसे करे और भगवान् के आगे करुणाभावसे रोता रहे-’हे नाथ! हे हरि! हे गोविन्द! हे वासुदेव! हे नारायण! मुझे तो केवल आपका ही सहारा है,मेरा आपके बिना और कोई आधार नहीं है।प्रभु! मेरेमें न ज्ञान है,न भक्ति है,न वैराग्य है,और न प्रेम ही है।मेरेमें कुछ भी तो नहीं है!मैं तो केवल आपकी शरण हूँ,वह भी केवल वचनमात्रसे!आप ही दया कर


 करके मुझे सब प्रकारसे अपनी शरणमें लें।

हमको तो नाथ!दयाकर अपना वह प्रेम दो जिससे अश्रु-पूर्ण-लोचन और गद्गदकण्ठ होकर निरन्तर तुम्हारा नाम-गुणगान करते रहें;वह शक्ति दो,जिससे जन्म-जन्मान्तरमें कभी तुम्हारे चरणकमलोंकी विस्मृति एक क्षणके लिये स्वप्नमें भी न हो,तुम्हारा नाम लेते हुए आन्नदसे मरें और तुम्हारी इच्छासे जिस योनिमें जन्में तुम्हारी ही छ्त्र छायामें रहें।

तत्वज्ञान

साधनकी ऊँची अवस्थामें ‘मेरेको तत्वज्ञान हो जाय, मैं मुक्त हो जाऊँ’—यह इच्छा भी बाधक होती है । जबतक अंतःकरणमें असत् की सत्ता दृढ़ रहती है, तबतक तो जिज्ञासा सहायक होती है, पर असत् की सत्ता शिथिल होनेपर जिज्ञासा भी तत्वज्ञानमें बाधक होती है । कारण कि जैसे प्यास जलसे दूरी सिद्ध करती है, ऐसे ही जिज्ञासा तत्वसे दूरी सिद्ध करती है, जब कि तत्व वास्तवमें दूर नहीं है, प्रत्युत नित्यप्राप्त है । दूसरी बात, तत्वज्ञानकी इच्छासे व्यक्तित्व (अहम्) दृढ़ होता है, जो तत्वज्ञानमें बाधक है । वास्तवमें तत्वज्ञान, मुक्ति स्वतःसिद्ध है । तत्वज्ञानकी इच्छा करके हम अज्ञानको सत्ता देते है, अपनेमें अज्ञानकी मान्यता करते है, जब कि वास्तवमें अज्ञानकी सत्ता है नहीं । इसलिए तत्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता —‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४/३५); क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं । मिटता वही है, जो नहीं होता और मिलता वही है, जो होता है

Saturday, April 17, 2010

ईश्वरीय विधान

समझ लें कि हमने ईश्वरीय विधान का कोई-न-कोई अनादर किया है। ईश्वर अपमान कराके हमें समतावान बनाना चाहते हैं और हम अपमान पसन्द नहीं करते हैं। यह ईश्वर का अनादर है। ईश्वर हमें मित्र देकर उत्साहित करना चाहते हैं लेकिन हम मित्रों की ममता में फँसते हैं इसलिए दुःख होता है। ईश्वर हमें धन देकर सत्कर्म कराना चाहते हैं लेकिन हम धन को पकड़ रखना चाहते हैं इसलिए 'टेन्शन' (तनाव) बढ़ जाता है। ईश्वर हमें कुटुम्ब-परिवार देकर इस संसार की भूलभुलैया से जागृत होने को कह रहे हैं लेकिन हम खिलौनों से खेलने लग जाते हैं तो संसार की ओर से थप्पड़ें पड़ती हैं।




ईश्वरीय विधान हमारी तरक्की.... तरक्की.... और तरक्की ही चाहता है। जब थप्पड़ पड़ती है तब भी हेतु तरक्की का है। जब अनुकूलता मिलती है तब ईश्वरीय विधान का हेतु हमारी तरक्की का है। जैसे माँ डाँटती है तो भी बच्चे के हित के लिए और प्यार-पुचकार करती है तो भी उसमें बच्चे का हित ही निहित होता है। ईश्वरीय विधान के अनुसार हमारी गलती होती है तो माँ डाँटती है, गलती न हो इसलिए डाँटती है।



जैसे माँ का, बाप का व्यवहार बच्चे के प्रति होता है ऐसे ही ईश्वरीय विधान का व्यवहार हम लोगों के प्रति होता है। यहाँ के विधान बदल जाते हैं, नगरपालिकाओं के विधान बदल जाते हैं, सरकार के कानून बदल जाते हैं लेकिन ईश्वरीय विधान सब काल के लिए, सब लोगों के लिए एक समान रहता है। उसमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, अपना पराया नहीं है, साधु-असाधु नहीं है। ईश्वरीय विधान साधु के लिए भी है और असाधु के लिए भी है। साधु भी अगर ईश्वरीय विधान साधु के लिए भी है और असाधु के लिए भी है। साधु अगर ईश्वरीय विधान के अनुकूल चलते हैं तो उनका चित्त प्रसन्न होता है, उदात्त बनता है। अपने पूर्वाग्रह या दुराग्रह छोड़कर तन-मन-वचन से प्राणिमात्र का कल्याण चाहते हैं तो ईश्वरीय विधान उनके अन्तःकरण में दिव्यता भर देता है। वे स्वार्थकेन्द्रित हो जाते हैं तो उनका अन्तःकरण संकुचित कर देता है।

Wednesday, April 14, 2010

'बाल संस्कार केन्द्र' स्पेशल

 जहाजों से जो टकराये, उसे तूफान कहते हैं।

तूफानों से जो टकराये, उसे इन्सान कहते हैं।।1।।

हमें रोक सके, ये ज़माने में दम नहीं।

हमसे है ज़माना, ज़माने से हम नहीं।।2।।

जिन्दगी के बोझ को, हँसकर उठाना चाहिए।

राह की दुश्वारियों पे, मुस्कुराना चाहिए।।3।।

बाधाएँ कब रोक सकी हैं, आगे बढ़ने वालों को।

विपदाएँ कब रोक सकी हैं, पथ पे बढ़ने वालों को।।4।।

मैं छुई मुई का पौधा नहीं, जो छूने से मुरझा जाऊँ।

मैं वो माई का लाल नहीं, जो हौवा से डर जाऊँ।।5।।

जो बीत गयी सो बीत गयी, तकदीर का शिकवा कौन करे।

जो तीर कमान से निकल गयी, उस तीर का पीछा कौन करे।।6।।

अपने दुःख में रोने वाले, मुस्कुराना सीख ले।

दूसरों के दुःख दर्द में आँसू बहाना सीख ले।।7।।

जो खिलाने में मज़ा, वो आप खाने में नहीं।

जिन्दगी में तू किसी के, काम आना सीख ले।।8।।

खून पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा।

यह नाव तो हिलती जाएगी, तू हँसता जा या रोता जा।।9।।

खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तकदीर से पहले।

खुदा बन्दे से यह पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।।10।

शब्द संभाले बोलिए

शब्द संभाले बोलिए ......


शब्द संभाले बोलिए ......

शब्द के हाथ न पाव रे ........

१। एक शब्द औषध करे..., एक शब्द करे घाव रे ......

२। मुख से निकला शब्द तो, वापिस फिर न आएगा .....

३। दिल किसी का तोरकर तू भी चेन न पायेगा .....

४। इसलिए कहते गुरूजी ,शब्द पे रखना ध्यान रे...

५। सच करवा भाता न किसीको ,...सच मीठा कर बोलिए...

६। गुरु की अमृत वाणी सुनकर, मुख से अमृत घोलिये...

७। इसलिए कहते गुरूजी, मीठा शब्द महान रे......

८। मुख की मौन देवता बनाती, मन की मौन भगवान रे.......

९। मौन से ही तुम अपने , शब्दों मैं भर लो जान रे ....

१०। इसलिए कहते गुरूजी,मौन ही भगवान रे...

११। ज्ञानी तो हर वक्त ही, मौन मैं ही है रहता ....

१२। मुख से कुछ न कहते हुए भी, सब कुछ ही है वो कहता ....

१३। इसलिए कहते गुरूजी, मौन ही वरदान रे.......

१४। एक शब्द औषध करे, एक शब्द करे घाव रे.....

वासुदेव: सर्वम्।’

जैसे, समुद्रमें तरंगें उठती हैं, बुदबुद पैदा होते हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर यह सब-का-सब जल ही है । इस जलसे भाप निकलती है । वह भाप बादल बन जाती है । बादलोंसे फिर वर्षा होती है । कभी ओले बरसते हैं । वर्षाका जल बह करके सरोवर, नदी-नालेमें चला जाता है । नदी समुद्रमें मिल जाती है । इस प्रकार एक ही जल कभी समुद्र रूपसे, कभी भाप रूपसे, कभी बूँद रूपसे, कभी ओला रूपसे, कभी नदी रूपसे और कभी आकाशमें परमाणु रूपसे हो जाता है । समुद्र, भाप, बादल, वर्षा, बर्फ, नदी आदिमें तो फर्क दीखता है, पर जल तत्त्वमें कोई फर्क नहीं है । केवल जल-तत्त्वको ही देखें तो उसमें न समुद्र है, न भाप है, न बूँदें हैं, न ओले हैं, न नदी है, न तालाब है । ये सब जलकी अलग-अलग उपाधियाँ हैं । तत्त्वसे एक जलके सिवाय कुछ भी नहीं है । इसी तरह सोनेके अनेक गहने होते हैं । उनका अलग-अलग उपयोग, माप-तौल, मूल्य, आकार आदि होते हैं । परन्तु तत्त्वसे देखें तो सब सोना-ही-सोना है । पहले भी सोना था, अन्तमें भी सोना रहेगा और बीचमें अनेक रूपसे दीखने पर भी सोना ही है। मिट्टीसे घड़ा, हाँडी, ढक्कन, सकोरा आदि कोई चीजें बनती हैं । उन चीजोंका अलग-अलग नाम, रूप, उपयोग आदि होता है । परन्तु तत्त्वसे देखें तो उनमें एक मिट्टीके सिवाय कुछ भी नहीं है । पहले भी मिट्टी थी, अन्तमें भी मिट्टी रहेगी और बीचमें भी अनेक रूपसे दीखने पर भी मिट्टी ही है । इसी प्रकार पहले भी परमात्मा थे, बादमें भी परमात्मा रहेंगे और बीचमें संसार रूपसे अनेक दीखने पर भी तत्त्व से परमात्मा ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्।’

Sunday, April 11, 2010

नन्ही कली

एक नन्ही दुलारी कली

जन्म लेकर कितनी खुशियाँ लाए

कहते है साथ उसके लक्ष्मी आए

वो अपने आप में ही है हर देवी का रूप

उसे पाकर ना जाने मैने कितने आशीर्वाद पाए

तमन्ना रखती हूँ ,वो फुलो सी खिले

इस से पहले की वो अपने भंवर से मिले

उसके संग मैं अनुभव करना चाहू

मेरा बचपन,वो अनमोल क्षण

जब कभी मेरी आँखें लगे भरी भरी

मेरी ही मा बन,मुझ पे ममता लूटाती सारी

वो ही मुस्कान और हिम्मत मेरी

एक नन्ही दुलारी कली

ईश्वर से मुझे तोहफे में मिली.

Saturday, April 10, 2010

।।इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।


एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।- ऋग्वेद (1-164-43)

भावार्थ : जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।
'हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्‍य परम प्रकाशरूप उस दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।'-श्रीमद्‍भगवद्‍गीता-8
'हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्‍य परम प्रकाशरूप उस दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।'-श्रीमद्‍भगवद्‍गीता-8
एक ही रूप


'जो सर्वप्रथम ईश्वर को इहलोक और परलोक में अलग-अलग रूपों में देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात उसे बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में फँसना पड़ता है।'-कठोपनिषद-।।10।। ओमकार जिनका स्वरूप है, ओम जिसका नाम है उस ब्रह्म को ही ईश्‍वर, परमेश्वर, परमात्मा, प्रभु, सच्चिदानंद, विश्‍वात्मा, सर्व‍शक्तिमान, सर्वव्यापक, भर्ता, ग्रसिष्णु, प्रभविष्‍णु और शिव आदि नामों से जाना जाता है, वही इंद्र में, ब्रह्मा में, विष्‍णु में और रुद्रों में है। वहीं सर्वप्रथम प्रार्थनीय और जप योग्य है अन्य कोई नहीं।
।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।


स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद 10-8-1

भावार्थ : जो भूत, भवि‍ष्‍य और सबमें व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।

Tuesday, April 6, 2010

sadguru tumhare gyan ne jina sikha diya,

hamko tumhare pyar ne insa banadiya.



rahte hai jalve aapke nazro mai hargadhi,

masti ka jam aapne aisa piladiya.



sadguru tumhare gyan ne jina sikha diya,

hamko tumhare pyar ne insa banadiya.



bhula huvatha rasta bhatka huvatha mai,

rehma teri ne mujko kabil bana diya.



sadguru tumhare gyan ne jina sikha diya,

hamko tumhare pyar ne insa banadiya.jisne kiseko aajtak sajda nahi kiya,


vo sarbhi maine aapke dar pe jukadiya

jisdin se mujko aapne apna banaliya

dono jaha ko das ne sab se bhula diya

sadguru tumhare gyan ne jina sikha diya hamko tumhare pyar ne insa banadiya

गुरू

गुरू की मूर्ति ध्यान का मूल है। गुरू के चरणकमल पूजा का मूल है। गुरू का वचन मोक्ष का मूल है।




गुरू तीर्थस्थान हैं। गुरू अग्नि हैं। गुरू सूर्य हैं। गुरू समस्त जगत हैं। समस्त विश्व के तीर्थधाम गुरू के चरणकमलों में बस रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, पार्वती, इन्द्र आदि सब देव और सब पवित्र नदियाँ शाश्वत काल से गुरू की देह में स्थित हैं। केवल शिव ही गुरू हैं।



गुरू और इष्टदेव में कोई भेद नहीं है। जो साधना एवं योग के विभिन्न प्रकार सिखाते है वे शिक्षागुरू हैं। सबमें सर्वोच्च गुरू वे हैं जिनसे इष्टदेव का मंत्र श्रवण किया जाता है और सीखा जाता है। उनके द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।



अगर गुरू प्रसन्न हों तो भगवान प्रसन्न होते हैं। गुरू नाराज हों तो भगवान नाराज होते हैं। गुरू इष्टदेवता के पितामह हैं।



जो मन, वचन, कर्म से पवित्र हैं, इन्द्रियों पर जिनका संयम है, जिनको शास्त्रों का ज्ञान है, जो सत्यव्रती एवं प्रशांत हैं, जिनको ईश्वर-साक्षात्कार हुआ है वे गुरू हैं।

Sunday, April 4, 2010

जहाँ दिव्यता ही जीवन है सागर का गांभीर्य जहाँ

जो कर्मो की फुलवारी है नत-मस्तक है विश्व वहाँ ॥१॥

विपदाएँ कितनी आयी है कितने ही आघात सहे

किन्तु अचल जो खड़ा हुआ है वंदन शत-शत नरवर हे ॥२॥

जिसके मन में ध्येय देव का निशिदिन चिंतन वंदन है

देशभक्ति का प्रकश हँसता जग को पंथ दिखाता है ॥३॥

जिसका स्मित चैतन्य पुरुष है शब्द-शब्द नवदीप प्रखर

जिसकी कृति से भविष्य उज्ज्वल उसको जग का वंदन है ॥४

PUJYA GURUDEV AVATARAN DIN

                                                                     Narayan ke roop me, krishna kaho ya Ram.
                                                                     naye roop me aaye hain, Sadguru Asharam.

                                                                          Hue Avatarit Guru Ji Hamare



ॐ : हुए अवतरित गुरूजी हमारे : ॐ हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे

गुरूजी हमारे , भक्तों के दुलारे हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे


देखो मेरे गुरुवर की शान निराली , सत्संग की भर -भर देते प्याली

किया भक्तों का उद्धार गुरुजी हमारे , हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे ...


कैसा मंगल दिवस है आया , भक्तों ने बड़ी धूम से मनाया

कीर्तन की बहती बयार गुरुजी हमारे , हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे ...


जन्म से पहले सौदागर आया , सुंदर सा एक झूला भी लाया

हुआ धरती पर अवतार गुरुजी हमारे , हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे ...


ज्ञान गगन के सूर्य हैं बापू , शील शांत माधुर्य हैं बापू

सोलह कला के अवतार गुरुजी हमारे , हुए अवतरित हैं आज गुरूजी हमारे ...


कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च येन।

अर्थात जिस कुल में वे महापुरुष अवतरित होते है वह कुल पवित्र हो जाता है, जिस माता के गर्भ से उनका जन्म होता है वह भाग्यवती जननी कृतार्थ हो जाती है और जहाँ उनकी चरणरज पड़ती है वह वसुन्धरा भी पुण्यवती हो जाती है।

साधारण जीव का जन्म कर्मबन्धन से, वासना के वेग से होता है। भगवान या संत-महापुरुषों का जन्म ऐसे नहीं होता। वास्तव में तो उनका मनुष्य रूप में धरती पर प्रकट होना, जन्म लेना नहीं अपितु अवतरित होना कहलाता है।

भगवान या संत महापुरुष तो लोकमांगल्य के लिए, किसी विशेष उद्देश्य को पूरा करने के लिए अथवा लाखों-लाखों लोगों द्वारा करूण पुकार लगायी जाने पर अवतरित होते है अर्थात् हमारी सदभावनाओं को, हमारे ध्येय को, हमारी आवश्यकताओं को साकार रूप देने के लिए जो प्रकट हो जायें वे अवतार या भगवत्प्राप्त महापुरुष कहलाते हैं।

शरीर का जन्म होना और उसका जन्मदिन मनाना कोई बड़ी बात नहीं है बल्कि उसके जन्म का उद्देश्य पूर्ण कर लेना यह बहुत बड़ी बात है। जिन्होंने इस उद्देश्य को पूर्ण कर लिया है, ऐसे परब्रह्म परमात्मा में जगे हुए महापुरुषों का अवतरण-दिवस हमें भी जीवन के इस ऊँचे लक्ष्य की ओर प्रेरित करता है, इसलिए वह उत्सव मनाने का एक सुन्दर अवसर है और सबको मनाना चाहिए।

लोग बोलते हैं- "बापू जी ! आपको बधाई हो।"

"किस बात की बधाई ?"

"आपका जन्म दिवस है।"

यह सब हम नहीं चाहते क्योंकि हम जानते हैं कि जन्म तो शरीर का हुआ है, हमारा जन्म तो कभी होता ही नहीं।
जन्म दिवस पर हमें आपकी कोई भी चीज-वस्तु, रूपया-पैसा या बधाई नहीं चाहिए। हम तो केवल आपका मंगल चाहते हैं, कल्याण चाहते हैं। आपका मंगल किसमें है ?
आपको इस बात का अनुभव हो जाय कि संसार क्षणभंगुर है, परिस्थितियाँ आती जाती रहती हैं, शरीर जन्मते-मरते रहते हैं परंतु आत्मा तो अनादिकाल से अजर अमर है।

जन्मदिवस की बधाई हम नहीं लेते... फिर भी बधाई ले लेते हैं क्योंकि इसके निमित्त भी आप सत्संग में आ जाते हैं और स्वयं को शरीर से अलग चैतन्य, अमर आत्मा मानने का, सुनने का अवसर आपको मिल जाता है। इस बात की बधाई मैं आपको देता भी हूँ और लेता भी हूँ.....

वास्तव में संतों का अवतरण-दिवस मनाने का अर्थ पटाखे फोड़कर, मिठाई बाँटकर अपनी खुशी प्रकट कर देना मात्र नहीं है, अपितु उनके जीवन से प्रेरणा लेकर व उनके दिव्य गुणों को स्वीकार कर अपने जीवन में भी संतत्त्व प्रकट करना ही सच्चे अर्थों में उनका अवतरण-दिवस मनाना है।

Friday, April 2, 2010

परमात्मा

परमदेव परमात्मा कहीं आकाश में, किसी जंगल, गुफा या मंदिर-मस्जिद-चर्च में नहीं बैठा है। वह चैतन्यदेव आपके हृदय में ही स्थित है। वह कहीं को नहीं गया है कि उसे खोजने जाना पड़े। केवल उसको जान लेना है। परमात्मा को जानने के लिए किसी भी अनुकूलता की आस मत करो। संसारी तुच्छ विषयों की माँग मत करो। विषयों की माँग कोई भी हो, तुम्हें दीन हीन बना देगी। विषयों की दीनतावालों को भगवान नहीं मिलते। इसलिए भगवान की पूजा करनी हो तो भगवान बन कर करो। देवो भूत्वा यजेद् देवम्। जैसे भगवान निर्वासनिक हैं, निर्भय हैं, आनंदस्वरूप है, ऐसे तुम भी निर्वासनिक और निर्भय होकर आनंद, शांति तथा पूर्ण आत्मबल के साथ उनकी उपासना करो कि 'मैं जैसा-तैसा भी हूँ भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं और वे सर्वज्ञ हैं, सर्वसमर्थ हैं तथा दयालु भी हैं तो मुझे भय किस बात का !' ऐसा करके निश्चिंत नारायण में विश्रांति पाते जाओ।




बल ही जीवन है, निर्बलता ही मौत है। शरीर का स्वास्थ्यबल यह है कि बीमारी जल्दी न लगे। मन का स्वास्थ्य बल यह है कि विकार हमें जल्दी न गिरायें। बुद्धि का स्वास्थ्य बल है कि इस जगत के माया जाल को, सपने को हम सच्चा मानकर आत्मा का अनादर न करें। 'आत्मा सच्चा है, 'मैं' जहाँ से स्फुरित होता है वह चैतन्य सत्य है। भय, चिंता, दुःख, शोक ये सब मिथ्या हैं, जाने वाले हैं लेकिन सत्-चित्-आनंदस्वरूप आत्मा 'मैं' सत्य हूँ सदा रहने वाला हूँ' – इस तरह अपने 'मैं' स्वभाव की उपासना करो। श्वासोच्छवास की गिनती करो और यह पक्का करो कि 'मैं चैतन्य आत्मा हूँ।' इससे आपका आत्मबल बढ़ेगा, एक एक करके सारी मुसीबतें दूर होती जायेंगी।